श्रीरामचन्द्र बोले, हे भगवन् ! आप कहते हो कि मै ही जगत्की उत्पत्ति और पालन करता हूँ इसमें मुझे बड़ा आश्चर्य है । स्वच्छ स्फटिक मणिकी समान जिनका शरीर और तीन नेत्र तथा मस्तकपर चन्द्रमा है ॥१॥
ऐसे आप परिच्छिन्न और पुरुषाकृति मूर्ति धारण किये हो और पार्वती सहित प्रमथ आदि गणों के साथ यही विहार करते हो ॥२॥
फिर तुमने पंचभूतादि यह चराचर जगत् कैसे उत्पन्न किया है । हे गिरिजापते! जो आपकी मुझपर कृपा है तो आप कहिये ॥३॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान बोले- हे महाभाग रामचंद्र! सुनो, जो देवताओंकी भी बुद्धिमें नही आता वह से यत्नपूर्वक तुमसे कहता हूँ, जिससे तुम अनायास ही संसार के पार हो जाओगे ॥४॥
जो कुछ यह पाँच महाभूत, चौदह भुवन, समुद्र, पर्वत, देवता, राक्षस और ऋषि दीखते है ॥५॥
१ चौदहभुवन भूः भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यं यह सात ऊपरके लोक, अतल, वितल, सुतल, रसातल,तलातल, महातल और पाताल यह सात अधोलोक मिलकर चौदह लोक हुए ।
तथा और स्थावर जंगम, गन्धर्व, प्रमथ और नाग दीखते है यह सब मेरी विभूति है ॥६॥
प्रथम ब्रह्मादि देवता मेरा रूप देखनेके निमित्त मेरे प्रिय मंदराचल पर गये ॥७॥
देवता हाथ जोड मेरे आगे स्थित हुए तब मैने देवताओं को लीलासे व्याकुलचित्त जानकर उन ब्रह्मादि देवताओका ज्ञान हरलिया ॥८॥
वे तत्काल ही ज्ञानरहित हो हमसे बोले तुम कौन हो? तब मैने देवताओंसे कहा मै ही पुरातन हूँ ॥९॥
हे देवताओं! सृष्टिसे पहिले मै ही था, वर्तमानमें भी मै ही हूँ और अन्तमें भी मै ही रहूँगा । इस लोकमें मेरे सिवाय और कुछ नही ॥१०॥
हे सुरेश्वरो! मुझसे व्यतिरिक्त और कुछ वस्तु नही है ॥ नित्य अनित्य भी मै ही हूँ तथा मै ही पापरहित वेद और ब्रह्माका भी पति हूँ ॥११॥
मै ही दक्षिण उत्तर पूर्व पश्चिम हूँ । हे सुरेश्वरो! ऊपर नीचे दिशा विदिशा सब मै ही हूँ ॥१२॥
सावित्री, गायत्री, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप् और पंक्ति छन्दभी मै ही हूँ, तथा मै ही तीनो वेदोंमे वर्णन किया गया हूँ ॥१३॥
मै ही सत्यस्वरूप मायाके विकास से रहित हूँ, सब प्रकार शांत दक्षिणाग्र्नि, गार्हपत्य, आहवनीय तीन अग्निस्वरूप हूँ, गौ, गुरुमें गुरुता, वाणीका रहस्य, स्वर्ग और जगत् का पति मै ही हूँ ॥१४॥
मै ही सबसे ज्येष्ठ सब देवताओं से श्रेष्ठ ज्ञानियोंमें पूज्य सब जलोंका पति सागर मै ही हूँ । मै ही अर्चा के योग्य षङ्गुण ऐश्वर्यसम्पन्न तेजः स्वप्न और उसकी आदिवायु भी मै ही हूँ ॥१५॥
मै ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और श्रेष्ठ अंगिरस अथर्ववेद हूँ मै ही स्वयम्भू हूँ ॥१६॥
