श्रीरामचन्द्र बोले - हे भगवन् ! जो कुछ मैने प्रश्न किया है वह तो उस प्रकार स्थित है, हे महेश्वर! आपने इस विषयका कोई उत्तर नही दिया ॥१॥
हे महेश्वर ! आपका देह परिच्छिन्नपरिमाण अर्थात् इयत्ता करनेके योग्य है फिर सब संसारकी उत्पत्ति पालन नाश कैसे करते हो ॥२॥
इसी प्रकार अपने २ अधिकार के पालन करनेवाले इन्द्र वरुणादि सब देवता तुम्हारी देह में कैसे रहते है और वे सब देवता और चौदह भुवन यह मैं ही हूँ, ऐसा जो तुम कहते तो कैसे कहते हो अर्थात् जबतक उपाधि है तबतक जीव ईश्वरका अभेद संभवित नही होता और जड प्रपंच महाभूतोंमें चेतनाका तादाम्य संभावति नही ॥३॥
हे देव! आपसे उत्तर सुना परन्तु संदेह नही जाता कारण कि चित्तका निश्चय नही उस सन्देहकी दूर करनेको आपही समर्थ हो ॥४॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान् बोले ! सूक्ष्म वटके बीजमें जिस प्रकार महान वटका वृक्ष सदा रहता है और उसीसे वह वृक्ष निकल भी आता है यदि ऐसा न हो तो बताओ वह वृक्ष कहां से आता है इसी प्रकार मेरे सूक्ष्म शरीरसे सब भूतोंका जन्म पालन और नाश होता है ॥५॥
जिस प्रकारसे जलके बीचमें बड़ा सैन्धेका खण्ड डालनेसे वह उसमें विलीन होजाता है और नही दीखता पीछे जलको अग्निमें औटाने से वह पूर्ववत् प्राप्त हो जाता है ॥६॥
अथवा जैसे प्रतिदिन सूर्यसे प्रकाश उत्पन्न होता और संध्या समय विलीन हो जाता है इसी प्रकार मुझसे जगत् उत्पन्न होकर विलीन हो जाता है और मुझमें हि स्थिर रहता है । हे सुव्रत राम! तुम ऐसा जानो ॥७॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचंद्र बोले- हे भगवन् ! आपने दृष्टान्तसे प्रतिपादन किया परन्तु जिस प्रकार दिशाओंके भ्रमवाले को उत्तरादि दिशाओंका भ्रम हो जाता है, इसी प्रकार मुझे भ्रम हो गया है । वह निवृत्त नही होता मै क्या करूं ॥८॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान बोले - हे राम ! जिस प्रकार यह चराचर जगत् मुझमें वर्तमान है, सो मैं तुमको दिखाता हूँ परन्तु तुम उसे देखनेको समर्थ नही ॥९॥
इस कारण उसके देखनेको मै तुम्हे दिव्यनेत्र देता हूँ, उन नेत्रोंसे भय त्यागकर तुम मेरा दिव्य स्वरूप देखो ॥१०॥
नरेन्द्र वा देवता इस मेरे तेज स्वरूपको मेरे अनुग्रह बिना चर्म चक्षुसे नही देखे सकते ॥११॥
सूत उवाच ।
सूतजी बोले ऐसा कहकर शिवजीने रामचन्द्रको दिव्यनेत्र दिये और पातालकी समान बडा विस्तृत मुख रामचन्द्रको दिखाया ॥१२॥
करोड़ो बिजलीकी समान प्रकाशमान अतिशय भयदायक भयंकर उस रूपको देखतेही रामचन्द्र जंघाओं के बलसे पृथ्वी में बैठ गये ॥१३॥
प्रणाम और दंडवत् करके शिवजीको बारंबार प्रसन्न करने लगे फिर महाबली रामचन्द्र उठकर जबतक देखते है ॥१४॥
जबतक त्रिपुरघाती शिवजीके मुखमें करोड़ो ब्रह्मान्ड प्रलय कालकी अग्निमें व्याप्त होकर चटका पक्षीके पंखो कि समान दीखे ॥१५॥
सुमेरू, मंदराचल, विंध्याचलादि पर्वत, सात समुद्र, चंद्र सूर्यादि सब ग्रह, पांच महाभूत और शिवजीके साथ आये हुए सब देवता ॥१६॥
वन, बडे २ सर्प, चौदह भुवन इस प्रकार रामचन्द्रने प्रत्येक ब्रह्माण्डको देखकर ॥१७॥
उन्हीमें पूर्वकालमे हुआ देवता और असुरोंका संग्रामभी देखा विष्णुके दश अवतार और उनके कर्तत्य कंसवध रावणवध आदि ॥१८॥
