वात्स्यायन n. एक आचार्य, जो ‘वात्स्यायन कामसूत्र’ नामक सुविख्यात कामशास्त्रविषयक ग्रंथ का रययिता था । विष्णुशर्मन्कृत पंचतंत्र में वात्सायन एवं अश्रशास्त्रकार शालिहोत्र को वैद्यकशास्त्रज्ञ कहा गया है । मधुसुदन सरस्वतीकृत ‘प्रस्थानभेद’ में भी वात्स्यायनप्रणीत कामसूत्र को आयुर्वेदशास्त्रान्तर्गत ग्रंथ कहा गया है ।
वात्स्यायन n. वात्स्यायन यह इसका व्यक्तिनाम न हो कर गोत्रनाम था । सुबन्धु के अनुसार, इसका सही नाम मल्लनाग था । यशोधर के द्वारा लिखित ‘कामसूत्र’ के टीका में भी इसे आचार्य मल्लनाग कहा गया है । वात्स्यायन स्वयं ब्रह्मचारी एवं योगी था, ऐसा कामसूत्र के अंतिम श्र्लोक से प्रतीत होता है । कामसूत्र में अवंति, मालव; अपरान्त, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र एवं आंध्र आदि देशों के आचारविचारों के काफ़ी निर्देश प्राप्त है, जिनसे प्रतीत होता है कि, यह पश्र्चिम या दक्षिण भारत में रहनेवाला था । कामसूत्र के ‘नागरक वृत्त’ नामक अध्याय में नागर नामक एक नगर का निर्देश प्राप्त है । यशोधर के अनुसार, कामसूत्र में निर्दिष्ट ‘नागर’ पाटलिपुत्र है । अन्य कई अभ्यासक उसे जयपूर संस्थान में स्थित नागर ग्राम मानते है ।
वात्स्यायन n. वात्स्यायन का काल 300 ई. स. माना जाता है । वेबर के अनुसार, इसका ‘वात्स्यायन’ नाम लाट्यायन, बौधायन जैसे सुत्रकालीन आचार्यों से मिलता जुलता प्रतीत होता है
[वेबर पृ. १६४] । कौटिल्य अर्थशास्त्र एवं कामसूत्र की निवेदनपद्धति में काफ़ी साम्य है । कामसूत्र में प्राप्त ‘ईश्र्वरकामितम्’ (राजाओं की भोगतृष्णा) नामक अध्याय में प्रायः आंध्र राजाओं का ही वर्णन किया गया है । आयुर्वेदीय ‘वाग्भट’ ग्रंथ में कामसूत्र के ‘वाजीकरण’ संबंधी उपचार उद्धृत किये गये है । इन सारे निर्देशों से कामसूत्र का रचनाकाल ई.स. 3 री शताब्दी निश्र्चित होता है ।
वात्स्यायन n. कामसूत्र में प्राप्त निर्देश के अनुसार, इस शास्त्र की निर्मिति शिवानुचर नंदी के द्वारा हुई, जिसने सहस्त्र अध्यायों के ‘कामशास्त्र’ की रचना की। नंदी के इस विस्तृत ग्रंथ का साक्षेप औद्दालकि श्र्वेतकेतु नामक आचार्य ने किया, जिसका पुनःसंक्षेप आगे चल कर बाभ्रव्य पांचाल ने किया। बाभ्रव्य का कामशास्त्रविषयक ग्रंथ सात ‘अधिकरणों’ में विभाजित था । बाभ्रव्य के इसी ग्रंथ का संक्षेप कर वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र की रचना की। उपर्युक्त ग्रंथकारों के अतिरिक्त, वात्स्यायन के कामसूत्र में निम्नलिखित पूर्वाचार्यों का, एवं उनके विभिन्न ग्रंथो का निर्देश प्राप्त हैः- दत्तकाचार्य - वैशिक; चारायणाचार्य-साधारण अधिकरण; सुवर्णनाम-सांप्रयोगिक; घोटकमुख-कन्यासंप्रयुक्त; गोनर्दीय-भार्याधिकारिक; गोणिकापुत्र-परादारिक; कुचुमार-औपनिषदिक। इस ग्रंथ की निम्नलिखित टीकाएँ विशेष सुविख्यात हैः- १. वीरभद्रकृत ‘कंदर्पचूडामणि,’ २. भास्कर नृसिंहकृत ‘कामसुत्रटीका,’ ३. यशोधरकृत ‘कंदर्पचूडामणि। वेबर के अनुसार, सुबंधु एवं शंकराचार्य के द्वारा भी ‘कामसूत्र’ पर भाष्य लिखे गये थे ।
