श्रीभगवान बोले - हे राजन! तुम सावधान होकर सुनो, मै तुमसे देहका स्वरूप कहता हूँ, यह संसार मुझहीसे उत्पन्न होता है मुझही से धारण किया जाता है ॥१॥
और जिस प्रकार भ्रम निवृत होने से रजत सीपमें लय हो जाती है इसी प्रकार यह जगत् ज्ञानसे मुझमें लय हो जाता है, मै निर्मल पूर्ण सच्चिदानंदस्वरूप हूँ ॥२॥
मै संगरहित शुद्ध सनातन ब्रह्म हूँ, मै अनादिसिद्धि मायासे युक्त होकर जगतका अकारण होता हूँ ॥३॥
मेरी माया का वर्णन नही हो सकता, उसमे सत्त्व, रज, तम यह तीन गुण रहते है ॥४॥
सत्वगुण शुक्लवर्ण मनुष्योंको सुख और ज्ञानक देनेवाला है और रजोगुण का रक्तवर्ण है, यह चंचल और मनुष्यों को दुःख देनेवाला है ॥५॥
तम का कृष्ण वर्ण है, यह जड और सुख दुःखसे उदासीन रहता है, इसी कारण मेरे संयोग से वह त्रिगुणात्मिका माया ॥६॥
मेरे ही अधिष्ठानसे इस प्रकार जगत को रचना करके दिखाती है, जिस प्रकार अज्ञान शुक्ति में रजत और रस्सीमें सर्प दिखाइ देता है ॥७॥
मुझसे मायाके द्वारा आकाशादिकी उत्पत्ति होती है, मुझसे प्रथम आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल, जलसे पृथ्वी उत्पन्न होती है, उन्ही पांचोसे उत्पन्न हुआ यह सब देह पंचभूतात्मक कहाता है ॥८॥
पितामाताके भक्षण किये अन्नसे यह षट्कोशात्मक शरीर उत्पन्न होता है, जिसमें स्नायु अस्थि और मज्जा पिता के कोशसे उत्पन्न होते है ॥९॥
त्वचा मांस और रुधिर यह माताके वीर्यसे उत्पन्न होते है इसी प्रकार मात और पिता सम्बन्धी षट्कोशात्मक देह में माता से उत्पन्न होने वाले, पिता से उत्पन्न होनेवाले, रजसे उत्पन्न होनेवाले तथा आत्मासे उत्पन्न होनेवाले, चार पदार्थ है ॥१०॥
उसमें रक्त, मेदा, मज्जा, प्लीहा, यकृत, गुदा, ह्रदय, नाभि इत्यादि मृदु पदार्थ मातासे उत्पन्न होते है ॥११॥
श्मश्रु, लोम, केश, स्नायु,शिरा, धमनी, नाड़ी, नख, दंत, वीर्य आदि स्थिर पदार्थ पिता के संबधसे होते है ॥१२॥
पुष्टता, वर्ण, तृप्ति, बल, अवयवोंकी दृढ़ता, अलोलुपता, उत्साह इत्यादि रजसे उत्पन्न होते है ॥१३॥
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, धर्म, अधर्म, भावना, प्रयत्न, ज्ञान, आयुष्य, इन्द्रिय इत्यादि यह आत्मज अर्थात आत्मासे उत्पन्न हुए कहाते है ॥१४॥
श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, और घ्राण यह पांच ज्ञानेन्द्रिय कहाते है ॥१५॥
क्रमसे ही शब्द, स्पर्श, रूप रस गन्ध, यह पांच इनके विषय है, वाणी, हाथ, पैर गुदा और उपस्थ यह पांच कर्मेन्द्रिय है ॥१६॥
बोलना, लेना, देना, चलना, मलविसर्जन और रति यह क्रमसे पांचो इन्द्रियोंके पांच कार्य और मन उभयात्मक है, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त यह अन्तःकरणके चार भेद है ॥१७॥१८॥
सुख और दुःख यह मनका विषय है, स्मृति भय विकल्प इत्यादि मनके कर्म है और जो निश्चय करती है उसीको बुद्धि कहते है और अहं, मम यह जो अहंकारात्मक मनकी वृत्ति है इसे ही चित्त कहते है ॥१९॥
यह अन्तःकरणभी सतोगुणादिके भेदसे तीन प्रकार का है, सत, रज, तम यह तीन गुण है, जब सतोगुण प्रधान होता है तब ॥२०॥
आस्तिक्य बुधि, स्वच्छता, धर्ममें रुचि इत्यादि सात्विक धर्म प्राप्त होते है और जब रजोगुण होता है तो काम क्रोध मद इत्यादि होते है ॥२१॥
तमोगुणकी प्रधानतामें निद्रा, आलस्य, प्रमाद, वंचना होती है, इन्द्रियों की प्रसन्नता, आरोग्य, आलस्य का न होना, यह गुण सत्त्वसे उत्पन्न होते है ॥२२॥
इन पांच महाभूतोंकी मात्रासे उत्पन्न हुआ यह देह उनके गुणों को धारण करता है, उनमें शब्द, श्रोत्र, इन्द्रिय, वाणी, कुशलता, लघुता, धैर्य ॥२३॥
और यह बल सात गुण आकाशसे इस स्थूल देहमें प्राप्त होते है, स्पर्शगुण, त्वगिन्द्रिय, उत्क्षेपण (ऊपर को फेंकना) अवक्षेपण (नीचे को फेंकना) आकुंचक(सकोड़ना) प्रसारण (फैलना) गमन (चलना) यह पांच कर्म है ॥२४॥
प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान यह पांच प्राण है ॥२५॥
नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय यह पांच उपप्राण कहाते है, यह एकही वायुके विकारको प्राप्त होने पर दश नाम धर लिये है ॥२६॥
उसमें प्राणपवन मुख्य है जो नाभि से लेकर कंठतक स्थित रहता है, और नासिका नाभि तथा ह्रदयकमलमें गमन करता है ॥२७॥
शब्द के उच्चारण निशब्द निश्वास और श्वासादिकका यही कारण है ॥२८॥
गुद, लिंग, कटि, जंघा, उदर, नाभि, कंठ, अंडकोश, जोड़ोकी संधि और जंघाओंमें अपानवायु रहता है, उसका कर्म मूत्र और पुरीषका विसर्जन (त्याग) करना है ॥२९॥
नेत्र, कर्ण, पाव के घुटने, जिह्वा तथा नासिका इन पांच स्थानों में व्यानवायु रहता है, प्राणायाम रेचक, पूरक, कुंभक इसके कर्म है ॥३०॥
समानवायु सब शरीरमें व्याप्त होकर जठराग्निके सहित बहत्तर हजार नाड़ियोंके रन्ध्रमें संचार करता है ॥३१॥
भोजन किये और पिये हुए सम्पूर्ण रसों के देहकी पुष्टिके निमित्त लेकर चरण, हाथ और अंगकी संधियोंमे उदान वायू रहता है ॥३२॥
देहका उठाना, चलाना यह इसका कर्म कहा है, त्वचा, मांस रक्त अस्थि और स्नायु इन पांच धातुओंके आश्रय नागादि पांच उपप्राण रहते है ॥३३॥
डकार, हुचकी, यह नाग पवन का कर्म, पलक खोलना, लगाना, कटाक्ष, यह कुर्मका कर्म, भूख प्यास, छींकना, कृकलका कर्म, आलस्य निद्रा जंभाई देवदत्तका कर्म और शोक और हास्य धनंजय का कर्म है ॥३४॥
अग्निके धर्म चक्षु, कृष्ण, नील, शुक्ल इत्यादि रूप भोजनका पाक, स्वतःप्रकाश, क्रोध, तीक्ष्णपन, कृशता, ओज, इन्द्रियोंका तेज, संताप, शूरता ॥३५॥
और बुद्धि यह गुण तेजसे प्राप्त होते है, और रसनेन्द्रिय, रस शीत, चिकटापन, द्रवत्व पसीना और सम्पूर्ण अवयवोंमें कोमलता यह धर्म जल से उत्पन्न होते है ॥३६॥
घ्राणेंन्द्रिय, गन्ध, स्थिरता, धैर्य, गुरुत्व यह धर्म पृथ्वीसे उत्पन्न होते है, त्वचा, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र यह सात धातु शरीरको धारण करते है ॥३७॥
पुरुषोंका भक्षण किया अन्न जठराग्निसे तीन भाग हो जाता है, तिसका स्थूल भाग मल, मध्यभाग मांस और सूक्ष्म भाग मन होता है, इससे मन अन्नमय कहाता है ॥३८॥
जलका स्थूलभाग मूत्र, मध्यभाग रक्त और कनिष्ठ भाग प्राण कहाता है इससे जलमय प्राण है ॥३९॥
तेजका स्थूलभाग अस्थि, मज्जा मध्यभाग और वाणी सूक्ष्मभाग है, आशय यह है कि अन्न, उदक और तेजरूप सर्व जगत है ॥४०॥
रक्तसे मांस उत्पन्न होता है,मांससे मेदा, मेदसे अस्थि और अस्थिसे मज्जा उत्पन्न होती है ॥४१॥
मांससेही नाडी उत्पन्न होती है, और मज्जासे वीर्य उत्पन्न होता है ॥४२॥
वात, पित्त, कफ यह तीन धातु शरीर में रहते है, शरीरमें दश अंजलि प्रमाण जल रहता है और नौ अञ्जलि रस अर्थात (अन्न) रहता है ॥४३॥
रक्त आठ अञ्जलि, विष्ठा सात अञ्जलि; कफ छः अञ्जलि, पित्त पांच अंजलि और मूत्र चार अञ्जलि रहता है ॥४४॥
वसा (चर्बी) तीन अंजलि, मेदा दो अञ्जलि, मज्जा एक अञ्जलि और वीर्य आधी अञ्जलि रहता है, इसी को बल कहते है ॥४५॥
शरीरमें अस्थि तीन सौ साठ, शंख, कपाल, रुचक, आस्तरण और नवक यह पांच प्रकार की अस्थि होती है ॥४६॥
शरीरमें दौ सौ दश २१० अस्थियोंकी सन्धि है, उनको रौरव प्रसर स्कन्दसेचन उलूखल ॥४७॥
समुद्ग मण्डक शंकावर्त और वायसतुण्डक यह आठ भेद अस्थियोंकी संधिके है ॥४८॥
साढे तीन करोड सब शरीरपर रोम है, और डाढीके बाल तीन लाख है, हे दशरथकुमार! इस प्रकार यह देहका रूप तुम्हरे प्रति वर्णन किया, इस देहकी समान निस्सार पदार्थ दूसरा त्रिलोकीमें कोई नही है ॥४९॥
इस देहको प्राप्त होकर पापबुद्धि पुरुष महाअभिमान करते है और अहंकाररूप पापसे मुख्यानन्द मोक्षका कुछभी उपाय नही करते, यह महाशोककी बात है ॥५०॥
इस कारण मुमुक्षुको वैराग्य दृढ होनेकी निमित्त यह स्वरूप जानना अवश्य है ॥५१॥
इति श्री पद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे देहस्वरूपनिर्णयो नाम नवमोध्यायः ॥९॥