युद्धमें देवताओंकी पराजय, शिवजीका त्रिपुरासूरको मारना इसी प्रकार उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जीवों का लय देखकर ॥१९॥
रामचंद्र भयभीत हो बारंबार प्रणाम करने लगे । यद्यपि रामचन्द्र को तत्त्वज्ञान भी हो गया था तथापि भयभीत हो गये ॥२०॥
तब उपनिषदोंका सार और अर्थरूप वाणीसे शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥२१॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्र बोले । हे विश्वेश्वर ! हे शरणागतदुःखनाशक, हे चन्द्रशेखर! प्रसन्न हूजिये और संसारके भयसे मुझ अनाथकी रक्षा कीजिये ॥२२॥
हे शंकर! यह भूमि और इस पर उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि सब आपसे ही उत्पन्न हुए है यह सब नित्य तुमही में स्थित रहते है । हे शिव! अन्तमें यह सब तुम्हीमें स्थित हो जाते है ॥२३॥
ब्रह्मा, इन्द्र, एकादश, रुद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, गंगादि नदी, सागर यह सब हे शूल धारणकरनेवाले ! तुम्हारे मुखमें दीखते है ॥२४॥
हे चन्द्रमौले! तुम्हारी मायासे कल्पित हुआ यह विश्व तुम्हारे ही स्वरूपमें प्रतीत होता है, इसे भ्रांतियुक्त होकर पुरुष इस प्रकारसे देखते है जिसप्रकारसे शुक्तिमें रजतका और रस्सीमें सर्पका भ्रम उत्पन्न होता है, वह भ्रांति वैसी नही है यह जैसी भ्रांति होती है वह पदार्थ अन्यत्र सिद्ध होता है और नही भी होता, जैसे शुक्तिमें रजतकी भ्रांति हुई । परन्तु रूपा पदार्थ दूसरे स्थानमें विद्यमान है, तैसे यह जगत् तुम्हारे स्वरूपसे बचकर अन्यत्र नही दीखता इसीसे लोक इसको शुक्तिका रजतवत् भ्रम मानते है ॥२५॥
आप अपने तेजसे सब जगत् व्याप्त और प्रकाश करते हो । हे देवदेव! आपके प्रकाश के बिना तो हज जगत् क्षणमात्रमें अदृश्य हो जाय ॥२६॥
जो पदार्थ थोडे आश्रयवाला है वह बडे पदार्थको धारण करनेमे समर्थ नही होता, जिसप्रकार एक अणु विंध्याचलको धारण नही कर सकता और तुम्हारे मुखमात्रमें यह सब जगत् दीखता है । यह सब आपकी माया है, वास्तविक नही ऐसा मुझे निश्चय है ॥२७॥
जिस प्रकारसे रज्जुमें सर्प की भ्रांति भयदायक होती है, यद्यपि वहां वास्तवमें सर्प उत्पन्न नही होता और भ्रमके नाश होनेपर सबका नाशभी नही होता (यथार्थ ही है कि जो उत्पन्न नही हुआ उसका नाश होनेवाला नही) परन्तु यह भय देनेवाला होता है इसी प्रकार तुम्हारी मायासे जिसको अस्तित्व प्राप्त हुआ है, ऐसा यह जगत् मिथ्या भ्रांतिके कार्य को सत्य उत्पन्न करता है ॥२८॥
जो यह तुम्हारा शरीर जगतका आधारभूत दीखता है यदि विचार दृष्टिसे देखा जाय तो भी यह अज्ञान दृष्टि की कल्पना है कारण कि तुम सच्चिदानन्दरूप और सर्वत्र पूर्ण हो ॥२९॥
ऐसा है तो कर्मकाण्डप्रतिपादक सर्व श्रुति व्यर्थ हुई, पर ऐसा नही । यज्ञ इष्टापूर्त दान अध्ययनादि कर्मोंका फल तुम कर्ताको देते हो, यह कर्मकाण्डपर विश्वास रखनेका प्रमाण है, परन्तु महापुण्योंके उदयसे जब ब्रह्मका साक्षात्कार होता है और यह सब प्रपंच तुमसे अभिन्न दीखने लगता है, तब तुम क्या कर्मों का फल देते हो? अर्थात् नही देते तब कर्मकांडप्रतिपादक कथा असिद्ध हो जाती है ॥३०॥