भारतादि इतिहास, ब्राह्मपुराणादि पुराण, कल्पसूत्र, उनका प्रवर्तक बोधायनादि ऋषि, नाराशंसी नामक रुद्रतत्त्वके प्रतिपादक मुख्य तत्त्व की प्रतिपादन करनेवाली गाथा, उपासनाकाण्ड, उपनिषद् यह सब मै ही हूँ ॥१७॥
'तदप्येश श्लोको भवति' इत्यादि श्लोक सांख्ययोगादि सूत्र व्याख्यान अनुव्याख्यान गान्धर्वगान विद्यादि यज्ञहोम आहुति ॥१८॥
गाय आदि दानके पदार्थ दान देना, यह लोक, अविनाशि पर लोक, क्षर-प्राणीमात्रों के ह्रदयमें वास करनेहारा, इन्द्रियनिग्रह, मनोनिग्रह और खग-जीवनभी मै ही हूँ, सब वेदोंमें गूढ भी ही हूँ, निर्जनस्थानवासी भी मैं हूँ, जन्मरहितभी मैं ही हूँ ॥१९॥
पुष्कर, पवित्र, सबके मध्य और बाहर भीतर आहे अविनाशी मै ही हूँ ॥२०॥
तेज, अन्धकार, इन्द्रिय, इन्द्रियके गुण, बुद्धि, अहंकार और शब्दादि विषय मै ही हूँ ॥२१॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, उमा, स्कन्द, गणपति, इंद्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु ॥२२॥
कुबेर, ईशान, भूःभुव, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यं, यह सात लोक, पृथ्वी, जल, वायु ॥२३॥
आकाश, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह, प्राण, काल, मृत्यु, अमृत, भूत, प्राणी यह सब मै ही हूँ ॥२४॥
वर्तमान और भविष्य मै ही हूँ, सम्पूर्ण विश्व सर्वरूपभी मै ही हूँ ओंकारके आदि और मध्यमें भूर्भुवः स्वः मै ही हं और गायत्री शीर्ष जपनेवालोंका विराट् स्वरूप भी मै ही हूँ ॥२५॥
भक्षण, पान, कृत, अकृत, (नही किया) तथा पर, अपर, मै ही हूँ और सबका आश्रय मै ही हूँ ॥२६॥
मै ही जगत का हित, अक्षर, सूक्ष्म, दिव्य, प्रजापति, पवित्र, सोम, देवता, अग्राह्यं (जो ग्रहण करने में न आवें) और सबका आदि मै ही हूँ ॥२७॥
मै ही सबका उपसंहार करनेवाला, मै ही पर्वत, सागर इत्यादि गुरुवस्तू और प्रलयकालिक अग्नि सूर्यादितेज इन सब पदार्थों में विद्यमान हूँ, मै ही सब प्राणियों के ह्रदयमें देवता और प्राणरूप से स्थित हूँ ॥२८॥
जिसका शिर (स्पर्श संज्ञकवर्ण) उत्तरको, और जिसके पाद (उष्म संज्ञक वर्ण) दक्षिणको और जिसके अन्तर अन्तस्थसंज्ञक वर्ण) मध्यमें है ऐसा त्रिमासिक साक्षात ओंकार मैं हूँ ॥२९॥
जिस कारणसे कि मैं जप करनेवालों को स्वर्गादि लोकको ले जाता हूँ पुण्यक्षीण पुरुषोंको नीचे ले ता हौं, इस कारण मै एक निरन्तर नित्य सनातन ओंकार हूँ ॥३०॥
यज्ञकर्म में ब्रह्मा नामक ऋत्विक होकर ऋग्यजु और सामके मन्त्र ऋत्विजो को देता हूँ, इस कारण मैं ही प्रणवस्वरूप हूँ, तात्पर्य यह कि सब मै ही हूँ ॥३१॥
