सूतजी बोले, बुद्धिमानोंमे श्रेष्ठ रघुनाथजी इस प्रकार श्रवण करके प्रसन्न हो गिरिजापतिसे मुक्तिका लक्षण पूछने लगे ॥१॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्र बोले- हे कृपासागर भगवन् ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुक्ति का स्वरूप और लक्षण वर्णन किजिये ॥२॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान बोले, हे राम! सालोक्य, सारूप्य, सार्ष्ट्य सायुज्य और कैवल्य यह मुक्तिके पांच भेद है ॥३॥
जो कामना रहित अज्ञानसे हीन होकर मूर्तिमें मेरा पूजन करते है वह मेरे लोकको प्राप्त होकर सालोक्य मुक्ति को प्राप्त होते है और अनेक प्रकार के इच्छित भोग भोगते है ॥४॥
और जो मेरा स्वरूप जानकर निष्काम बुद्धिसे मेरा भजन करता है वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होकर अनेक प्रकारके अभिलाषित भोगोंको भोगता है इसे सारूप्य मुक्ति कहते है ॥५॥
जो पुरुष मेरी प्रीतिके निमित्त इष्टपूर्तादिकर्मोको करता है वह भी उसी फलको प्राप्त होता है इसमें संशय नही ॥६॥
जो कर्ता जो भोजन करता और जो अग्निमें हवन करता है जो देखता है और जो कुछ तपस्या आदि करता है, वह सब मेरे ही अर्पण करता है, वह मेरे लोक की सब लक्ष्मी जगत् के कर्तापन आदिसे व्यतिरिक्त सब दिव्य संपत्ति भोगता है, इसे सार्ष्ट्य मुक्ति कहते है ॥७॥
जो शान्ति आदि साधनसे युक्त होकर श्रवण मनन निदिध्यासनपूर्वक मुझेही आत्मारूप जानता है वह अद्वैत स्वप्रकाश ब्रह्मके तद्रूपको प्राप्त होता है, जो जीवका यथार्थ स्वरुप है इस स्वरूपसे अवस्थान करने का नाम सायुज्यमुक्ति है ॥८॥९॥
सत्य ज्ञान अनंत आनंद इत्यादि लक्षण युक्त और सब धर्मरहित मन और वाणीसे परे ॥१०॥
सजातीय और विजातीय पदार्थोंके उसमें न होनेसे इस ब्रह्मको अद्वैत कहते है ॥११॥
हे राम! यह जो शुद्ध स्वरूप का वर्णन किया है; इसे आत्मरूप जानकर सम्पूर्ण स्थावर जंगम जगतको मेरे ही रूपमें देखता है ॥१२॥
जिस प्रकार आकाशमें गन्धर्वनगर नही है और उसकी मिथ्या प्रतीति होती है इसी प्रकारसे यह अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुआ जगत् मुझमें कल्पना किया जाता है, वास्तविक मिथ्या है ॥१३॥
जिस समय मेरे स्वरूपके ज्ञानसे अविद्या नष्ट हो जाती है तब मन वाणीसे परे एक म ही विद्यमान रहता हूँ ॥१४॥
मै नित्य परमानन्द स्वप्रकाश और चिदात्मा हूँ, काल दिशा विदिशा पंचभूत इस स्वरूपमें कुछ नही है, मेरे सिवाय दूसरी कोई वस्तू नही है, मै केवल एकही विद्यमान रहता हूँ ॥१५॥
मेरे निर्गुण स्वरूप कोईनील पीतादि आकार और वर्णका नही है और इन चर्मचक्षुसे भी कोई मुझे देखनेको समर्थ नही हो सकता, जो कोई ह्रदयमें बुद्धिसे मेरे स्वरूपको जानते है, वे ही ज्ञान मुक्त हो जाते है ॥१६॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्रजी बोले, हे भगवन!! ! मनुष्योंको शुद्ध ज्ञान किस प्रकारसे होता है, हे शंकर! जो आपकी कृपा मेरे ऊपर है तो इसका उपाय वर्णन कीजिये ॥१७॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीभगवान बोले, ब्रह्मलोकपर्यन्त दिव्य देहको भी नाशवत समझकर भार्या, मित्र, पुत्रादि इन सबको क्लेशदाता और अनित्य समझकर इनसे चित्तकी वृत्ति पृथक् करे ॥१८॥
और श्रद्धापूर्वक ज्ञान प्राप्त होने के निमित्त मोक्षशास्त्र वेदांतमें निष्ठाशील होकर उसी के जाननेका उपाय करता हुआ ब्रह्मवेत्ता गुरुके निकट जाय ॥१९॥
उस गुरुके आगे अपने हाथमें लाया हुआ पदार्थ रखके दंडवत नमस्कार करे फिर उठके हाथ जोड़के इच्छित अर्थका निवेदन करे ॥२०॥
बहुत कालतक सावधान हो इन्हे सेवासे संतुष्ट करे और मन लगाकर सब वेदान्तके वाक्योंका अर्थ श्रवण करे ॥२१॥
