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अध्याय ३७

श्रीवामनपुराण - अध्याय ३७

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


लोमहर्षण बोले - पवनके हदमें, पुत्र ( हनुमानजी ) - के शोकके कारण जिस सरोवरमें पवन लीन हो गये थे, उसमें स्त्रान करके महेश्वरदेवका दर्शन कर मनुष्य समस्त पापोंसे विमुक्त हो शिवपदको प्राप्त करता है । उसके बाद ब्रह्माके साथ सभी देवोंने मिलकर उन्हें प्रसन्न एवं प्रत्यक्ष प्रकट किया । यहाँसे शूलपाणि ( भगवान् शंकर ) - के अमृत नामक स्थानमें जाना चाहिये, जहाँ गन्धर्वोंके साथ देवताओंने हनुमानजीको प्रकट किया था । उस तीर्थमें स्त्रान करके मनुष्य अमृतपदको पा लेता है । नियमानुसार तीर्थका सेवन करनेवाला श्रेष्ठ ब्राह्मण ' कुलोत्तारण ' तीर्थमें जाकर अपने मातामह और पितामहके समस्त वंशोंका उद्धार कर देता है । तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध राजर्षि शालिहोत्रके तीर्थमें स्त्रान कर मुक्त हो मनुष्य शारीरिक पापोंसे सर्वथा छूट जाता है । सरस्वती - क्षेत्रमें तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध श्रीकुञ्ज नामक तीर्थ है । उसमेंख भक्तिपूर्वक स्त्रान करनेसे मनुष्य अग्निष्टम यज्ञका फल प्राप्त कर लेता है । मनुष्य वहाँसे नैमिषकुञ्जतीर्थमें जाकर पवित्र हो जाता है और नैमिषकुञ्जतीर्थमें जाकर पवित्र हो जाता है और नैमिषारण्यतीर्थमें स्त्रन करनेसे जो पुण्य होता है, उसे प्राप्त कर लेता है । वहाँपर ' वेदवती ' से निषेवित बहुत प्रसिद्ध तीर्थ है ॥१ - ८॥

द्विजश्रेष्ठो ! रावणके द्वारा अपने केशके पकड़े जानेपर शोकसे संतप्त होकर ( वेदवतीने ) उसके ( रावणके ) वधके लिये अपने प्राणोंको छोड़ दिया था और उसके बाद महात्मा राजा जनकके घरमें वे उत्पन्न हुईं और उनका नाम ' सीता ' विख्यात हुआ तथा वे रामकी पतिव्रता पत्नी हुई । उस सीताको रावणने स्वयं अपने विनाशके लिये अपहत कर लिया । सीताके अपहरण हो जानेपर राम - रावण - युद्ध हुआ, जिसमें रावणको मारनेके बाद विभीषणको ( लङ्काके राज्यपर ) अभिषिक्त कर राम सीताको वैसे ही घर लौटा लाये, जैसे आत्मवान् ( जितेन्द्रिय ) पुरुष कीर्तिको प्राप्त करता है । उनके तीर्थमें स्त्रान कर मनुष्य कन्यायज्ञ ( कन्यादान ) - का फल एवं समस्त पापोंस्से मुक्त होकर परम पदको प्राप्त करता है । उस वेदवतीतीर्थके बाद ब्रह्माके उत्तर और महान् स्थानमें जाना चाहिये, जहाँ स्त्रान करनेसे अवर - वर्णका व्यक्ति ( जन्मान्तरमें ) ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है और ब्राह्मण विशुद्ध अन्तः करणवाला होकर परम पदकी प्राप्ति करता है ॥९ - १४॥

उस ब्रह्माके तीर्थस्थलपर जानेके बाद तीनों लोकोंमें दुर्लभ ' सोमतीर्थ ' में जाना चाहिये, जहाँ चन्द्रमाने तपस्या करके द्विजराजत्व - पदको और देवताओंकी पूजा करनेसे मनुष्य कार्तिककी पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान निर्मल होकर स्वर्गको प्राप्त कर लेता है । तीनों लोकोंमें दुर्लभ ' सप्तसारस्वत ' नामक एक तीर्थ है, जहाँ सुप्रभा, काञ्चनाक्षी, विशाला, मानसहदा, सरस्वती, ओघवती, विमलोदका एवं सुरेणु नामकी सातों सरस्वतियाँ ( नदियाँ ) एकत्र मिलकर प्रवाहित होती हैं ॥१५ - १८॥