ज्ञानहीन अविचारी पुरुष ही पूजा यज्ञ आदि बाह्य कर्मोसे शिव संतुष्ट होते है ऐसा कहते है परन्तु यह ठीक नही कारण कि जो अमूर्त परिमाणरहित और अनन्त है उसको भोगकी इच्छा नही होती ॥३१॥
इसी प्रकार किंचित बेलपत्रवा चुल्लूभर जल से प्रीतिसे आपको देता है वह प्रीतिसे स्वीकार करके आप उसे स्वराज्यपद देते हो यह भी माया से कल्पित है ऐसा मेरा निश्चय है ॥३२॥
तुमही एक पुराण पुरुष सम्पूर्ण दिशा बिदिशा और विश्वमें व्याप्त हो, इस जगत् के नाश होनेमें भी तुम्हारी हानि नही हो सकती, जिस प्रकार घटके नाश होनेसे घंटमे व्यापी आकाशकी हानि नही हो सकती, इसी प्रकार जगत् के नाशसे तुम्हारी कुछ हानि नही ॥३३॥
जिस प्रकार आकाशमें एकही सूर्यका बिंब जल भरेहुए छोटे पात्रोमें अनेक बिंबत्वको प्राप्त होता है अर्थात् अनेकरूप दीखते है इसी प्रकारसे आप एक होकर भी सबके अन्तःकरणमें अनेकरूपसे विराजते हो ॥३४॥
संसारके उत्पत्ति पालन और नाश होनेमे भी तुम्हारा कुछ कर्तव्य नही है केवल अनादि सिद्ध देहधारियोंके कर्मानुसार स्वप्नवत् तुम सब कार्य करते हो, जीव ईश्वरमें केवल बिम्ब और प्रतिबिंबकी समान अन्तर है ॥३५॥
हे शंभो! स्थूल और सूक्ष्म दोनों जड़ देहोंमे आत्मतत्वके सिवाय दूसरा चैतन्य अंश नही है, हे पुरमथन! सुख दुःख जो दोनों देहको होते है उनकी कहनेवाली श्रुति केवल आपमें आरोप करती है, वास्तविक नही ॥३६॥
हे भगवन् ! सच्चिदानन्दरूप समुद्रमें हंसरूप नीलकण्ठ कालस्वरूप भक्तजनोंके सम्पूर्ण पातक दूर करनेवाले और सबके साक्षी आपके वास्ते नमस्कार है ॥३७॥
सूत उवाच ।
सूतजी बोले, इस प्रकार विश्वेश्वरको प्रणाम कर, हाथ जोड़ विस्मित हो रामचन्द्र परमेश शिवजीसे बोले ॥३८॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्र बोले, हे विश्वात्मन् ! यह अपना विश्वरूप आप उपसंहार करिये । हे शंकर! आपके अनुग्रहसे आपमें एकत्र स्थित सब जगतको देखकर मुझे प्रतीति हुई ॥३९॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान बोले, हे महाभुज! रामचन्द्र! देखो मुझसे दूसरा कोई नही है ।
सूत उवाच ।
सूतजी बोले - ऐसा कहकर शिवजीने अपने देहमें से देवतादिकों को गुप्त किया, अर्थात् विश्वरूप छिपा लिया ॥४०॥
आंख खोल फिर जो रामचन्द्र प्रसन्न होकर देखते है इतने ही समयमें पर्वत के श्रृंगपर व्याघ्रचर्मपर स्थित पंचमुख नीलकण्ठ त्रिलोचन शिवजीको देखा ॥४१॥
जो व्याघ्रचर्मका वस्त्र ओढे, शरीरमें विभूति लगाये है, सर्पके कंकण पहरे, नागका यज्ञोपवीत धारे ॥४२॥
व्याघ्रचर्मका ही वस्त्र ओढे बिजलीकी समान पीली जटा धारे इकले मस्तकपर चन्द्रमा धारे श्रेष्ठ भक्तोंके अभय देनेहारे ॥४३॥
चार भुजा शत्रुनाशक परशा धारण किये मृग हाथमें लिये सब जगत् के पति शिवजीको देख उनकी आज्ञामें मन लगाये प्रणाम करके रामचन्द्र स्थित हुए ॥४४॥
तब शिवजी रामचन्द्रसे बोले जो जो तुम्हारे पूछने की इच्छा है वह तुम सब पूछो । हे राम! मेरे सिवाय दूसरा कोई तुम्हारा गुरु नही है ॥४५॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्म० योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे विश्वरूपदर्शनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