जैसे घृत तैलादि स्नेह द्रव्य मांसपिंडमें व्यापत होकर भक्षण करनेवाले की सब देह को व्याप्त करते है, इसी प्रकार सब लोकोंमें अधिष्ठानरूप से व्याप्त होकर मै सर्वव्यापी हूँ ॥३२॥
ब्रह्मा हरि भगवान् व और दूसरे देवभी मेरा आदि और अन्त नही ऐसा जानते इस कारणसे मैं अनन्त हूँ ॥३३॥
गर्भवास जन्म जरा मृत्युसे भरे संसारसागर से मै भक्तोंको तारता हूँ इस कारण मेरा नाम तारक है ॥३४॥
जरायजु, स्वेदज, अंडज, अद्भिज्ज इन चार प्रकारके देहो में मै जीवरूपसे वास करता हूँ, और इनके ह्रदयाकाशमें सूक्ष्मरूप होकर वास करता हूँ, इससे मै सूक्ष्म कहता हूँ ॥३५॥
महाअन्धकारमें मग्न हुए भक्तों को उद्धार करनेके निमित्त बिजलीकी समान दीप्तिमान् निरुपम तेजरूप प्रगट करता हुं इस कारण मै विद्युत्स्वरूप हूँ ॥३६॥
जिस कारणसे कि मै एकही लोकोंको उत्पन्न अरु संसार करके लोकान्तरमें पहूँचाता हूँ अरु ग्रहण करता हूँ इस कारणसे मुझे स्वतंत्र और एक ईश्वर कहते है ॥३७॥
प्रलयकालमें कोई दूसरा स्थित नही रहता केवल मै ही तीन गुणोंसे परे स्वयं ब्रह्मरुद्रस्वरूप सब प्राणियों को अपने में लय करके स्थित होता हूँ ॥३८॥
जो कि मै सब लोकोंकी ईशिनी अर्थात् सब लोकोंको स्वाधीन रखनेवाली शक्तियों से स्वाधीन रखता हूँ उन पर सत्ता चलाता हूँ इस कारण सर्वद्रष्टा सबका चक्षु मै ईशान कहाता हूँ ॥३९॥
मै स्थिर और चर सब प्राणियों का सदा ईश्वर हू तथा सब विद्याओंका अधिपति हूँ, अर्थात् सर्व ईश्वर शक्तिसम्पन्न हूँ, इससे मेरा ईशान नाम सार्थक है ॥४०॥
मै सब अतीत और अनागत पदार्थोंको आत्मज्ञानसे देखता हूँ, इसी प्रकार साधनसम्पन्न पुरुष को आत्मज्ञानरूपयोग का उपदेश करता हूँ और सबमें व्यापने से मै भगवान ऐश्वर्यवान हूँ ॥४१॥
मै निरन्तर सब लोकोंकी उत्पत्ति, पालन और संहार करता हूँ, इस कारण मुझे महेश कहते है ॥४२॥
महत् पुरुषों में आत्मज्ञान और अष्टांग योगसे जो महिमा विद्यमान है और जो सब पदार्थों को उत्पन्न करके रक्षा करता है वह महादेव मै ही हूँ ॥४३॥
मै ही श्रुतिप्रतिपादित एक देव सम्पूर्ण दिशाओंमें वर्तमान हूँ मै ही सबसे प्रथम गर्भमें वास करनेहारा, गर्भसे निकलनेहारा और पीछे उत्पन्न होनेहारा हू मै ही सम्पूर्ण लोक हूँ और सब दिशाओं में मेरा ही मुख है ॥४४॥
सर्वत्र मेरे नेत्र सर्वत्र मेरा मुख सर्वत्र मेरी भुजा और सर्वत्र मेरे चरण है मै ही भुजा और चरणोंसे स्वर्ग और भूमिको उत्पन्न करता हुआ एक देवस्वरूप हूँ ॥४५॥
केशके अग्रभागकी समान सूक्ष्मरूप ह्रदयमें रहनेवाला, विश्वव्यापक, स्वप्रकाश, श्रेष्ठ आत्मस्वरूप मै हूँ मुझे जो चतुर पुरुष तत्त्वमस्यादि वाक्यों के ज्ञानसे (वह तु है) ऐसी उपाधि त्यागकर जीव और ब्रह्म को एकता से देखते है अर्थात एकस्वरूप जानते है वही निरन्तर मोक्ष को प्राप्त होते है दूसरे नही ॥४६॥
