पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) उसके बाद अन्धकने अपनी सेनाको प्रमथोंद्वारा मारी गयी जान करके शुक्राचार्यके निकट जाकर यह वचन कहा - भगवन् ! विप्रर्षे ! हम आपके ही बलपर देवता, गन्धर्व, असुर, किन्नर एवं अन्य प्राणियोंको बाधित ( पराभूत ) करते हैं । परंतु भगवन् ! आप देखिये कि मेरे द्वारा संरक्षित ( हमारी ) यह सेना अनाथिनी नारी - सी होकर प्रमथोंद्वारा कालके मुखमें भेजी जा रही है । भार्गव ! कुजम्भ आदि मेरे भाई तो मारे गये और ये प्रमथगण ( अबतक ) कुरुक्षेत्रतीर्थके फलके सदृश अक्षय बने हुए हैं ॥१ - ४॥
अतः आप हम लोगोंके लिये कल्याणका विधान करें, जिससे हम लोग शत्रुओंके द्वारा जीते न जायँ और ऐसा भी उपाय करें जिससे हम लोग युद्धमें दूसरोंको जीत सकें । देवर्षे ! ब्रह्मर्षि शुक्राचार्यने अन्धककी बातको सुनकर दानवेश्वरको आश्वासन देते हुए उससे कहा - मैं तुम्हारे कल्याणके लिये उद्योग करुँगा और तुम्हारा प्रिय करुँगा । ऐसा कहकर पवित्र व्रतवाले शुक्राचार्यने विधानके अनुसार संजीवनी विद्याको प्रकट किया । उस विद्याके प्रकट होनेपर युद्धमें पहले मारे गये ( सभी ) असुरेश्वर और दानव जी उठे ॥५ - ८॥
उसके बाद कुजम्भ आदि दैत्योंके फिर उठ खड़े हीने तथा युद्ध करनेके लिये उपस्थित होनेपर नन्दीने शंकरसे कहा - महादेव ! आप मेरा अत्यन्त अद्भुत वचन सुनिये । मरे हुए लोगोंका फिर भी जी उठना कल्पनासे परे तथा असहनीय हैं । संग्राममें प्रमथोंनें जिन दैत्योंको बलपूर्वक मारा था, उन्हें भार्गवने संजीवनी विद्याद्वारा पुनः जीवित कर दिया । अतः हे महादेव ! हे ईश ! उन सभीने युद्धमें जो उत्कृष्ट कार्य किया था, वह शुक्रकी विद्याके बलसे महत्त्वहीन हो गया है - सबपर पानी फिर गया है ॥९ - १२॥
कुलको आनन्द देनेवाले नन्दीके इस प्रकार कहनेपर महादेवने स्नेहपूर्वक स्वार्थसिद्ध करनेवाला उत्तम वचन कहा - गणपते ! तुम जाओ और शुक्रको मेरे समीप लिवा लाओ । ( फिर तो ) मैं उन्हें पाकर योगक्रियासे संयमित कर दूँगा । रुद्रके ऐसा कहनेपर गणपति नन्दी शुक्राचार्यको पकड़ लानेकी कामनासे दैत्योंकी सेनामें गये । हयकन्धर नामके बलवान् श्रेष्ठ असुरने उन्हें सेनामें आते हुए देखा और जिस प्रकार साधारण पशु ( दुस्साहससे ) वनमें सिंहका मार्ग रोक दे, उसी प्रकार उनके मार्गको उसने रोका । नन्दीने समीप जाकर शतपर्व ( वज्र ) - से उसे मारा और वह अचेत होकर गिर पड़ा । उसके बाद नन्दी तुरंत वहाँसे चल दिये ॥१३ - १७॥
उसके बाद कुजम्भ, जम्भ, बल, वृत्र और अयः शिरा नामके पाँच श्रेष्ठ दानव नन्दीकी ओर दौड़े । इसी प्रकार युद्धमें भाँति - भाँतिके अस्त्र - शस्त्रोंको धारण करनेवाले मय एवं ह्लाद आदि दानवश्रेष्ठोंने भी नन्दीका पीछा किया । फिर पितामहादि देवोंने महाबली दानवोंके द्वारा कूटे जा रहे गणाधिपको देखा । भगवान् ब्रह्माने उसे देखकर इन्द्र आदि देवताओंसे कहा - आप लोग इस उत्तम ( उपयुक्त ) अवसरपर शम्भुकी सहायता करें ॥१८ - २१॥
