हमतों सदा रंग है लाल । संपत क्या हैं लंडी माल ।
चार खुंट जागीर हामारी । गले तुलसीकी माल ।
कामधेनु तो मारी बगलमें । कबी ना पावे हाल ।
अनाज अटा सबकुच मिलता । घी गुड चावल दाल ।
बहुत खजाना पास भरा है । देत लेत गोपाल ॥२॥
सहज दिया ती भिछा लेते । नहीं सीर फोडे चाल ।
स्वामी खातर लिया फकीरी । झूटी माया जंजाल ॥३॥
राजा परजा सबही देखे । बडे बडेके हाल ।
जितनी संपत उतनी बिपत । पावमें बंदावे नाल ॥४॥
दया धरमतो करले बंदा । निकल जावेगा ख्याल ।
एक दिन संपत एक दिन बिपत । क्यौं फुगांवे गाल ।
रामनामका डंका बाजत । झ्यांट उखाडे काल ।
कहत कबीरा सुन भाई साधु । खडी नामकी ढाल ॥५॥