रघु n. (सू. इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जिसका निर्देश महाभारत में प्राप्त प्राचीन राजाओं की नामाबलि में प्राप्त है
[म. आ. १.१७२] । भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार, यह दीर्घबाहु राजा का पुत्र, एवं दिलीप खटबांग राजा का पौत्र था । मत्स्य एवं पद्म में इसे निघ्न नामक राजा का पुत्र कहा गया है
[पद्म. सृ. ८] । किन्तु निघ्न राजा के पुत्र का नाम रघूत्तम था, जो संभवत: इक्ष्वाकुवंशीय होते हुये भी रघु राजा से अलग था (निघ्न देखिये) । कलिदास के रघुवंश में इसे दिलीप राजा का पुत्र कहा गया है, जो उसे नंदिनी नामक धेनु के प्रसाद से प्राप्त हुआ था
[र. वं. २] । रघुवंश में प्राप्त यह कथा पद्म में भी पुनरुक्त है
[पद्म. ३. २०३] । यह इक्ष्याकुवंश का एक श्रेष्ठ राजा होने के कारण इसे अयोध्या का पहला राजा कहा गया है
[ह. वं.१.१५.२५] । इसकी महत्ता के कारण, आगे चल कर, इक्ष्वाकुवंश ‘रघुवंश’ नाम से सुविख्यात हुआ ।
रघु n. इसके पराक्रम एवं दानशूरता की कथा रघुवंश एवं स्कंद में प्राप्त है । एक बार दशदिशाओं में विजय कर, इसने विपुल संपत्ति प्राप्त की, एवं अपने गुरु वसिष्ठि की आज्ञानुसार विश्वजित् यज्ञ किया । उस यज्ञ के कारण, इसकी सारी संपत्ति व्यतीत हुयी, एवं यह निष्कांचन बन गया । इसी अवस्था में विश्वामित्र ऋषि का शिष्य कौत्स इसके पास द्रव्य की याचना करने आया, जो उसे अपनी गुरुदक्षिणा की पूर्ति करने के लिए आवश्यक था । यह स्वयं द्रव्यहीन होने के कारण, कौत्स की माँग पूरी करने के लिए इसने कुबेर पर आक्रमण किया, एवं उसे इसके राज्य पर स्वर्ण की वर्षा करने के लिए मजबूर किया । इस स्वर्ण में से कौत्स ने चौदह करोड सुवर्णमुद्रा दक्षिणा के रूप में स्वीकार ली, एवं उन्हें अपने गुरु विश्वामित्र को दक्षिणा के रूप में दी
[स्कंद. २.८.५] । रघुवंश में यही कथा प्राप्त है, किन्तु वहाँ कौत्स के गुरु का नाम विश्वामित्र की जगह वरतंतु वताया गया है
[र. वं. ५] । महाभारत के अनुसार, इसे अपने पूर्वज युवनाश्व राजा के द्वारा दिव्य खड्ग की प्राप्ति हुयी थी, जो आगे चल कर इसने अपने वंशज हरिणाश्व को प्रदान किया था
[म. शां. १६०.७६] । रघु के पश्चात् इसका पुत्र अज अयोध्या का राजा हुआ, जिसका पुत्र दशरथ एवं पौत्र राम दाशरथि इक्ष्वाकु वंश के सर्वश्रेष्ठ राजा साबित हुयें ।