श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्रबोले - हे देवदेव! हे सृष्टिसंहारकर्ता! हे नाथ! कृपा करके मुझसे मुक्तिके साधन कहिये ॥१॥
श्रीभगवान बोले - हे बुद्धिमान रामचंद्र ! मन लगाकर सुनो, यह महाआनंददायक वार्ता मै तुम्हारे प्रति वर्णन करता हूँ ॥२॥
उस सर्वज्ञ सर्वस्वरूप सवैशका आश्रय करके जो कि सबका लक्षणस्वरूप है भाव और अभावसे हीन उदय और अस्तसे वर्जित ॥३॥
स्वभावसे ही प्रकाशस्वरूप शान्तस्वरूप है जिस अव्ययको कोई देखनेको समर्थ नही, आलम्बरहित परम सूक्ष्म सबके आधारभूत परेसे परे है ॥४॥
वह ध्यान ध्येय संपन्न नही है, न लक्ष्य है, न भावना, न अवद्धकरण, न अभ्यासके चलायमान करनेसे ॥५॥
न इडा पिंगला, न सुषुम्ना नाडीद्वारा उसका आना जाना, न अनाहत, न कण्ठमें, न नादमें, न बिंदुमें ॥६॥
न ह्रदय, न शिर, न नेत्रोंके बन्द करने, न ललाटमध्यमें, न नासाके अग्र भागमें, न प्रवेश होनेमें, न निकलनेमें ॥७॥
न बिंदुमालिनी, न हंस, न आकाश, न तारका, न निरोध, न ज्ञान, न मुद्रा, न आसन ॥८॥
न रेचक, न पूरक, न कुम्भक, न संपुट, न चिंता, न शून्य, न स्थान, न कल्पना ॥९॥
न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति, न तुरीय, न सालोक्य, न सामीप्य, न सरूप, न सायुज्य ॥१०॥
न बिंदुके भेदमें ग्रथित होना, न नासिका का अग्रभाग देखना, न ज्योति, न शिखान्त, न कुछ प्राणधारणमें ॥११॥
न ऊर्ध्व, न आदि, न मध्यमें, न आदि मध्य और अन्त, न दूर, न धोरे, न प्रत्यक्ष, न परोक्ष (दृष्टि अगोचर) ॥१२॥
न ह्रस्व, न दीर्घ, न लुप्त, न अक्षर, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न दीर्घ, न गोल, न ह्रस्व और दीर्घविहीन सुषुम्नासे भी जानने, अयोग्य ॥१३॥
न ध्यान, न शास्त्र, न आयत (दीर्घ), न पुश्टक (पोषण कारक), न वाम, न दक्षिण, न आच्छादित, न मध्यमें, न स्त्री न पुरुष, न षण्ढ, न नपुसंक ॥१४॥१५॥
न आचार सहित, न आचार रहित, न तर्क, न तर्क का कारण, लय, विलय, अस्ति, नास्तिक रहित ॥१६॥
न उसके माता, न पिता, न भाई, न मातुल (मामा), न पुत्र,, न स्त्री, न पोता, न पुत्री है ॥१७॥
उसके निमित्त न दुष्ट मायाका कर्तव्य है, न स्थानबन्ध, इसी प्रकार ग्रामबन्ध घरका बंधन तथा आत्माका बन्धन ॥१८॥
न जातिबन्धक करनेकी आवश्यकता, न वर्णबन्धन, न उसका विपर्यय (उलटा), न व्रत, न तीर्थ, न उपासना, न क्रिया ॥१९॥
न अनुमानके करनेकी आवश्यकता, न क्षेत्रबंध, न सेवा, न शीत, न उष्ण, न कुछ प्राणधारणा ॥२०॥
जो अनेक पक्षोंसे रहित हेतु और दृष्टान्त से वर्जित, बाह्य अन्तर एकाकर, परेसे परे तथा उससे भी परे देव विश्वके आत्मा सदाशिव है ॥२१॥