पितामहके कहे हुए वचनको सुनकर इन्द्र आदि देवता आकाशमार्गसे जल्दी ही शिवकी सेनामें आ गये । समुद्रमें जाती हुई नदियोंके महावेगके सदृश प्रमथोंकी सेनामें ( आकाशसे ) आते हुए देवताओंका वेग सुशोभित हुआ । उसके बाद प्रमथों और असुरों - दोनों पक्षोंकी सेनाओंमें भीषण ‘ हलहला ’ शब्द उत्पन्न हुआ । उसी समय अवसर पाकर तीव्र गतिवाले नन्दी, जिस प्रकार सिंह क्षुद्र मृगको दबोच लेता है, उसी प्रकार भार्गवको लेकर रथसे भाग चले । गणनायक उन्हें लेकर सभी रक्षा करनेवालोंको मारते हुए शंकरके पास पहुँच गये । शुक्राचार्यको उन्होंने उनके निकट निवेदित कर दिया । समर्थ शंकरने लाये गये उन शुक्रको अपने मुखमें फेंका और अक्षुण्ण शरीरवाले भार्गवको अपने उदरमें ( ज्यों - का - त्यों ) रख लिया । शम्भुसे ग्रस्त होकर उनके उदरमें स्थित हुए वे मुनिश्रेष्ठ शुक्र प्रेमपूर्वक उन भगवानकी स्तुति करने लगे ॥२२ - २८॥
शुक्रने कहा - प्रभो ! गुणसे सम्पन्न आप वरदानी हरको नमस्कार है । शंकर, महेश, त्रिनेत्रको बार - बार नमस्कार है । लोकोंके स्वामिन् ! वृषाकपे ! आप जीवनस्वरुपको नमस्कार है । हे कामदेवके लिये अग्निस्वरुप ! कालशत्रो ! आप वामदेवको नमस्कार है । स्थाणु, विश्वरुप, वामन, सदागति, महादेव, शर्व और ईश्वर ! आपको बार - बार नमस्कार है । हे त्रिनयन ! हे हर ! हे भव ! हे शंकर ! हे उमापते ! हे जीमूतकेतो ! हे गुहागृह ! हे श्मशाननिरत ! हे भूतिविलेपन ! हे त्रिशूलधारिन् ! हे पशुपते ! हे गोपते ! हे श्रेष्ठ परमपुरुष ! आपको बार - बार नमस्कार है । इस प्रकार कविवर ( शुक्राचार्य ) - के भक्तिपूर्वक स्तुति करनेपर शंकरने कहा - मैं तुमसे प्रसन्न हूँ । तुम वर माँगो; मैं तुम्हें वर दूँगा । उन्होंने कहा - हे देववर ! इस समय मुझे यही वर दीजिये कि मैं पुनः आपके उदरसे बाहर निकलूँ । उसके बाद शंकरने नेत्रोंको बंदकर कहा - हे द्विजेन्द्र ! अब तुम बाहर निकल जाओ ! ( परंतु ) शंकरके इस प्रकार कहनेपर भी वे भार्गवश्रेष्ठ शुक्राचार्य उनके उदरमें विचरण करने लगे ॥२९ - ३३॥
( भगवान् शंकरके उदरमें ) विचरण करते हुए शुक्राचार्यने शंकरके ही उदरमें चराचर प्राणियोंसे व्याप्त सारा जगत्, समुद्र एवं पातालोंको देखा । आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, गणों, यक्षों, किम्पुरुषों, गन्धर्वों, अप्सराओं, मुनियों, मनुष्यों, साध्यों, पशुओं, कीटों, पिपीलिकाओं, वृक्षों, गुल्मों, पर्वतों, लताओ, फलों, मूलों, ओषधियों, स्थलपर रहनेवालों, जलमें रहनेवालों, अनिमिषों, निमिषों, चतुष्पदों, द्विपदों, स्थावरों, जङ्गमों, अव्यक्तों, व्यक्तों, सगुणों एवं निर्गुणोंको देखते हुए कुतूहलवश ( उसी उदरमें ही ) भार्गव चारों ओर घूमने लगे । भृगुवंशी शुक्राचार्यको वहाँ इस प्रकार रहते हुए एक दिव्य वर्ष बीत गया । परंतु ब्रह्मन् ! शुक्रको अन्त नहीं मिला और वे थक गये । स्वयंको थका हुआ देखकर और बाहर निकलनेका मार्ग न पाकर आत्माको वशमें करनेवाले वे भक्तिसे नम्र होकर महादेवकी शरणमें आ गये ॥३४ - ३९॥
