दीनबन्धो ! कृपासिन्धो ! कृपाबिन्दू दो प्रभो !
उस कृपाकी बूँदसे फिर बुद्धि ऐसी हो प्रभो ॥
वृत्तियाँ द्रुतगामिनी हो जा समावें नाथमें ।
नदी-नद जैसे समाते है सभी जलनाथमें ॥
जिस तरफ देखूँ उधर ही दरस हो श्रीरामका ।
आँख भी मूँदूँ तो दीखै मुखकमल घनश्यामका ॥
आपमें मै आ मिलूँ प्रभु ! यह मुझे वरदान दो ।
मिलती तरंग समुद्रमें जैसे मुझे भी स्थान दो ॥
छूट जावे दुःख सारे, क्षुद्र सीमा दूर हो ।
द्वैतकी दुबिधा मिटै, आनन्दमें भरपूर हो ॥
आनन्द सीमारहित हो, आनन्द पूर्णानन्द हो ।
आनन्द सत आनन्द हो, आनन्द चित आनन्द हो ।
आनन्दका आनन्द हो, आनन्दमें आनन्द हो ।
आनन्दको आनन्द हो, आनन्द ही आनन्द हो ।