सुभग सिंहासन रघुराज राम ।
सिर पै सुख पाग लसत हरित मनि सुझलमलत,
मुक्ता जुत कुंडल कपोलनि ललाम ॥
रही है प्रभा फैलि गैलि गैलि अंबर महल,
प्रेम भरी साजैं ताल गति बाद्य बाम ॥
चकित होय निरखत जब वारति हों सरबस तब,
भयो कंप स्वेद सखी बाढ़्यो तन काम ॥
जुगलप्रिया द्रगनि लसी, मूरत मन माहिं बसी,
मूँदरी पै देख्यो जब लिखो राम नाम ॥