जगतमें स्वारथके सब मीत ।
जब लगि जासौं रहत स्वार्थ कछु, तब लगि तासौं प्रीत ॥
मात-पिता जेहि सुतहित निस-दिन सहत कष्ट-समुदाई ।
बृद्ध भये स्वारथ जब नास्यो, सोइ सुत मृत्यु मनाई ॥
भोग-जोग जबलौं जुवती स्त्री, तबलौं अतिहि पियारी ।
बिधिबस सोइ जदि भई ब्याधिबस, तुरत चहत तेहि मारी ॥
प्रियतम, प्राननाथ कहि कहि जो अतुलित प्रीति दिखावत ।
सोइ नारी रचि आन पुरुष सँग पतिकी मृत्यु मनावत ॥
कल नहिं परत मित्र बिनु छिनभर, संग रहे सँग खाये ।
बिनस्यो धन, स्वारथ, जब छूट्यो, मुख बतरात लजाये ॥
साँचो सुह्रद, अकारन प्रेमी राम एक जग माहीं ।
तेहि सँग जोरहु प्रीति निरंतर, जग कोउ अपनो नाहीं ॥