बृंदाबन रस काहि न भावै ।
बिटप बल्लरी हरी हरी त्यों, गिरिवर जमुना क्यों न सुहावै ॥
खग-मृग-पुंज कुंज-कुंजनिमें, श्रीराधाबल्लभ गुन गावै ।
पै हिंसक बंचक रंचक यह, सुख सपनेहू लेस न पावै ॥
धनि ब्रज रज धनि बृंदाबन धनि, रसिक अनन्य जुगल बपु ध्यावै ।
जुगलप्रिया जीवन ब्रज साँचौ, नतरु बादि मृगजल कों धावै ॥