पुष्करतीर्थमें स्थित ब्रह्माजीके यज्ञके अनुष्ठानमें लग जानेपर सभी ऋषियोंने उनसे कहा - आपका यह यज्ञ महाफलजनक नहीं होगा; क्योंकि यहाँ सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती ( नदी ) नहीं दिखलायी पड़ रही है । उसे सुनकर भगवानने प्रसन्नापूर्वक सरस्वतीका स्मरण किया । पुष्करमें यज्ञ कर रहे ब्रह्माजीद्वारा आहूत की गयी ' सुप्रभा ' नामकी देवी वहाँ सरस्वती नामसे प्रसिद्ध हुईं । ब्रह्माजीका मान करनेवाली उस वेगवती सरस्वतीको देखकर मुनिजन प्रसन्न हो गये और उन सबोंने उनका अत्यधिक सम्मान किया ॥१९ - २२॥

इस प्रकार पुष्करतीर्थमें स्थित एवं नदियोंमें श्रेष्ठ इस सरस्वतीको महात्मा मङ्कण कुरुक्षेत्रमें लाये ।

एक समय नैमिषारण्यमें रहनेवाले तपस्याके धनी शौनक आदि मुनियोंने पुराणोंके ज्ञाता महात्मा लोमहर्षणसे पूछा । सत्पथगामी हम लोगोंको यज्ञका फल कैसे प्राप्त होगा ? ( - इसे कृपाकर समझाइये । ) उसके बाद महानुभाव लोमहर्षणजीने ऋषियोंको सिरसे प्रणाम कर कहा कि ऋषियो ! जहाँ सरस्वती नदी अवस्थित है, वहाँ ( रहनेसे ) यज्ञका महान् फल प्राप्त होता है । इसको सुनकर विविध वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले मुनियोंने एकत्र होकर सरस्वतीका स्मरण किया । दीर्घकालिक यज्ञ करनेवाले उन ऋषियोंके ध्यान ( स्मरण ) करनेपर वे ( सरस्वती ) वहाँ नैमिषक्षेत्रमें उन महात्माओंके यज्ञमें प्लावन करनेके लिये काञ्चनाक्षी नामसे उपस्थित हो गयीं । वे ही प्रसिद्ध नदी मङ्कणके द्वारा स्मृत होनेपर पवित्र - सलिला सरस्वतीके रुपमें कुरुक्षेत्रकें ( भी ) आयीं और महान् व्रती ऋषियोंने गया - क्षेत्रमें महायज्ञका अनुष्ठान करनेवाले गयके यज्ञमें आहूत की गयी उन श्रेष्ठ सरस्वती नदीको ' विशाला ' के नामसे स्मरण किया ॥२३ - ३०॥

महात्मा मङ्कण ऋषिद्वारा समाहूत की गयी वही नदी कुरुक्षेत्रमें आकर प्रवेश कर गयी । ( फिर ) उद्दालक मुनिने देवर्षियोंके द्वारा सेवित परम पवित्र उत्तरकोसल प्रदेशमें सरस्वतीका ध्यान किया । उन मुनिके कारण नदियोंमें श्रेष्ठ वह सरस्वती नदी उस देशमें आ गयी एवं वह वल्कल तथा मृगचर्मको धारण करनेवाले मुनियोंद्वारा पूजित हुई । तब सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाली वह ' मनोहरा ' नामसे विख्यात हुई । फिर वह महात्मा मङ्कणद्वारा आहूत होकर ऋषिको सम्मानित करनेके लिये कुरुक्षेत्रके उत्तम तीर्थमें प्रविष्ट हुई । केदारतीर्थमें जो सरस्वती ' सुवेणु ' नामसे प्रसिद्ध है, वह ऋषियों और सिद्धोंके द्वारा सेवित तथा सर्वपापनाशक रुपसे जानी जाती है ॥३१ - ३५॥

परमेश्वरकी आराधना कर उन मुनिने उसे ( सुवेणुको ) भी ऋषियोंका उपकार करनेके लिये इस कुरुक्षेत्रमें प्रवाहित कराया । गङ्गाद्वारमें यज्ञ कर रहे दक्षने ' विमलोदा ' नामसे भगवती सरस्वतीको प्रकट किया । कुरुक्षेत्रमें कुरुद्वारा पूजित सरस्वती मङ्कणद्वारा बुलायी जानेपर वहाँ गयी । फिर बुद्धिमान् मार्कण्डेयजी उस पवित्र जलवाली महाभागा सरस्वतीकी स्तुति कर उसे सरोवरके मध्यमें ले गये । वहीं सप्तसारस्वततीर्थमें उपस्थितं एवं नृत्य करते हुए सिद्ध मङ्कणकको नृत्य करनेसे शंकरजीने रोका था ॥३६ - ४०॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३७॥

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Last Updated : January 24, 2012

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