और सम्पूर्ण वेदान्तके वाक्यों का तात्पर्यभी निश्चय करले (यह नही कि अहं ब्रह्म करता फिरे) इसका नाम ब्रह्मवादियोनें श्रवण कहा है ॥२२॥
लोहमणी आदिके दृष्टान्त सद्युक्तिसे जैसे कि, चम्बुककी शक्तिसे लोहा भ्रमण करता है, इसी प्रकार ब्रह्मकी सत्तासे जगत् भ्रमण करता है श्रवणको पुष्ट करके मनन करे अर्थात् उसका चिन्तन करे वाक्यार्थके विचारका ही नाम मनन कहा है ॥२३॥
ममता और अहंकार रहित सबमें समान संगवर्जित शांति आदि साधन सम्पन्न होकर निरन्तर ध्यानयोगसे आत्माका आत्मासेही ध्यान करनेको निदिध्यानसन कहते है ॥२४॥
सम्पूर्ण कर्मके क्षय हो जानेसे जो आत्मा का साक्षात्कार है, किसी को शीघ्र और किसीको चिरकालमें होता है जिसे प्रतिबंधक नही होता उसे शीघ्र और जिसे प्रतिबंधक होते है उसे देरेमें होता है ॥२५॥
जो कुछ जीवके किये हुए और करोडों जन्मसंग्रह किये कर्म है वह ज्ञानसे ही नष्ट होते है, कर्म चाहे दशसहस्त्र करोडनसे नष्ट नही होते ॥२६॥
ज्ञान होने पर जो कुछ पुण्य वा पाप थोडा या बहुत किया जाता है, उससे यह प्राणी लिप्त नही होता ॥२७॥
और जो इस प्राणीके शरीर निर्माणका हेतु प्रारब्धका कर्म है, वह भोगनेसे ही नष्ट होगा, ज्ञानसे नही ॥२८॥
जिसको मो अहंकार नही है, जो सम्पूर्ण संगसे रहित है, सम्पूर्ण प्राणियोंको आत्मामें और सम्पूर्ण प्राणियों में जो आत्माको देखता है इस प्रकार ज्ञानयुक्त विचरता हुआ प्राणी जीवन्मुक्त कहाता है, कारण कि वह प्रारब्ध कर्मक्षयके निमित्त विचरता है ॥२९॥
सांपकी कैंचली सर्पसहित जिस प्रकार देखनेवालोको भय देती है और सर्पके शरीरसे छूटने पर कुछ भी भय नही देती, इसी प्रकार मायामुक्त आत्माके होनेसे अनेक प्रकारसे संसार भय प्रतीत होते है, वही जीवन्मुक्त होने से फिर कही किसी प्रकारसे भयभीत नही होता ॥३०॥
जिस समय इस प्राणीके ह्रदयकी वासना संपूर्ण नष्ट हो जाती है और वैराग्य प्राप्त होता है, तभीयह प्राणी अमृत हो जाता है, यही वेदान्तशास्त्रकी मुख्य शिक्षा है ॥३१॥
जिस प्रकार कैलास वैकुंठ आदि दिव्यलोक है, इस प्रकार मोक्ष कोई लोक नही है, मुक्त किसी ग्रामान्तरका निवासी नही होता, केवल ह्रदयकी अज्ञानग्रन्थिके नष्ट हो जानेसे मुक्त होता है ॥३२॥
जिसका वृक्ष अग्रभागसे चरण आगे पडता है वह उसी समय नीचे गिरता है, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुषोंको ज्ञान होते ही मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है, इस संसारसे वह तत्काल छूट जाता है ॥३३॥
जीवन्मुक्त पुरुष तीर्थमें वा चाण्डालके घरमे देह त्यागन करे अथवा ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ देहका त्यागन करे किंवा अचेतन होकर मृतक हो जाय, वह ज्ञानके बलसे मुक्तही हो जाता है ॥३४॥
जीवन्मुक्त किसी प्रकारके वस्त्र धारण करे, वा नग्न, भक्ष्य अथवा अभक्ष्य कुछभी खाय चाहे जहां शयन करे वह प्रारब्धकर्मके क्षय हो जानेसे मुक्त हो जाता है ॥३५॥
जिस प्रकार दुधमें से निकाला हुआ घृत यदि फिर दूधमें डालो वह घृत उसमें नही मिलता उसी प्रकार ज्ञानवान संसारसे विरक्त होकर फिर जगतमें आसक्त होता नही ॥३६॥
हे रामचन्द्र! जो इस अध्यायको नित्य पढते और सुनते है वह अनायास देहबंधनसे छूट जाते है ॥३७॥
हे राम! तुम्हारा अन्तःकरण जो संशयके वश हो रहा है इस कारण तुम नित्य इस अध्याय का पाठ करो इससे अनायास तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी ॥३८॥
इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु० शिवराघवसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