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अध्याय ५

श्रीवामनपुराण - अध्याय ५

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - जटाधारी भगवान् शिवको क्रोधसे आँखें लाल किये देखकर भगवान् विष्णु उस स्थानसे हटकर कुब्जाग्र ( ऋषिकेश ) - में छिप गये । मुने ! क्रुद्ध शिवको देखकर आठ वसु तेजीसे पिघलने लगे । इस कारण वहाँ सीता नामकी श्रेष्ठ नदी प्रवाहित हुई । वहाँ पूजाके लिये स्थित त्रिनेत्रधारी ग्यारहों रुद्र भयके मारे इधर - उधर भागते हुए शंकरके निकट जाकर उनमें ही लीन हो गये । महामुनि नारद ! शंकरको निकट आते देख विश्वेदेवगण, अश्विनीकुमार, साध्यवृन्द, वायु, अग्नि एवं सूर्य पुरोडाश खाते हुए भाग गये ॥१ - ४॥

फिर तो ताराओंके साथ चन्द्रमा रात्रिको प्रकाशित करते हुए आकाशमें ऊपर जाकर अपने स्थानपर स्थित हो गये । इधर कश्यप आदि ऋषि शतरुद्रिय ( मन्त्र ) - का जप करते हुए अञ्जलिमें पुष्प लेकर विनीतभावसे खड़े हो गये । इन्द्रादि सभी देवताओंसे अधिक बली रुद्रको देखकर दक्ष - पत्नी अत्यन्त दीन होकर बार - बार करुण विलाप करने लगी । इधर क्रुद्ध भगवान् शंकरने थप्पड़ोंके प्रहारसे अनेक देवताओंको मार गिराया ॥५ - ८॥

मुने ! शंकरने इसी प्रकार कुछ देवताओंको पैरोंके प्रहारसे, कुछको त्रिशूलसे और कुछको अपने तृतीय नेत्रकी अग्निद्वारा नष्ट कर दिया । उसके बाद देवों एवं असुरोंका संहार करते हुए शंकरको देखकर पूषादेवता ( अन्यतम सूर्य ) क्रोधपूर्वक दोनों बाहोंको फैलाकर शिवजीकी ओर दौड़े । त्रिलोचन शिवने उन्हें अपनी ओर आते देख एक ही हाथसे उनकी दोनों भुजाओंको पकड़ लिया । शिवद्वरा सूर्यके पकड़ी गयी दोनों भुजाओंकी अङ्गुलियोंसे चारों ओर रक्तकी धारा प्रवाहित होने लगी ॥९ - १२॥

फिर भगवान् शिव दिवाकर सूर्यदेवको अत्यन्त वेगसे ऐसे घुमाने लगे जैसे सिंह हिरण - शावकको घुमाता ( दौड़ाता ) है । नारदजी ! अत्यन्त वेगसे घुमाये गये सूर्यकी भुजाओंके स्नायुबन्ध टूट गये और वे ( स्नायुएँ ) बहुत छोटी - नष्टप्राय हो गयीं । सूर्यके सभी अङ्गोंको रक्तसे लथपथ देखकर उन्हें छोड़कर शंकरजी दूसरी ओर चले गये । उसी समय हँसते एवं दाँत दिखलाते हुए पूषा देवता ( बारह आदित्योंमेंसे एक सूर्य ) कहने लगे - ओ कपालिन् ! आओ, इधर आओ ॥१३ - १६॥

इसपर क्रुद्ध रुद्रने वेगपूर्वक मुक्केसे मारकर पूषाके दाँतोंको धरतीपर गिरा दिया । इस प्रकार दाँत टूटने एवं रक्तसे लथपथ होकर पूषा देवता वज्रसे नष्ट हुए पर्वतके समान बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । इस प्रकार गिरे हुए पूषाको रुधिरसे लथपथ देखकर भग देवता ( तृतीय ) सूर्यभेद ) भयंकर नेत्रोंसे शिवजीको देखने लगे । इससे क्रुद्ध त्रिपुरान्तक शिवने सभी देवताओंको क्षुब्ध करते हुए हथेलीसे पीटकर भगकी दोनों आँखें पृथ्वीपर गिरा दीं ॥१७ - २०॥

फिर क्या था ? सभी दसों सूर्य इन्द्रको आगे कर मरुदगणों तथा अग्नियोंके साथ भयसे दसों दिशाओंमें भाग गये । मुने ! देवताओंके चले जानेपर प्रह्लाद आदि दैत्य महेश्वरको प्रणामकर अञ्जलि बाँधकर खड़े हो गये । इसके बाद शंकर उस यज्ञमण्डपको तथा सभी देवासुरोंको दग्ध करनेके लिये क्रोधपूर्ण घोर दृष्टिसे देखने लगे । इधर दूसरे वीर महादेवको देखकर भयसे जहाँ - तहाँ छिप गये । कुछ लोग प्रणाम करने लगे, कुछ भाग गये और कुछ तो भयसे ही सीधे यमपुरी पहुँच गये ॥२१ -२४॥

