प्रासादविधानम् :--- प्रासाद अगर नूतन हो तो उसके अधिवासन के दो प्रकार है - ८१ कुंभ से अधवा एक कुंभ से । अगर एक कुंभ से करना हो तो - कलश में गंधोदक भरकर ॐ दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोशुद्धा: परजघ्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥ मंत्र से प्रासाद प्रोक्षण करें । पश्चात् त्रिसूत्र से विष्टित करें । पुन: स्नान करायें । इक्यासी कलश में भी करें । प्रासादको देवरूप मानकर ध्वज, पताका आदि से अलंकृत करें । गंध से पूजा करें । उस में देवको अधिष्ठित मानकर निम्न मंत्र से प्रासाद का अधिवासन करें - ॐ हरीं सर्वदेव - मयाचिन्त्य सर्वरत्नोज्वलाकृते । यावत् चन्द्रश्च सूर्यश्च तावदत्र स्थिरो भव ॥ इक्यासी कलश से अधिवासन पक्ष में -
संकल्प :--- अस्मिन् प्रासादे देवताधिष्ठानयोग्यतासिद्धयर्थंस्नानपूर्वकं प्रासाद विधानं करिष्ये । कलश स्थापन के लिये नव - कोष्ठात्मक मंडल बनाकर उसमें ८१ कलश - ॐ महीद्यौ:० आदि से स्थापन करें । पश्चात् मध्य के नवकलशों में - शमी, उदुम्बर, अश्वत्थ, चंपक, अशोक, पलाश, प्लश, वट, कदम्ब, आम्र, बिल्व, और अर्जुन - बारह वृक्ष के पान ॐ सोमाय वनस्पत्यंतर्गताय नम: - से डाले । पूर्व के नवकलशों के मध्य कलश में पद्मक, और नन्द्यावर्त - ये दस डालें । अग्निकोण के नवकलश के मध्य कलश में - यव, व्रीहि, तिल, सुवर्ण, रजत, समुद्रगामिनी, नदी के किनारे की मिट्टी भूमि परन गिरा हुआ गोंमय - ये सात पदार्थ डालें । दक्षिणदिशाके नवकलश के मध्य कलश में - सहदेवी, विष्णुक्रान्ता, भृंगराज, महौषधि शमी, शातावरी, गुडूची, और श्यामाक - आठ पदार्थ हालें । नैरुत्यकोण के नव कलशों के मध्यकलशा में - कदलीफल, पूगीफल, नारीयेल, बिल्वफल, नारंग, मातुलिंग, बदर, आमलक - ये आठ फल (रस) डालें । पश्चिम दिशा के नव कलश के नव कलश में से बना हुआ पंचगव्य डालें । वायव्य कोण केनवकलशा के मध्य कलश में शमी, उदुम्बर, अश्वत्थ, वट, पलाश - पांचवृक्षके पत्तों का कषाय डालें । उत्तरदिशा के नव कलश के मध्य कलश में शंखपुष्पी, सहदेवी, अतावरी, गुडूची, वचा, बला, कुमारी, व्याधीं - ये आठ मूल डालें । ईशानकोण के नवकलश के मध्य कलश में अस्वस्थान, गजस्थान वल्मीक, नदीसंगम, हृद, राजस्थान और गोगोष्ठ - सप्तमृत्तिका डालें । ॐ हिरण्यवर्णाम्० - श्रीसूक्त से मध्य नवकुंभ को अभिमंत्रित करें । शेष कलशों में गंधोदक डालें और
मूलमंत्र :--- देवतामंत्र से अभिमंत्रित करें । प्रासाद को सूत्रवेष्टन करें । प्रासाद की अंदर, दाहर, उपर, नीचे सर्वत्र पंचगव्य प्रोक्षण करें । ॐ मूर्धानंदिवो० से वाल्मीकमृत्तिका लेप कर कलश से निम्न प्रकार से प्रासादस्नपन करें ।
ईशानकोण के सप्तमृत्तिका, कलश से स्नपन :--- ॐ समुद्राय त्वा वातायस्वाहा सरिराय त्वावाताय स्वाहा । अनाघृष्याय त्वा वाताय स्वाहा प्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहा ॥
वायव्यकोण के पंचकषायकलश से स्नपन :--- ॐ यज्ञा यज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे । प्र प्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रन्न शा सिषम् ॥
पश्चिमदिशाके पंचगव्यकलश से स्नपन - ॐ पय: पृथिव्याम्०
नैऋत्यकोण के फलकलशस्नपन ॐ या:फलिनीर्या०
उत्तरदिशा के मूलकलशस्नपन ॐ ह स: शुचिषद्वसु रन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वर सद्दत सद्व्योम सदब्जा गोजा ऋतजाऽअद्रिजा ऋतं बृहत् ॥
पूर्वीदेशा के कलश से स्पपन - ॐ विष्णोरराटमसि०
अग्निकोण के कलश से स्नपन - ॐ सोम राजनमवसेग्निमन्वारभामहे ।
आदित्यान् विष्णु सूर्य ब्रम्हाणं च बृहस्पति स्वाहा ॥
दक्षिण दिशाके कलश सें स्नपन - ॐ विश्वतश्वक्षुरुत०
मध्य कलश से स्नपन - ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो०
प्रतिपंवित के शेष अष्टकलश से प्रासाद और शिखर को स्नान कराते निम्नमंत्र बोलें - ॐ इदमाष: प्रवहतावद्यं च मलं च यत् । यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपेऽअभीरुणम् । आपो मा तस्मादेनस: पवमानश्च मुञ्चतु । ॐ तत्वायामि० ॐ इमम्मे वरुण० ॐ वरुणस्योत्तंभनमसि० आदि वारुणमंत्र (वारुणमंत्र :--- ॐ आपो हि ष्ठा० यो व: शिवतमो० तस्मा अरंग० ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि० ॐ तत्वा यामि० ॐ तान्पूर्वया० ॐ पंचनद्य: सरस्वती० ॐ अग्निर्देवता० ॐ मित्रश्चम इन्द्रश्चमे० ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य० ॐ स त्वं नो अग्ने० ॐ उदुत्तमं वरुण पाश० ॐ इमम्मे वरुण० ॐ आपोऽ अस्मान्मातर: शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु । विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्य: शुचिरा पूत ऽ एमि । दीक्षातपसोस्तनूरसि तान्त्वा शिवा शग्मां परिदधे भद्रं वर्णं पुष्यन् ॥
) का पाठ करें । शेषक्रिया - प्रासाद को देवरूप मानना - आदि पूर्ववत् करें ।