शुक्रने कहा - हे विश्वरुप ! हे महारुप ! हे विश्वरुपाक्ष ! हे सूत्रधारिन् ! हे सहस्त्राक्ष ! हे महादेव ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ । हे शंकर ! हे शर्व ! हे शम्भो ! हे सहस्त्रनेत्राङ्घि ! हे सर्पभूषण ! आपके उदरमें सभी भुवनोंको देखते - देखते थककर मैं आपकी शरणमें आया हूँ । इस प्रकारके वचन कहनेपर महात्मा शम्भुने हँसकर यह वचन कहा - अब तुम मेरे पुत्र हो गये हो । इसलिये हे भार्गववंशके चन्द्र ! मेरे शिश्नसे बाहर निकलो । अब समस्त चराचर जगत् तुम्हारी स्तुति शुक्रके नामसे करेगा । इसमें किसी अन्य प्रकारके विचारका स्थान नहीं है । ऐसा कहकर भगवानने शिश्नमार्गसे शुक्रको मुक्त कर दिया और वे बाहर निकल आये । शुक्रत्व प्राप्तकर बाहर निकले ओजस्वी महानुभाव भार्गववंशचन्द्र शम्भुको प्रणामकर शीघ्र महासुरोंकी सेनामें चले गये ॥४० - ४४॥
शुक्राचार्यके वापस आ जानेपर दानव प्रसन्न हो गये । उन्होंने गणेश्वरोंके साथ फिर युद्ध करनेका विचार किया । उसके बाद देवताओंसहित विजयकी कामनावाले सभी गणेश्वरोंने उन असुरोंसे भयंकर युद्ध किया । हे तपोधन ! उसके बाद युद्ध करनेमें लगे हुए असुरगणों एवं देवताओंमें भयानक द्वन्द्वयुद्ध हुआ । अन्धक नन्दीके साथ, अयः शिरा शंकुकर्णके साथ, बुद्धिमान् बलि कुम्भध्वजके साथ एवं विरोचन नन्दिषेणके साथ भिड़ गये ॥४५ - ४८॥
अश्वग्रीव विशाखके साथ और शाख वृत्रके साथ, बाण नैगमेयके साथ और राक्षसपुंगव बलके साथ लड़ने लगा । युद्धमें कुपित होकर परशु धारण करनेवाले महापराक्रमी विनायक राक्षसश्रेष्ठ तुहुण्डुके साथ भिड़ गये और दुर्योधन बलशाली घण्टाकर्णके साथ युद्ध करने लगा । हस्ती कुण्डजठरके साथ और ह्लाद वीर घटोदरसे लड़ने लगा । देवर्षे ! बलवानोंमें श्रेष्ठ ये सभी दानव एवं प्रमथगण आपसमें छः सौ दिव्य वर्षोतक संग्राम करते रहे । जम्भ नामके बलशाली असुरने सामने आ रहे वज्रपाणि इन्द्रको रोक लिया ॥४९ - ५२॥
शम्भु नामका असुरराज ब्रह्मासे लड़ने लगा और कुजम्भ दैत्योंका अन्त करनेवाले महान् ओजस्वी विष्णुसे युद्ध करने लगा । शाल्व सूर्यसे, त्रिशिरा वरुणसे, द्विमूर्धा पवनसे, राहु सोमसे और विरुपधृक् मित्रसे लड़ने लगा । धरादि नामसे विख्यात आठ वसुओंने सरभ, शलभ, पाक, पुर, विपृथु, पृथु, वातापी और इल्वल - इन आठ महान् धनुर्धारी असुरोंको युद्धमें लड़कर ( पीछे ) हटा दिया । ये असुर भाँतिभाँतिके शस्त्र और अस्त्र लेकर लड़ने लगे । कालनेमि नामका भयंकर महासुर युद्धमें अकेला ही विष्ववसेन आदि विश्वेदेव गणोंसे युद्ध करने लगा ॥५३ - ५७॥
रणमें उत्कट तेजवाले विद्युन्माली नामके महासुरने अकेले ही एकादश रुद्रोंका ( डटकर ) सामना किया । नरकने दोनों अश्विनीकुमारोंसे, शम्बरने ( द्वादश ) भास्करोंसे एवं निवातकवचादिने साध्यों तथा मरुद्गणोंसे युद्ध किया । महामुने ! इस प्रकार आठ दिव्य वर्षोंतक प्रमथों एवं दानवोंके हजारोंकी संख्यामें दो - दो लड़ाके वीर आपसमें द्वन्द्वयुद्ध करते रहे । जब असुरगण इस प्रकार देवोंसे युद्ध करनेमें समर्थहीन हो गये, तब उन लोगोंने मायाका सहारा लेकर देवोंको क्रमशः निगलना प्रारम्भ कर दिया ॥५८ - ६१॥
