दिग्रक्षणम्
सर्व पूजा कशा कराव्यात यासंबंधी माहिती आणि तंत्र.
चार मंत्रों के अर्थ जानने पर क्रिया की गंभीरता का आशय स्पष्ट होगा । वलग का स्पष्टीकरण करते आचार्य महीधर कहते है - पराजित असुरों ने इन्द्रादि देवों का वध करने के लिए अभिचार समर्थ अस्थि, केश, नख आदि पदार्थ कृत्या के रूप में भूमि में गाड दिये । उनको उखाड कर फेंक देने के लिए यह मंत्र है ।
ॐ रक्षोहणम्० (राक्षसों का नाश करनेवाली तथा) वलगहनम् (वलग के प्रभावको नष्ट करनेवाली) वैष्णवीं (यज्ञ रक्षक विष्णु संबंधित ऐसी वाणी बोलता हूँ तथा भूमि में छिपाये) वलगं उत्किरामि (उखाडकर फेंक देता हूँ । यह
विधान चार प्रकर के अभिचार संबंधित है ।)
निष्ट्य: - पुत्रादि, वर्णाश्रम बहिष्कृत चांडालादि
अमात्य: - घर में साथ रहनेवाला, संपत्तिरक्षक सेवक
समान: - धन, कुल इत्यादि में समानता रखनेवाला
असमान: - धन, कुल इत्यादि में न्यून अथवा अधिक
सबन्धु: - कुल संबंध से समान - मातुल. पैतृष्वसेय आदि
असबन्धु: - पूर्व से विपरीत
सजात: - समान जन्म, भ्राता
असजात: - पूर्व से विपरीत
(ये सब कुपित होकर अशुभ निमित्त) वलगं निचखान (वलग को भूमि में गाडते हैं) तं वलगं उत्किरामि (उसे उखाड कर फेंक देता हूँ । चार संबंध द्वेष में परिणत होते हैं, तब हिंसा की आग दहकती है । तत्रिवारणार्थ - अभिचार निवारण निमित्त इस मंत्र का प्रभाव जानें ।
संबंधित, सात यजुष् हैं । वैष्णवान् (विष्णु संबंधित गर्तों को) प्रोक्षामि (प्रोक्षण करता हूँ) रक्षोहण: (राक्षस धातक वलगहन: (अभिचार नाशक - पद की पुनरावृति जान लें।) अवनयामि (प्रोक्षण पश्चात् अवशिष्ट जल का सेचन करता हूँ।) अवस्तृणामि (दर्भ से आच्छादन करता हूँ।) उपदधामि (गर्त के उपर रखता हूँ) पर्यूहामि (मिट्टी का लेप करता हूँ । आप सभी वैष्णावा: (यज्ञ रक्षक विष्णु संबंधित हो)
चार मंत्र - ५।२३,२५,६।१६ एवं २६।२६ भिन्न स्थल पर संहिता में हैं । अर्थ संबंध से एक साथ लिये जाते हैं ।
३. रक्षसां भगो० भाष्यानुसार अर्थ किलष्ट है। (हे तृण तुम) रक्षसां भाग० असि (राक्षसों से संबंधित हो, उसे) निरस्तम् (फेंक देता हूँ) इदं अहं रक्ष अभितिष्ठामि (मैं पॉव के नीचे डालता हूँ) इदं अहं रक्ष अवबाधे (पाँव के नीचे कुचल डालता हूँ।) इदं अहं रक्ष अधमं तमो नयामि (अत्यंत निकृष्ट नरक में पहुँचाता हूँ । हे द्यावापृथीवी, (आप दोनों) घृतेन (घीसे - जल से) प्रोर्णुवाथाम् (परस्परं आच्छादित करो ) हे वायो, (आप) स्तोकानां (वपा संबंधित) वे: (जानते हो) अग्नि: आज्यस्य वेतु स्वाहा (अग्नि आज्य का स्वीकार करे) स्वाहकृतेन (स्वाहाकार सं आहुति पश्चात्) ऊर्ध्व नभसं मारुतं गच्छतम् (उपर आकाश में वायु के पास जाओ)
४. रक्षोहा० सोम राक्षस नाशक विश्वचर्षणि: (सभी को देखनेवाला) - सभी को देखनेवाला) - सभी के शुभाशुभ कर्म को जाननेवाला) अयो हते (लोहे से उत्कीर्ण किये) द्रोणे (द्रोणकलश) योनिं सधस्थं असदत् (स्थानं में साथ रहता है)
चारों मंत्रों की गुप्तशक्ति को जानने के लिए अभिचार की भीति हो तो शास्त्रानुज्ञानुसार अभिमंत्रित सर्षत डालें । सर्षप अभिचार नाशक हैं । विधान में सरलता निमित्त अक्षत का प्रयोग चिन्त्य है । श्राद्ध में भी दर्भ एवं तिल से दिग्बंध है । समंत्रक क्षेपण से आसुरी प्रभाव नष्ट होता है ।
श्री गणेशाय नम: । प्रारंभै निर्विघ्नं अस्तु ।
वसुदेवसुतं देवं कंसचापूरमर्दनम् । देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ॥ गुरुर्ब्रम्हा गुर्णिष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: । गुरुस्साक्षात्परं ब्रम्हा त्तस्मै श्रीगुरवे नम:॥ पंचगव्यप्राशनम् - ॐ यत्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके । प्राशनात्पंचगव्यस्य दहत्यग्न्रिवेन्धनम् ॥
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Last Updated : May 24, 2018
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