जो अनन्त, सूर्यकी समान प्रकाशमान, जो अनन्त चन्द्रमाकी समान कान्तिमान, अनन्त, गणेशकी समान शोभायमान, अनन्त विष्णुकी समान दैत्योंके मारनेवाले, अनन्त दावाग्निकी समान जाज्वल्यमान, अनन्त रूप रुद्र की समान उग्ररूपधारी ॥२२॥२३॥
अनन्त समुद्रकी समान गंभीर, अनन्त वायुकी समान महाबली, अनन्त आकाशकी समान विस्तारवान, अनन्त यमराजकी समान भयानक, अनन्त सुमेरुकी समान विस्तृत, अनन्त कुबेरकी समान ऋद्धिदायक, निष्कलंक, निराधार, निर्गुण, गुणवर्जित है ॥२४॥२५॥
न काम, न क्रोध, न पिशुनता, न पाखण्डता, न माया, न मोह, न लोभ, न शोक ॥२६॥
इनके द्वारा तथा लोभके द्वारा परमात्मा प्राप्त नही होता, शनैः शनैः लोभादिको त्यागन करदे, साधन सिद्धि औषधी फल ॥२७॥
इस रसायन धातुवाद वितण्डा) अञ्जन (जिसके लगानेसे त्रिलोकीका ज्ञान हो) खड्गसिद्धि पाताल तथा आकाश गमनसिद्धि रस तथा मूल इनमें किसी प्रकार मन न लगाना चाहिये किन्तु यह सब प्रकारकी सिद्धिये तृणका समान सब त्यागना चाहिये स्वयं प्राप्त हुई हो ॥२८॥२९॥
आठों महासिद्धि और अणिमादिक सिद्धिये इनके संयोगके तृणवत त्यागनेस मुक्त हो जाता है इसमें कोई सन्देह नही ॥३०॥
किये हुए कर्मोके फलमे इच्छा न करनी तथा उनका त्याग करना संगरहित होना इस प्रकार शून्य अशून्यमें होकर कुछभी न विचारे ॥३१॥
न कुछ चिन्तन करे न कल्पना करे, न मनन करे, कारण कि वह मनके भी परे है मनके नष्ट होनेसे चिन्ता और इन्द्रियादि लय हो जाती है ॥३२॥
सम्पूर्ण चिन्ताको त्यागन करके चित्तको अचिन्ताके आश्रय करे बहुत कहनेसे क्या है ह्रदयमें विचार प्रवेश करके और उसे अनवस्थाकर अर्थात् लय करके फिर कुछभी न विचारे, अनित्य कर्मका त्यागनेवाला अथवा नित्य अनुष्ठानमें तत्पर ॥३३॥३४॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तमें निवास करनेहारे वाणी मन और बुद्धिसे मोहनेहारे अनेक प्रकारके यह सब कर्म जो कुछ भी है सब ब्रह्मरूपही है, फिर विषयादिक मे कौनसी वस्तु त्यागनेके योग्य है, कारण कि (ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचज्जगत्यां जगदिति श्रुतिः ) यह सब कुछ ब्रह्मही है ॥३५॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे पण्डितज्वालाप्रसादमिश्रकृत भाषाटीकाया जीवन्मुक्तिस्वरूपनिरूपणयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥
फाल्गुनकृष्ण त्रयोदशी, शशिदिन शंभु मनाये ॥
शिवगीताको तिलक यह, पूर्ण कियो मन लाय ॥१॥
उन्निससै पंचाश शुभ, सम्वत्सर सुखदान ॥
चंद्रमौलि शंकरसुमिर, भाष्यो गीताज्ञान ॥२॥
पढहिं सुनहिं आचरहिं जो, पावहिं पदनिर्वान ॥
भक्तिलहहिं शिवकी शुभद, नितनूतन कल्यान ॥३॥
हे शंकर यह आपके, अर्पण कियो बनाय ॥
करिये अंगीकार प्रभु, पुष्पांजलि गिरिशाय ॥४॥
नित ज्वालाप्रसाद पद, वन्दत वारंवार ॥
यह प्रसाद है आपको, करिये प्रभु निस्तार ॥५॥
॥श्रीसांबसदाशिवार्पणमस्तु॥