उसके बाद सारे प्रमथों और देवोंसे रहित पर्वत वर्षाकालीन मेघके समान दानवोंसे ढक गया । पर्वतप्रान्तको शून्य और प्रमथों था देवोंको ग्रसित हुआ देखकर विजितेन्द्रिय रुद्रने क्रोधसे जृम्भायिकाको उत्पन्न किया । उसके स्पर्श करनेपर अस्त्रोंको
छोड़कर धीरे - धीरे बोलते हुए आलस्यसे पूर्ण दानव मुखको विवर्ण बनाकर जँभाई लेने लगे । दानवोंके जँभाई लेते समय आकुल होकर गणेश्वर एवं देवतालोग दैत्योंकी देहसे अविलम्ब बाहर निकल गये ॥६२ - ६५॥
मेघके समान दैत्योंके शरीरसे बाहर निकल रहे कमलके सदृश आँखोंवाले श्रेष्ठ देवगण बादलसे निकलनेवाली बिजलीकी भाँति शोभित हो रहे थे । तपोधन ! गणों और देवोंके बाहर आ जानेपर वे महान् ( दैत्य ) अत्यन्त कुपित होकर युद्ध करने लगे । उसके बाद शम्भुसे पालित गणों एवं देवोंने युद्धमें दानवोंको दिन - रात बारम्बार हराया । उसके बाद सात सौ वर्षोंका समय बीत जानेपर अठारह भुजाओंवाले अविनाशी त्र्यम्बक शंकर अपनी नित्यक्रियाकी सन्ध्या करने लगे ॥६६ - ६९॥
उन भक्तिमान् शंकरने जलका स्पर्शकर ( आचमनकर ) विधिपूर्वक सरस्वतीमें स्त्रान किया । वे कृतार्थ हो गये । उन्होंने पुष्पाञ्जलि सिरसे लगाकर समर्पित की । उसके बाद उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम एवं उसके पश्चात् प्रदक्षिणा कर ‘ हिरण्यगर्भ ’ इत्यादि मन्त्रसे सूर्यकी वन्दना की और जप किया । उसके बाद ‘ त्वष्ट्रे नमो नमस्तेऽस्तु ’ इसका स्पष्टरुपसे उच्चारण कर शूलपाणि शंकर बलपूर्वक अपना बाहुदण्ड घुमाते हुए भाव - गम्भीर होकर नाचने लगे । देवेश्वरके नाचनेपर उनके अनुगामी गण और देवता भी ( वैसे ही ) भाव - विभोर होकर नाचने लगे ॥७० - ७३॥
सन्ध्योपासन करके इच्छानुकूल नृत्य करनेके बाद शंकरने फिर दानवोंसे संग्राम करनेका विचार किया । फिर तो शंकरकी भुजाओंसे रक्षित बलशाली और निर्भय सम्पूर्ण देवताओंने सारे दानवोंको जीत लिया । अपनी सेनाको पराजित देखकर तथा महादेवको पराजित करनेमें कठिनाई जान करके अन्धकने सुन्दको बुलाकर यह वचन कहा - वीर सुन्द ! तुम मेरे भाई हो और सभी विषयोंमें तुम मेरे विश्वासी हो । इसलिये आज मैं तुमसे जो कहता हूँ, उसे सुनकर यथाशक्ति उसे पूर्ण करो ॥७४ - ७७॥
किन्हीं मुख्य कारणोंसे युद्ध करनेमें परम चतुर ये धर्मात्मा दुर्जेय हैं । मेरे हदयमें कमलनयनी पार्वती बसी हुई है । अतः उठो; हम वहाँ चलें, जहाँ वह मधुर मुसकानवाली स्थित हैं । दानव ! वहाँ मैं शंकरका रुप धारण करके उसे मुग्ध कर दूँगा ( भुलावेमें डाल दूँगा ) । तुम शंकरका अनुचर गणेश्वर नन्दी बनो । तब वहाँ पहुँच करके और उसका सुख भोगकर प्रमथों एवं देवोंको जीतूँगा । ऐसा कहनेपर सुन्दने कहा - ठीक है । उसके बाद वह शैलादि ( नन्दी ) बन गया और अन्धक शिव बन गया ॥७८ - ८१॥
उसके बाद महासुर ( अन्धक ) और सेनापति ( सुन्द ) शस्त्रास्त्रोंकी मारसे अधिक घायल हुए शरीरवाले रुद्र और नन्दीका रुप धारण कर मन्दगिरिपर पहुँचे । असुरश्रेष्ठ अन्धक सुन्दका हाथ पकड़कर निडर होकर महादेवके मन्दिरमें घुस गया । उसके बाद शैलादि नन्दीके रुपमें स्थित सुन्दको पकड़कर मारोंसे जर्जर महादेवके शरीरमें छिपे अन्धकको दूरसे आते देखकर पार्वतीने यशस्विनी मालिनी, विजया तथा जयासे कहा - ॥८२ - ८५॥