फिर भगवान् शिवने अपने तीनों नेत्रोंसे तीनों अग्नियों ( आहवनीय, गार्हपत्य और शालाग्नियों ) - को देखा । उनके देखते ही वे अग्नियाँ क्षणभरमें नष्ट हो गयीं । उनके नष्ट होनेपर यज्ञ भी मृगका शरीर धारण कर आकाशमें दक्षिणाके साथ तीव्रगतिसे भाग गया । कालरुपी वेगवान् भगवान् शिव धनुषको झुकाकर उसपर पाशुपत बाण संधानकर उस मृगके पीछे दौड़े और आधे रुपसे तो यज्ञशालामें स्थित हुए जिनका नाम ' जटाधर ' पड़ा । इधर आधे दूसरे रुपसे वे आकाशमें स्थित होकर ' काल ' कहलाये ॥२६५ - २८॥

नारदजी बोले - ( मुने ! ) आपने आकाशमें स्थित शिवको कालरुपी कहा है । आप उनके सम्पूर्ण स्वरुप और लक्षणोंकी भी व्याख्या कर दें ॥२९॥

पुलस्त्यजीने कहा - मुनिवर ! मैं त्रिपुरको मारनेवाले कालरुपी उन शंकरके स्वरुपको ( वास्तविक रुपको ) बतलाता हूँ । उन्होंने लोककी भलाईकी इच्छासे ही आकाशको व्याप्त किया है । सम्पूर्ण अश्विनी तथा भरणी नक्षत्र एवं कृत्तिकाके एक चरणसे युक्त भौमका क्षेत्र मेष राशि ही कालरुपी महादेवका सिर कही गयी है । ब्रह्मन् ! इसी प्रकार कृत्तिकाके तीन चरण, सम्पूर्ण रोहिणी नक्षत्र एवं मृगशिराके दो चरण, यह शुक्रकी वृष राशि ही उनका मुख है । मृगशिराके शेष दो चरण, सम्पूर्ण आर्द्रा और पुनर्वसुके तीन चरण बुधकी ( प्रथम ) स्थितिस्थान मिथुन राशि आकाशमें स्थित शिवकी दोनों भुजाएँ हैं ॥३० - ३३॥

इसी प्रकार पुनर्वसुका अन्तिम चरण, सम्पूर्ण पुष्य और आश्लेषा नक्षत्रोंवाला चन्द्रमाका क्षेत्र कर्क राशि यज्ञविनाशक शंकरके दोनों पार्श्व ( बगल ) हैं । ब्रह्मन् ! सम्पूर्ण मघा, सम्पूर्ण पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनीका प्रथम चरण, सूर्यकी सिंह राशि शंकरका हदय कही जाती है । उत्तराफाल्गुनीके तीन चरण, सम्पूर्ण हस्त नक्षत्र एवं चित्राके दो पहले चरण, बुधकी द्वितीय राशि, कन्या राशि शंकरका जठर है । चित्राके शेष दो चरण, स्वातीके चारों चरण एवं विशाखाके तीन चरणोंसे युक्त शुक्रका दूसरा क्षेत्र तुला राशि महादेवकी नाभि है ॥३४ - ३७॥

विशाखाका एक चरण, सम्पूर्ण अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र, मङ्गलका द्वितीय क्षेत्र वृश्चिक राशि कालरुपी महादेवका उपस्थ है । सम्पूर्ण मूल, पूरा पूर्वाषाढ और उत्तराषाढकी प्रथम चरणवाली धनु राशि जो बृहस्पतिका क्षेत्र है, महेश्वरके दोनों ऊरु हैं । मुने ! उत्तराषाढ़के शेष तीन चरण, सम्पूर्ण श्रवण नक्षत्र और धनिष्ठाके दो पूर्व चरणकी मकर राशि शनिका क्षेत्र और परमेष्ठी महेश्वरके दोनों घुटने हैं । धनिष्ठाके दो चरण, सम्पूर्ण शताभिष और पूर्वभाद्रपदके तीन चरणवाली कुम्भ राशि शनिका द्वितीय गृह और शिवकी दो जंघाएँ हैं ॥३८ - ४१॥

