ब्रजलीला रस भावै अब तौ, श्रीगिरिराज अंकमें रहिये ।
करिये बिनय निहोरि भाँति बहु, स्यामरूप मृदु माधुरि लहिये ॥
चलिये संग रसिक भक्तनके, प्रेम प्रवाह मगन ह्वै बहिये ।
गाय गुबिंद नाम गुन कीर्तन, जनम जनमके तहँ दुख दहिये ॥
करिये कालिंदी जल मज्जन, नित मधूकरी लौ निरबहिये ।
जुगलप्रिया प्रीतम भुज भरिकै, पाइय जो कछु चहिये ॥