जये ! देखो, मेरे स्वामीके शरीरको मेरे लिये दानव - शत्रुओंने किस प्रकार जर्जरित कर डाला है । इसलिये अविलम्ब उठो । पुराना घी, बीजिका, लवण और दही ले आओ । पिनाक धारण करनेवाले शंकरके घावोंको मैं स्वयं ही भरुँगी । यशस्विनी ! शीघ्र अपने स्वामीके घावोंको भरो - ऐसा कहते हुए आसनसे उठकर उसे वृषध्वज शंकर समझती हुई वे भक्तिपूर्वक उसके पास गयीं । उसके बाद खड़ी होकर वे शंकरके रुप एवं चिह्नोंको भलीभाँति देखने लगीं । ब्रह्मन् ! उन्होंने देखा कि उसकी बगलमें स्थित दोनों वृष नहीं हैं । इसलिये उन्हें यह मालूम हो गया कि यह मायासे छिपे शरीरवाला भयानक दानव है ॥८६ - ९०॥
मुने ! उसके बाद गिरिराजकी कन्या भाग चलीं । देवीके विचारको समझकर अन्धकासुर सुन्दको छोड़कर शीघ्रतापूर्वक शंकरप्रिया विभावरीके पीछे उसी रास्तेसे दौड़ा, जिससे वे गयी थीं । चरणके चपेटोंसे राहकी रुकावटोंको चूर - चूर करते हुए वह अधीरतापूर्वक दौड़ पड़ा । उसे आते देखकर गिरितनया भयसे ( और ) भाग चलीं । मुनिवर ! उसके बाद देवी सखियोंके साथ घर छोड़कर उपवनमें चली गयीं । वहाँ भी मदान्ध ( अन्धक ) - ने उनका पीछा किया । इतनेपर भी अपने तपकी रक्षाके लिये उन्होंने उसे शाप नहीं दिया । किंतु गौरी स्वयं उसके डरसे पवित्र सफेद अर्कके फूलमें छिप गयीं ॥९१ - ९५॥
मुने ! विजया आदि भी घनी झाड़ियोंमें छिपगयीं । उसके बाद पार्वतीके अदृश्य हो जानेपर हिरण्याक्षका पुत्र ( अन्धक ) सुन्दका हाथ पकड़कर पुनः अपनी सेनामें वापस आ गया । मुनिसत्तम ! अन्धकके अपनी सेनामें पुनः लौट आनेपर प्रमथों और असुरोंमें घमासान लड़ाई होने लगी । उसके बाद अमरगणोंमें श्रेष्ठ चक्र एवं गदा धारण करनेवाले विष्णुभगवान् शंकरका प्रिय करनेकी इच्छासे असुर - सेनाका संहार करने लगे । शार्ङ्गनामक धनुषसे निकले हुए बाणोंसे पाँच - पाँच, छः - छः, सात - सात, आठ - आठ श्रेष्ठ दानव उसी प्रकार विदीर्ण होने लगे जैसे सूर्यकी किरणोंसे ‘ घन ’ ( अन्धकार ) विदीर्ण हो जाते हैं । जनार्दनने कुछको गदासे तथा कुछको चक्रसे मार डाला । किन्हींको तलवारसे काट डाला और किन्हींको देखकर ही भस्म कर दिया तथा कुछ असुरोंको हलद्वारा खींचकर मूसलसे चूर्ण - विचूर्ण कर दिया ॥९६ - १०१॥
गरुड़ने अपने दोनों डैनोंकी मारसे चोंच तथा छातीके बलसे अनेक दैत्योंको मौतके घाट उतार दिया । पुरातन आदिपुरुष धाता प्रपितामहने विशाल कमलको घुमाते हुए सभी ( देवगणों ) - को जलसे अभिषिञ्चित किया । सर्वतीर्थरुप ब्रह्म जलका स्पर्श होनेसे गण तथा देवतालोग नौजवान हथियोंसे भी अधिक गण तथा देवतालोग नौजवान हाथियोंसे भी अधिक पराक्रमवाले हो गये । और सौ, पाप दूर करनेवाले उस जलके स्पर्शके प्रभावसे सवारीके साथ दानव ऐसे नष्ट होने लगे जैसे वज्रसे पर्वत नष्ट हो जाते हैं । ब्रह्मा और विष्णुको संग्राममें महासुरोंको मारते देखकर ( उत्साहमें आकर ) बलशाली इन्द्र भी अपना वज्र लेकर दौड़ पड़े । [ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] नारदजी ! उन्हें आते देखकर देवों तथा दानवोंसे अजेय शक्तिशाली श्रेष्ठ दानवपति बल, गदाधर विष्णु और विमानारुढ़ ब्रह्मासे लड़ना छोड़कर मुट्ठी तानकर इन्द्रसे ही युद्ध करनेके लिये दौड़ पड़ा ॥१०२ - १०७॥