पूर्वभाद्रपदके शेष एक चरण, सम्पूर्ण उत्तरभाद्रपद और सम्पूर्ण रेवती नक्षत्नोंवाला बृहस्पतिका द्वितीय क्षेत्र एवं मीन राशि उनके दो चरण हैं । इस प्रकार कालरुप धारणकर शिवने क्रोधपूर्वक हरिणरुपधारी यज्ञको बाणोंसे मारा । उसके बाद बाणोंसे विद्ध होकर, किंतु वेदनाकी अनुभूति न करता हुआ, वह यज्ञ ताराओंसे धिरे शरीरवाला होकर आकाशमें स्थित हो गया ॥४२ - ४३॥

नारदजीने कहा - ब्रह्मन् ! आपने मुझझे बारहों राशियोंका वर्णन किया । अब विशेषरुपस्से उनके स्वरुपके अनुसार लक्षणोंको बतलायें ॥४४॥

पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! आपको मैं राशियोंका स्वरुप बतलाता हूँ; सुनिये । वे जैसी हैं तथा जहाँ संचार और निवास करती हैं वह सभी वर्णित करता हूँ । मेष राशि भेड़के समान आकारवाली है । बकरी, भेड़, धन - धान्य एवं रत्नाकरादि इसके संचार - स्थान हैं तथा नवदुर्वासे आच्छादित समग्र पृथ्वी एवं पुष्पित वनस्पतियोंसे युक्त सरोवरोंके पुलिनोंमें यह नित्य संचरण करती हैं । वृषभके समान रुपयुक्त वृषराशि गोकुलादिमें विचरण करती है तथा कृषकोंकी भूमि इसका निवासस्थान हैं ॥४५ - ४८॥

मिथुन राशि एक स्त्री और एक पुरुषके साथ - साथ रहनेके समान रुपवाली है । यह शय्या और आसनोंपर स्थित हैं । पुरुष - स्त्रीके हाथोंमें वीणा एवं ( अन्य ) वाद्य हैं । इस राशिका संचरण गानेवालों, नाचनेवालों एवं शिल्पियोंमें होता है । इस द्विस्वभाव राशिको मिथुन कहते हैं । इस राशिका निवास क्रीडास्थल एवं विहार - भूमियोंमें होता है । कर्क राशि केकड़ेके रुपके समान रुपवाली है एवं जलमें रहनेवाली है । जलसे पूर्ण क्यारी एवं नदी - तीर अथवा बालुका एवं एकान्त भूमि इसके रहनेके स्थान हैं । सिंह राशिका निवास वन, पर्वत, दुर्गमस्थान, कन्दरा, व्याधोंके स्थान, गुफा आदि होता है ॥४९ - ५२॥

कन्या राशि अन्न एवं दीपक हाथमें लिये हुए है तथा नौकापर आरुढ़ है । यह स्त्रियोंके रतिस्थान और सरपत, कण्डा आदिमें विचरण करती है । नारद ! तुला राशि हाथमें तुला लिये हुए पुरुषके रुपमें गलियों और बाजारोंमें विचरण करती है तथा नगरों, मार्गो एवं भवनोंमें निवास करती है । वृश्चिक राशिका आकार बिच्छू - जैसा है । यह गड्डे एवं वाल्मीक आदिमें विचरण करती हैं । यह विष, गोबर, कीट एवं पत्थर आदिमें भी निवास करती है । धनु राशिकी जंघा घोड़ेके समान है । यह ज्योतिः स्वरुप एवं धनुष लिये है । यह घुड़सवारी, वीरताके कार्य एवं अस्त्र - शस्त्रोंका ज्ञाता तथा शूर है । गज एवं रथ आदिमें इसका निवास होता है ॥५३ - ५६॥

ब्रह्मन् ! मकर राशिका मुख मृगके मुख - सदृश एवं कंधे वृषके कन्धोंके तुल्य तथा नेत्र हाथीके नेत्रके समान हैं । यह राशि नदीमें विचरण करती तथा समुद्रमें विश्राम करती है । कुम्भ राशि रिक्त घड़ेको कंधेपर लिये जलसे भीगे पुरुषके समान है । इसका संचार - स्थान द्यूतगृह एवं सुरालय ( मद्यशाला ) है । मीन राशि दो संयुक्त मछलियोंके आकारवाली है । यह तीर्थस्थान एवं समुद्र - देशमें संचरण करती है । इसका निवास पवित्र देशों, देवमन्दिरों एवं ब्राह्मणोंके घरोंमें होता है । महामुने ! मैंने आपको मेषादि राशियोंका लक्षण बतलाया । आप इस प्राचीन रहस्यको जिस प्रकार यज्ञको प्रमथित किया, उसका मैंने आपसे वर्णन कर दिया । इस प्रकार मैंने आपको श्रेयस्कर, परम पवित्र, पापहारी एवं कल्याणकारी अत्यन्त पुराना पुराणआख्यान सुनाया
॥५७ - ६१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५॥

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Last Updated : January 24, 2012

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