श्रीरामचन्द्र बोले, हे भगवन! आपकी भक्ति कैसी है और वह किस प्रकार उत्पन्न होत है जिसके प्राप्त होनेसे यह जीव निर्वाण हो जाता है ओर मुक्तपदवी प्राप्त करता है, हे शंकर ! वह आप सब वर्णन कीजिये, जिससे संसारसे निवृत्ति प्राप्त हो ॥१॥
श्रीभगवानुवाच ।
शिवजी बोले जो वेदाध्ययन दान यज्ञ सम्पूर्ण मेरे में अपर्णकी बुद्धिसे करता है वह मेरा भक्त और मेरा प्रिय है वह इस प्रकार है कि "आम्ता त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृह पूजाते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः । संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥१॥" अर्थ यह कि, यह शरीर शिवालय है, इसमें सच्चिदानन्द आप हो, बुद्धिरूप श्रीपार्वतीजी है, आपके साथ चलनेवाले नौकर प्राण है और जो मै विषयानन्दके निमित्त खाता पिता देखता सुनता हू बोलता स्पर्श करता हूं, यही आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, फिरना आपकी प्रदक्षिणा है, वचन आपकी स्तुति है, हे शिव! इस प्रकार मै आपका आराधन करता हूं, आप मेरे ऊपर कृपा करो इस प्रकार आराधन करे कर्मोंको ऐसे मेरे अर्पण करे ॥२॥
अग्निहोत्रकी पवित्र भस्म लाकर अथवा श्रोत्रिय ब्राह्मणके स्थानसे लाकर "अग्निरिति" भस्म इत्यादि मन्त्रोंसे यथाविधि अभिमंत्रित कर ॥३॥
अपने शरीरमे उसे लगाकर और भस्मद्वाराही जो मेरा अर्चन करता है, हे राम! उससे अधिक मेरी भक्ति करनेवाला दूसरा नही है ॥४॥
जो प्राणी मस्तक और कण्ठमें रूद्राक्षको धारण करता है और (नमः शिवाय) इस पंचाक्षरी विद्याका जप करता है वह मेरा भक्त है और मुझे प्यारा है ॥५॥
भस्म लगानेवाला, भस्मपर शयन करनेवाला, सदा जितेन्द्रिय जो सदा रुद्रसूक्त जपता और अनन्य बुद्धिसे मेरा चिन्तन करता है ॥६॥
वह उसी देहसे शिवस्वरूप हो जाता है, जो रुद्रसूक्त वा अथर्वशीर्ष मन्त्रोका जप करता है ॥७॥
कैवल्योपनिषद् वा श्वेताश्वतर उपनिषद्का जो जप करता है उससे अधिक मेरा दूसरा भक्त इस लोकमें नही है ॥८॥
धर्मसे विलक्षण, अधर्मसे विलक्षण, कार्य और कारणसे भी परे भूत और भविष्यकालसे भी परे जिसको मै कहता हूं, सो तू सुन ॥९॥
जिस वस्तुको वेद और सब शास्त्र वर्णन करते है जो सम्पूर्ण उपनिषदोंमे से सारग्रहण किया है जैसे दहीमें से घृत ॥१०॥
जिसकी इच्छा करके मुनिजन ब्रह्मचर्य धारण करते है, वह अकार उकार मकारात्मक हमारा पद है, सो मै तुझसे संक्षेपसे वर्णन करता हूं ॥११॥
यही अक्षर परब्रह्म और सगुणब्रह्म, निर्गुणब्रह्म है, इसी अक्षर ब्रह्मके जाननेसे ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर मुक्त हो जाता है ॥१२॥
यही उत्तम आधार हैयही उत्तम तारक है इसको जानके ब्रह्म लोकमें पूजित होता है ॥१३॥
जो वेदरूपी धेनुओंमें श्रेष्ठ है ऐसा वेदान्त प्रतिपादन करता है यही मोक्षका धारण करनेवाला और संसारसागर का सेतु है तथा च श्रुतिः "यश्छ्न्दसामृषभो विश्वरूपश्छन्दोभ्योऽध्यमृतात्संबभूव" इति नै० ॥१४॥
वह वस्तु क्या है अब उसका वर्णन करते है वह मेदसे आच्छादित हुए कोश अर्थात् ह्रदयाकाशमें जो ब्रह्म है उसे ओंकार कहते है । यही परम मंत्र है और इसीमें सब लोक निवास करते है, तथा च श्रुतिः "सोअयमात्माऽध्यक्षरमोंकारोधिमत्रं पादमात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकारः" इति माण्डु०। "ओमिति ब्रह्म । ओमितिदं सर्वम् ।" अर्थात यह ओंकारही ब्रह्म और सब कुछ है ॥१५॥
उसकी चार मात्रा है अकार उकार और मकार और अन्तकी कारणरूप आधी मात्रा है पहली अकाररूप मात्रामें भूलोक ऋग्वेद, ब्रह्मदेव, आठ वसु, गार्हपत्य अग्नि, गायत्री छन्द और प्रातः सेवन यह आठ देव निवास करते है ॥१६॥
दूसरी उकार मात्रामें भुवर्लोक, विष्णु, रुद्र, अनुष्टुप् छन्द, यजुर्वेद, यमुनानदी, दक्षिणाग्नि, माध्यंदिन सवन यह देवता निवास करते है ॥१७॥
तीसरी प्रकार मात्रा मे स्वर्लोक, सामवेद, आदित्य, महेश्वर, आहवनीयग्नि, जगती छन्द और सरस्वती नदी ॥१८॥
और अथर्ववेद तृतीयसवन यह वास करते है और जो चौथी मात्रा है वह सोमलोक ॥१९॥