उसे आते देखकर देवताओंके स्वामी इन्द्रने हजारों भुजाओंसे अपनी शक्तिभर वज्रको घुमाते हुए उसे बलके सिरपर ‘ हे मूढ़ ! अब तुम मारे गये ’ - कहकर फेंक दिया । मुने ! वह श्रेष्ठ वज्र भी उसके सिरपर शीघ्र ही हजारों टुकड़ोंमें टूक - टूक हो गया । ( फिर ) बल ( इन्द्रकी ओर ) दौड़ा । महर्षे ! देवराज भयभीत होकर युद्धसे विमुख हो गये - भाग गये । उन्हें विमुख होकर भागते देख जम्भने आगे आकर कहा कि यह उचित नहीं है । रुकिये; आप समस्त स्थावर - जङ्गमके राजा हैं । राजधर्ममें लड़ाईके मैदानसे भागनेका नियम नहीं है । महर्षे ! जम्भका वचन सुनकर भयभीत होकर इन्द्र जल्दीस्से विष्णुके समीप चले गये । वहाँ जाकर उन्होंने कहा - हे ईश ! आप मेरी बात सुनें । हे भूत तथा भव्यके स्वामी विष्णो ! आप मेरे स्वामी हैं ॥१०८ - १११॥
जम्भ मुझे शस्त्रास्त्रसे रहित देखकर बहुत अधिक ललकार रहा है । भगवन् ! आप मुझे आयुध दें । मैं आपकी शरणमें आया हूँ । विष्णुने इन्द्रसे कहा - इस समय ( अपने पदके ) अहंकारको छोड़कर तुम अग्निदेवके पास जाओ और उनसे आयुधके लिये प्रार्थना करो । वे निस्सन्देह तुम्हें आयुध प्रदान करेंगे । नारदजी ! जनार्दनकी बात सुनकर तीव्र गतिवाले इन्द्र अग्निकी शरणमें चले गये और उनसे उन्होंने कहा - ॥११२ - ११४॥
इन्द्रने कहा - अग्निदेव ! बलको मारनेमें मेरा वज्र सैकड़ों टुकडे़ हो गया; यह जम्भ मुझे ललकार रहा है । अतः आप मुझे आयुध प्रदान करें ॥११५॥
पुलस्त्यजी बोले - भगवन् ! अग्निदेवने उनसे कहा - वासव ! मैं आपके ऊपर प्रसन्न हूँ; क्योंकि आप अहंकार छोड़कर मेरी शरणमें आये हैं । ऐसा कहनेके बाद प्रकाशयुक्त भगवान् अग्निदेवने भावपूर्वक अपनी शक्तिसे एक दूसरी शक्ति निकालकर उसे इन्द्रको दे दिया और वे स्वर्ग चले गये । शत्रुका मर्दन करनेवाले इन्द्र सैकड़ों घण्टाओंसे युक्त उस भीषण शक्तिको लेकर जम्भको मारनेके लिये चले गये । उन अत्यन्त यशस्वीके सहसा पीछा करनेपर जम्भने कोपपूर्वक गजाधिप ( ऐरावत ) - पर वार कर दिया ॥११६ - ११९॥
जम्भकी मुट्ठीके आघातसे हाथीका कुम्भस्थल विदीर्ण हो गया । उसके बाद वह इस प्रकार गिर पड़ा जैसे पूर्वकालमें इन्द्रके वज्रसे आहत होकर पर्वत गिरता था । इन्द्र गिरते हुए गजेन्द्रसे वेगपूर्वक उछले और मन्दर पर्वतको भी छोड़कर पृथ्वीकी ओर नीचे गिर पड़े । उसके बाद गिरते हुए इन्द्रसे सिद्धों एवं चारणोंने कहा - इन्द्र ! आप पृथ्वीपर न गिरें । आप रुकें । उनकी बात सुनकर योगी इन्द्र उस समय क्षणभरके लिये रुक गये और बोले - मैं बिना वाहनके इन शत्रुओंसे कैसे लडूँगा ? ॥१२० - १२३॥
