कैसे बोलूं आपहूं गगन धरनी ॥ध्रु०॥
चंदा नहीं सुरज नहीं नहीं दिन रजनी ।
छर नहीं आछर नहीं नहीं पवन पानी ॥१॥
ब्रह्मा नहीं विष्णु नहीं नहीं गौरी गणेशा ।
तेहेतीस कोटी देवता नहीं नहीरे महिषा ॥२॥
फल नहीं फूल नहीं नहीं बनवेला ।
शाखा नहीं पत्र नहीं नहीं गुरु चेला ॥३॥
सांस नही सुवास नहीं नहीं दुःख तापा ।
कहत कबीरा सुन भाई साधु आपको तारु आपी आपा ॥४॥