अथर्वांगिरस गाथा संवर्तक अग्नि महर्लोक, विराट्, सभ्य और आवसथ्य अग्नि, शुतद्रीनदी और यज्ञपुच्छ यह देवता निवास करते है "अमात्रश्चतुर्थो व्यवहार्य्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोअद्वैत एवमोङ्कार आत्मेव संविशत्यात्मनाअत्मान् य एवं वेद य एवं वेद" अर्थात् जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तीन अवस्थासे परे अमात्रिक तुरीया अवस्थारूप आत्मा ही है, यह वाचकवाच्यरूप वाणी मनका मूल अज्ञान दूर करनेसे व्यवहारके अयोग्य है, तथा प्रपंचरहित शिवस्वरूप और अद्वैत है । यह उच्चारण किया हुआ ॐकार आत्मा ही है ऐसे जो जानता है वह अपने आत्मासे परमार्थरूप आत्मामें प्रवेश करता है, और जन्मके कारणोंका लय कर फिर उत्पन्न नही होता ॥२०॥
पहली मात्रा रक्तवर्ण, दूसरी भास्वर (प्रकाशयुक्त) वर्ण, तीसरी बिजलीके वर्णकी तथा चौथी मात्र शुभ वर्ण है ॥२१॥
जो कुछ उत्पन्न हुआ है और जो कुछ उत्पन्न होगा स्थावर जंगमात्मक अनेक प्रकारका यह जगत ॐकारमें ही प्रतिष्ठित है ॥२२॥
भूत भविष्यरूप यह संसार रुद्ररूप ही है और रुद्रमें प्राण और उसमें भी ॐकार स्थित है, तात्पर्य यह है शिव और ॐकार एकस्वरूप है ॥२३॥
वह शिवरूप सनातन ब्रह्म ॐकारने ही वर्तमान है इस कारण ॐकारका जपनेहारा निःसन्देह मुक्त हो जाता है ॥२४॥
श्रौत अग्निसे अथवा स्मार्त अग्निसे अथवा शैवाग्निसे उत्पन्न हुई भस्मको जो ॐकार से अभिमंत्रित करके ॐकारद्वारा जो मेरा पूजन करता है, उससे अधिक संसारमें मेरा दूसरा प्रियभक्त नही है ॥२५॥
घरकी अग्नि अथवा वनकी अग्निकी भस्मको ॐकार से अभिमंत्रित करके जो अपने शरीरमें लगावे वह शुद्रभी मुक्तिको प्राप्त हो जाता है ॥२६॥
दभांकुर, बिल्वपत्र तथा और भी वनके पर्वतके उत्पन्न हुए फूलोंसे ॐकार द्वारा जो मेरी नित्य पूजा करता है वह मेरा प्रिय है ॥२७॥
पुष्प, फल, मूल, पत्र किंवा जलसे जो ओंकारयुक्त मेरे निमित्त दान करता है, वह करोड गुना हो जाता है ॥२८॥
किसी प्राणिमात्राकि हिंसा न करनी, सत्य बोलना, चोरी न करनी, बाह्याभ्यंतर शौचयुक्त, इन्द्रियनिग्रह करनेवाले, वेदाध्ययनमें तत्पर जो मेरे भक्त है वे मेरे प्यारे है ॥२९॥
जो कोई प्रदोषके समय मेरे स्थानमें जाकर मेरी पूजा करता है, वह अत्यन्त लक्ष्मीको प्राप्त होता है, और अन्तमें मुझमें लय होजाता है ॥३०॥
अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या इन तिथियोंमें जो सर्वांगमें भस्म लगाकर रात्रिके समय मेरा पूजन करता है वह मेरा भक्त और प्रिय है ॥३१॥
जो एकादशीके दिन व्रत रहकर प्रदोषके समय मेरा पूजन करता है और विशेष करके जो सोमवारके दिन मेरी पूजन करता है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है ॥३२॥
जो पंचामृत, पंचगव्य, पुष्प, सुगन्धयुक्त जल अथवा कुशके जलसे मुझे स्नान कराता है उससे अधिक मेरा कोई प्रिय नही है ॥३३॥
दूध, घृत, मधु, इक्षुरस (गन्नेका रस) पक्के आमके फल अथवा नारियलके जलसे ॥३४॥
अथवा जो गंधयुक्त जलसे रुद्रमंत्र उच्चारण करता हुआ मेरा अभिषेक करता है उससे अधिक प्यारा दूसरा मुझे नही है ॥३५॥
और जो जलमे स्थित हो सूर्यकी ओर मुख किये ऊपरको बाहें उठाये सूर्यके बिंबमें मेरा ध्यान करता हुआ अथर्वागिरसका जप करता है वह इस प्रकार मेरे शरीरमें प्रवेश करता है, जैसे गृहपति घरमें प्रवेश करता है और बृहद्रथन्तर वामदेव और देवव्रत सामको ॥३६॥३७॥
तथा योग आज्यदोह मन्त्रोंका जो मेरे आगे गान करता है वह इस लोकमें परम सुखको भोगकर अन्तमें मेरे स्थानको प्राप्त होता है ॥३८॥
अथवा जो ईशावास्यादि मंत्रोको सावधान हो मेरे सन्मुख जप करता है वह मेरी सायुज्य मुक्तिको प्राप्त हो मेरे लोकमें अक्षय सुख भोग करता है ॥३९॥
हे रघुनाथजी! यह मैने भक्तियोग तुम्हारे प्रति वर्णन किया यह मनुष्योंको सब कामनाका देनेहारा है अब और क्या सुननेकी इच्छा करते हो ॥४०॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीता सू० शिवराघवसंवादे भक्तियोगो नाम पंचदशोध्यायः ॥१५॥