सीपी में जो रजतबुद्धि है यह भ्रम ही है परन्तु रजतके भ्रमका आधार शुक्ति यथार्थ है उसी प्रकार मेरे स्वरूपमें भासनेहारा जगत् मिथ्या है परन्तु उसका आधार मै सत्य तथा एकरूप हूँ मै ही यह पंचभूतात्मक जगत् धारण किये हूँ ऐसे मुझे ईश्वरके स्वरूपमें जो विवेक करेगा उसको अनन्त शान्ति अर्थात् मुक्तिकी प्राप्ति होगी ॥४७॥
प्राणका ही अन्तर्गत मन है वहां क्षुधा पिपासा और तृष्णा रहती है इससे शुभाशुभ फल प्राप्तिका कारण जो धर्म अधर्म है उसके भी कारण विषयतृष्णा को छिन्नकर निश्चयात्मक बुद्धि मुझमें अन्तःकरण लगाकर जो मेरा ध्यान करते है उनको निरन्तर शांति और मोक्षसुख प्राप्त होता है दूसरोंको नही ॥४८॥
जहां वीणा की गति नही जहां मन नहीं पहुंच सकता इस प्रकार आनन्द ब्रह्मरूप मेरे जाननेवाले को कहीं से भय प्राप्त नही होता ॥४९॥
इस कारण देवता मेरे वचन जो कि आत्मस्वरूप ज्ञानके देनेवाले है सुनकर मेरा नामका जप करके मेरेही ध्यानपरायण हुए ॥५०॥
देहान्तमें वे सब मेरे सायुज्यको प्राप्त होगये । जो कुछ ये पदार्थ दीखते है यह सब मेरी ही विभूति है ॥५१॥
यह सब वस्तु मुझहीसे उत्पन्न है औरु मुझही में प्रतिष्ठित है और अन्तमें मुझमें ही लय हो जाती है मैं ही अद्वय ब्रह्म हूँ ॥५२॥
मै ही सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म महानसे भी महान मै ही विश्वरूप निर्लेप पुरातन पुरुष सर्वेश्वर तेजोमय और शिवरूप हूँ ॥५३॥
मेरे हस्त चरण नही और सब कुछ कर सकता हूँ मेरी शक्ति किसी के ध्यानमें नही आती मेरे भौतिक नेत्र नही तथापि सब कुछ देखता हूँ कान नही और सब कुछ सुनता हूँ मै सत् असत् सब विचारको जानता हूँ मेरा एकान्तस्वरूप हूँ मेरा जाननेवाला कोई नही मै सदा चैतन्यस्वरूप हूँ ॥५४॥
सम्पूर्ण वेदोंमें मै ही जानने योग्य हूँ वेदान्तका कर्ता और वेदका जाननेवाला भी मै ही हूँ । मुझमें पाप और पुण्य नही, मेरा नाश तथा जन्म नही मुझे देह इन्द्रिय और बुद्धिका संबंध नही है ॥५५॥
भूमि, जल, तेज, वायु आकाश इनसे मै लिप्त नही हूँ । इस प्रकारसे पंचकोशात्मक गुहामें निवासा करनेहारा निर्विकार संगरहित सर्वसाक्षी कार्यकारण भेदशून्य परमात्मा हूँ । जो मुझको इस प्रकार से जानते है वह मेरे शुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त होते है ॥५६॥
हे महाबुद्धिमन्! रामचन्द्र! इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जानता है वही संसारमें मुक्त होता है दूसरा नही ॥५७॥
इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु० विभूति योगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