शांत दांत चपल मना होइ झडकरी ॥
त्यजुनि सकल मोहपाश भजे श्री हरी ॥धृ०॥
मृत्तिकेच्या मंदिरासि काय करिसि तू ॥
अंतसमयि कोण मना सांग स्मरसि तू ॥
अग्निसंगे भस्म होइ जासि यमपुरी ॥शांत०॥१॥
मन्मथासि आवरुनी होइ तू भले ॥
धन, कन्या पुत्र जरी आजि साधले ॥
परिणामी कोणि न ये जाण अंतरि ॥शांत०॥२॥
राखि धैर्य तशी जवळ सतत शांति ते ॥
सुह्रद करी बोध-भाव विवेकसहित ते ॥
काम क्रोध श्रेष्ठ रिपू आधि संहरी ॥शांत०॥३॥
वासनेसि कल्पनेसि घालि बाहेरी ॥
उपरतीसि ठाव देइ आत्ममंदिरी ॥
मद-मत्सर थोर अरी त्यागि लवकरी ॥शांत०॥४॥
कृष्णेने गुरुवचनी भाव ठेविला ॥
पंचप्राणसहितचि त्या देह वाहिला ॥
दाखवि मज मार्ग सुलभ आस करि पुरी ॥शांत०॥५॥