देवताओं और गन्धर्वोंने उत्तर दिया - हे ईश्वर ( इन्द्र ) ! आप चिन्तित न हों । हम लोग जो रथ भेज रहे हैं उसपर चढ़कर आप युद्ध करें । ऐसा कहकर विश्वावसु आदिने स्वस्तिकके आकारवाले कपिध्वजसे युक्त हरितवर्णक अश्वोंसे जुते शुद्ध स्वर्णसे बनाये गये तथा किंकिणीजालसे मण्डित विशाल रथ इन्द्रके लिये भेज दिया । इन्द्र सारथिसे रहित उस रथको देखकर बोले - मैं युद्धमें कैसे लडूँगा और कैसे घोड़ोंको संयत करुँगा - दोनों काम एक साथ कैसे होंगे ? ॥१२४ - १२७॥
इस समय मेरे सारथिका काम यदि कोई करे तो मैं शत्रुओंका नाश कर सकता हूँ; अन्य किसी प्रकार नहीं । उसके बाद गन्धर्वोंने कहा - विभो ! हमारे पास कोई सारथि नहीं है । आप स्वयं घोड़ोंको नियन्त्रित कर सकते हैं । ऐसा कहनेपर भगवान् इन्द्र उत्तम रथको छोड़कर अस्त - व्यस्त हुए माल्य और वस्त्रोंके साथ पृथ्वीपर गिर गये । ( पृथ्वीपर गिरते समय इन्द्रका ) सिर काँप रहा था, उनके बाल बिखर गये थे और उनके आयुध तथा बाजूबंद नीचे गिर पड़े थे । इन्द्रको गिरते देख पृथ्वी काँपने लगी ॥१२८ - १३१॥
पृथ्वीके काँपनेपर शमीक ऋषिकी तपस्विनी पत्नीने कहा - ‘ प्रभो ! बालकको सँभालकर बाहर ले जाइये । उन्होंने शीलाकी बात सुनकर कहा - क्यों ? उसने कहा - हे नाथ ! सुनिये, ज्योतिषियोंका कहना है कि इस भूमिके काँपनेपर वस्तुएँ बाहर निकाल दी जाती हैं; क्योंकि मुनिश्रेष्ठ ! उस समय बाहरमें रखी हुई वस्तु दुगुनी हो जाती है । इस वाक्यको सुनकर उस समय ब्राह्मणने अपने बालक पुत्रको लेकर निः शंक हो पृथ्वीपर बाहर रख दिया ’ ॥१३२ - १३५॥
फिर दो गायोंके लिये भीतर प्रविष्ट होनेपर पत्नीने ब्राह्मणको निवारित करते हुए कहा - समय बीत चुका है; अब इस समय आधे भागकी हानि हो जायगी । [ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] देवर्षे ! ऐसा कहनेपर ( ब्राह्मणने ) शीघ्रतासे बाहर निकलकर देखा कि समान आकारके दो बालक पड़े हुए हैं । उन्हें देखकर उसने देवताओंकी पूजा करनेके बाद अपनी अद्भुत ज्ञानमती पत्नीसे कहा - मैं इसका रहस्य नहीं समझता । अतः मैं जो पूछता हूँ उसे बतलाओ । यह बतलाओ कि इस दूसरे बालकमें कौन - से गुण होंगे ? उसके भाग्यों एवं कर्मोंको भी तुम अभी बतलाओ ॥१३६ - १३९॥
पत्नीने कहा - स्वामिन् ! मैं तुम्हें आज नहीं बतलाऊँगी । फिर कभी दूसरे समय बतलाऊँगी । उन्होंने कहा - आज ही मुझे बताओ; अन्यथा मैं भोजन नहीं करुँगा । उसने कहा - ब्रह्मन् ! आप सुनिये, आपने आर्त्ततासे जो पूछा है उस हितकर बातको मैं कहती हूँ । यह ( बालक ) निश्चय ही कारु ( शिल्पी ) होगा । ऐसा कहनेपर अज्ञान ( अवस्थामें ) होते हुए भी वह सूत - कर्ममें कुशल बालक इन्द्रकी सहायताके लिये गया । विश्वावसु आदि गन्धर्वोंने उस बालकको इन्द्रकी सहायताके लिये जाते हुए जानकर उसके तेजको बढ़ा दिया ॥१४० - १४३॥
गन्धर्वोंके तेजसे परिपूर्ण होकर बालकने इन्द्रके निकट जाकर कहा - देवेश ! आइये, आइये ! मैं आपका प्रिय सारथि बनूँगा । उसे सुनकर इन्द्रने कहा - हे बालक ! तुम किसके पुत्र हो ? तुम घोड़ोंको कैसे संयमित करोगे ? इस विषयमें मुझे संदेह हो रहा है । उसने कहा - वासव ! मुझे ऋषिके तेजसे बल - वैभवमें बढ़े, भूमिसे उत्पन्न एवं गन्धर्वोंके तेजसे युक्त अश्वयानमें पारंगत समझो । यह सुनकर योगिश्रेष्ठ भगवान् इन्द्र आकाशमें चले गये । मातलि नामसे विख्यात वह ब्राह्मणपुत्र भी आकाशमें चला गया । उसके बाद देवश्रेष्ठ इन्द्र रथपर चढ़ गये और शमीकपुत्र मातलिने प्रग्रह ( लगाम ) पकड़ लिया ॥१४४ - १४८॥