वात्स्यायन n. वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ सात ‘अधिकरणो’ (विभागो) में विभाजित है, एवं उसमें कामशास्त्र से संबंधित ती प्रमुख उपांगो का विचार किया गया हैं -- १. कामपुरुषार्थ का आचारशास्त्र, जिसमें धर्म, अर्थ एवं मोक्ष इन तीनों पुरुषार्थो से अविरोध करते हुए भी कामपुरुषार्थ का आचार एवं उपभोग किस प्रकार किया जा सकता है, इसका दिग्दर्शन किया गया है; २. शृंगाररसशास्त्र, जिसमें स्त्रीपुरुषों कों उत्तम रतिसुख किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है इसका वर्णन प्राप्त है; ३. तत्कालीन भारत में प्राप्त कामशास्त्रविषयक आचारविचारों का वर्णन, जिसमें विभिन्न देशाचार, ‘वैशिक’ (वेश्याव्यवसाय) एवं ‘पारदारिक’ (स्त्री पुरुषों के विवाहबाह्यसंबंध) आदि विषयों की चर्चा की गयी है ।
वात्स्यायन n. प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान के अनुसार, धर्म एवं अर्थ के समान ‘काम’ भी एक पुरुषार्थ माना गया है, जिसकी परिणिति वैवाहिक सुखप्राप्ति में होती है । काम मनुष्य की सहजप्रवृत्ति है, जो मानवी शरीर की स्थिति एवं धारणा के लिए अत्यंत आवश्यक है । इसी कारण धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों का रक्षर कर मनुष्य को जितेंद्रिय बनाना, यह वात्स्यायन कामसूत्र का प्रमुख उद्देश्य है-- रक्षन् धर्माथकामानां स्थिति स्वां लोकवर्तिनीम् । अस्य शास्त्रस्य तत्त्वज्ञः भवेत्येव जितेंद्रियः ।।
[का. सू. ७.२.५६] । वात्स्यायन कामसूत्र में कामसेवन की तुलना मानवी आहार से की गयी है । उस ग्रंथ में कहा गया है कि, आहार एवं काम का योग्य सेवन करने से मनुष्य को आरोग्यप्राप्प्त होती है । किन्तु उसीका ही आधिक्य होने से हानी पहुँचती है । इसी कारण, मनुष्यजाति को काम का सुयोग्य एवं प्रमाणित सेवन करने को सिखाना, यह कामशास्त्र का प्रधान हेतु है । जनावरों के भय से काई खेती करना नहीं छोड़ते हैं, उसी प्रकार कामविकार के डर से कामसेवन का त्याग करना उचित नही हैं
[का. सू. १.२.३८] ।
वात्स्यायन n. स्त्री पुरुषों का रतिसुख मानवी-जीवन का साध्य नहीं, बल्कि यशस्वी विवाह का केवल साधनमात्र ही है, यह तत्त्वज्ञान आचार्य वात्स्यायन ने सर्वप्रथम प्रस्थापित किया। स्त्री पुरुषों के रतिसुख के रतिसुख पर ही केवल जोर देनेवाले पाश्र्चात्य कामशास्त्रज्ञों की तुलना में, वात्स्यायन का यह तत्त्वज्ञान कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होता है । किन्तु अपना यह तत्त्वज्ञान प्रसृत करते समय, विवाह के यशस्वितता के लिए, स्त्री-पुरुषों का रतिसुख अत्याधिक आवश्यक है, यह तत्त्व वात्स्यायन के द्वारा दोहराया गया है, जो आधुनिक शारीरशास्त्र की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होता है । इसी कारण, वात्स्यायन कामसूत्र के अंतर्गत रतिशास्त्रविषयक चर्चा भी क्रांतिदर्शी मानी जाती है ।
वात्स्यायन II. n. एक न्यायदर्शनकार, जो अक्षपाद गौतम नामक आचार्य के द्वारा लिखित ‘न्यायसूत्र’ का प्राचीनतम भाष्यकार माना जाता है । इसके ग्रंथ पर उद्योतकर ने ‘न्यायवार्तिक’ नामक सुविख्यात भाष्यग्रंथ की रचना की है । दक्षिण भारत के सुविख्यात विद्याकेंद्र कांची में यह निवास करता था । इसका काल ई. स. ४७० लगभग माना जाता है ।
वात्स्यायन III. n. पंचपर्ण नामक आचार्य का पैतृक नाम
[तै. आ. १.७.२] । ‘वात्स्य’ का वंशज होने से उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा।
वात्स्यायन IV. n. ज्योतिषशास्त्रज्ञ (उ.उ) ।