बृंदाबन अब जाय रहूँगी, बिपति न सपनेहु जहाँ लहूँगी ।
जो भावै सो करौ सबै मिलि, मैं तो दृढ़ हरि चरन गहूँगी ॥
प्राननाथ प्रियतमके ढिग रहि, मनमाने बहुसुखनि पगूँगी ।
भली भई बन गई बात यह, अब जगदारुन दुख न सहूँगी ॥
करिहैं सुरति कबहुँ तो स्वामी, बिषयानलमें अब न दहूँगी ।
जुगलप्रिया सतसंग मधुकरी, बिमल जमुन जल सदा चहूँगी ॥