उसके बाद मन्दगिरिपर पहुँचकर वे ( इन्द्र ) शत्रुसेनामें प्रविष्ट हो गये । प्रवेश करते समय सुरश्रेष्ठ श्रीमान् ( इन्द्र ) - ने बाणयुक्त, सफेद, लाल, काला, उषाकालीन लालिमावाले एवं सफेद रंगसे मिले पीले रंगवाले - पँचरंगे - एक महान् धनुषको पड़ा हुआ देखा और बाणके साथ ही उसे उठा लिया । उसके बाद रजः सत्त्वतमोमय - त्रिगुणमय - ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) देवोंको मनसे नमस्कार करके उन्होंने प्रत्यञ्चा चढ़ाकर बाण संधान किया । उससे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरके नामोंसे अंकित मोरके पंख लगे हुए अत्यन्त भयंकर बाण निकले और असुरोंका संहार करने लगे ॥१४९ - १५२॥
[ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] नारदजी ! उन इन्द्रने बड़ी चतुराईसे बाणोंकी बौछारसे आकाश, पृथ्वी, दिशाओं एवं विदिशाओंको छा ( भर ) दिया । हाथी बुरी तरह बिंध गये, घोड़े विदीर्ण हो गये, रथ पृथ्वीपर गिर पड़े एवं हाथीका संचालक ( महावत ) बाणोंसे व्याकुल होकर कराहता हुआ धरतीपर गिर गया । इन्द्रके बाणोंसे घायल हुए पैदल युद्ध करनेवाले वीर भूमिपर गिर पड़े । ( इस प्रकार ) शत्रुकी उस सेनाके बहुतेरे प्रधान ( वीर ) मारे गये । उस दुर्धर्ष ( अपराजेय ) सेनाको इन्द्रके बाणोंसे मारी जाती हुई देखकर असुर कुजम्भ और जम्भ भयानक गदाओंको लेकर अविनाशी सुरेन्द्रकी ओर तेजीसे बढ़ चले ॥१५३ - १५६॥
भगवान् विष्णुने उन दोनों ( कुजम्भ और जम्भ ) - को शीघ्रतासे सामने आते देखकर शत्रु - संहारक सुदर्शनचक्रसे कुजम्भको मारा । वह प्राणहीन होकर रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा । लक्ष्मीपति श्रीविष्णुके द्वारा भाईके मारे जानेपर जम्भ क्रुद्ध हो गया । कुपित होकर वह युद्धमें इन्द्रकी ओर ऐसे दौड़ा, जैसे विचारशक्ति नष्ट हो जानेपर मृग सिंहकी ओर दौड़ता है । उसे आते देखकर महात्मा इन्द्रने धनुष्य - बाणको छोड़ अग्निद्वारा प्रदत्त यमदण्डके समान शक्तिको लेकर उसे शत्रुकी ओर फेंका । घण्टासे घनघनाती हुई उस शक्तिको देखकर ( जम्भने ) उसपर बल लगाकर गदासे वार किया । ( उस शक्तिने ) गदाको एकाएक भस्मकर शीघ्र ही जम्भका हदय ( भी ) विदीर्ण कर दिया । शक्तिसे हदयसे विदीर्ण हो जानेपर वह देवशत्रु असुर जम्भ प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । उसे मरा और भूमिपर गिरा देख करके दैत्यगण डरकर पीठ दिखाकर भाग गये । जम्भके मारे जाने एवं दैत्यसेनाके हार जानेपर सभी गण हरिका अर्चन एवं इन्द्रके पराक्रमका गुणगान करने लगे । ( फिर ) वे इन्द्र शंकरके निकट जाकर खड़े हो गये ॥१५७ - १६२॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उनहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६९॥