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अध्याय ९१

श्रीवामनपुराण - अध्याय ९१

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - इतनेमें वामनके रुपमें भगवान् आ गये । यज्ञशालाके निकट आकर वे ऊँचे स्वरसे बोले - ओंकारपूर्वक वेदमन्त्र तपस्वी ऋषियोंके रुपमें इस यज्ञमें स्थित हैं । यज्ञोंमें अश्वमेधयज्ञ सर्वोत्तम है और दैत्योंके स्वामी बलि यज्ञ करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं । इस प्रकारकी बातको सुनकर इन्द्रियोंकी जीत लेनेवाले दानवोंके स्वामी बलि अर्घ्यपात्र लेकर, जहाँ वामनदेव स्थित थे, वहाँ गये । इसके बाद अर्घ्य आदिसे देवोंके देवकी अर्चना करके दानवोंके स्वामी बलिने भरद्वाज ऋषिके साथ उन्हें यज्ञशालामें प्रवेश कराया । यज्ञशालामें प्रवेश करते ही बलिने वामन भगवानकी विधिपूर्वक पूजा की और कहा - मान देनेवाले भगवन् ! बोलिये, मैं आपको क्या दूँ ? ॥१ - ५॥

इसके बाद देवोंमें श्रेष्ठ अविनाशी भगवानने देरतक हँसकर और भरद्वाजको देखकर दैत्यराजसे कहा - मेरे गुरुके गुरु अग्निहोत्री ( यज्ञके अनुष्ठाता ) हैं । वे दूसरेकी भूमिमें अग्निस्थापन नहीं करते । दानवपते ! राजन ! मैं उनके लिये आपसे याचना करता हूँ कि मेरे शरीरके परिमाणसे आप तीन पग ( भूमि ) मुझे देनेकी कृपा करें । मुरारि ( भगवान् ) - का वचन सुननेके बाद बलिने पत्नी और पुत्र बाणको देखकर ( अपनी पत्नीसे ) यह वचन कहा - प्रिये ! यह वामन केवल प्रमाणसे ही छोटा नहीं है, बल्कि यह बुद्धिका भी छोटा है; क्योंकि अज्ञानवश यह मुझसे केवल तीन पग ( भूमि ) - की याचना करता है ॥६ - १०॥

विधाता प्रायः कम बुद्धिवाले अभागे मनुष्योंको अधिक धन आदि नहीं देते - जैसे इस यज्ञमें विष्णुने अधिकके लिये प्रयत्न नहीं किया । जिसका भाग्य अनुकूल नहीं होता है, उसे ईश्वर नहीं देते हैं । मेरे - जैसे दानीसे भी आज ये तीन पग ( भूमि ) - की याचना करते हैं ! इस प्रकार कहकर महात्मा बलिने फिर हरिसे कहा - विष्णो ! हाथी, घोड़ा, भूमि, दासी तथा सोना आदि ( इसके अतिरिक्त और भी ) जो आप चाहते हों, वह माँगिये । विष्णो ! आप याचना करनेवाले हैं और मैं जगत्पति देनेवाला हूँ । ऐसी अवस्थामें केवल तीन पग ( भूमि ) - का दान करनेमें देने एवं लेनेवालेको क्या लज्जा न होगी ? वामन ! यदि आप याचना करते हैं तो ( कहिये ) रसातल, पृथ्वी, भुवर्लोक अथवा स्वर्गलोकमेंसे मैं किस स्थानका दान करुँ ? उसे माँगिये ॥११ - १५॥

भगवान् वामन बोले - हाथी, घोड़ा, भूमि, सोना आदि वस्तुएँ उन्हें चाहनेवालेको ही दीजिये । राजन् ! मैं इतनेकी ही याचना करता हूँ ।

इसलिये मुझे तीन पग ( भूमि ) प्रदान करें । वामनभगवानके इस प्रकार कहनेपर महान् असुर बलिने कमण्डलु लेकर विष्णुको तीन पग ( भूमि ) - का दान दिया । हाथपर जल गिरते ही तीनों लोकोंको नापनेके लिये विष्णुने दिव्य रुप धारण कर लिया । तीनों लोकोंको नापनेके लिये जगन्मय विशाल रुप बना लिया । उनके पैरोंमें भूमि, जंघाओंमें तीनों लोकोंसे सत्कार - प्राप्त आकाश, दोनों जानुओंमें सत्यलोक और तपोलोक, दोनों ऊरुओंमें मेरु और मन्दर पर्वत, कटिप्रदेशमें विश्वेदेव, बस्तिप्रदेशके शीर्षस्थानपर मरुदगण, लिङ्गमें कामदेव, वृषणोंमें प्रजापति, कुक्षियोंमें सातों समुद्र, जठरमें सम्पूर्ण भुवन, त्रिवलीमें नदियाँ एवं उनके जठरमें यज्ञ स्थित थे । जठरमें ही इष्टापूर्त आदि समस्त क्रियाएँ भी अवस्थित थीं । उनकी पीठमें वसुगण और देवगण तथा कन्धोंमें रुद्रगण स्थित थे ॥१६ - २२॥

सारी दिशाएँ उनके बाहुस्वरुप थीं । उनके हाथोंमें आठों वसु, हदयमें ब्रह्मा एवं हदयकी हड्डियोंमें कुलिश स्थित था । छातीके बीच श्री तथा समुद्र, मनमें चन्द्रमा, ग्रीवामें देवमाता अदिति तथा वलयोंमें सारी विद्याएँ व्यवस्थित थीं । मुखमें अग्निके सहित ब्राह्मण, ओष्ठमे सभी धार्मिक संस्कार, ललाटमें लक्ष्मीसहित तथा पवित्रताके साथ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षसम्बन्धी शास्त्र, कर्णोंमें अश्विनीकुमार, श्वासमें वायु एवं सभी जोड़के स्थानोंमें मरुदगण स्थित थे । उनके दाँतोंमें सम्पूर्ण सूक्त, जिह्वामें सरस्वती देवी, दोनों नेत्रोंमें चन्द्र और सूर्य तथा बरौनियोंमें कृत्तिका आदि नक्षत्र स्थित थे । देवदेवकी शिखामें राजा ध्रुव, रोमकूपोंमें ताराग्र और रोमोंमें महर्षि लोग अवस्थित थे । भूतभावन भगवानने गुणोंद्वारा सर्वमय होकर एक पदमें ही चराचरसहित सारी पृथ्वीका हरण कर लिया ॥२३ - २९॥

भूमिको नापते हुए उन विशाल रुपधारीके चन्द्रमा और सूर्य दक्षिण तथा उत्तर स्तन हो गये । इसी प्रकार आकाशकी ओर पग बढ़ाते समय सूर्य और चन्द्रमा उनकी नाभिके वाम तथा दक्षिणभागमें अवस्थित हुए । इसके बाद उन्होंने द्वितीय चरणके आधेसे स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक और तपोलोक तथा पग बढ़ाकर शेष आधेसे वैराजलोक और मध्यभागसे आकाशको पूरा किया । ब्रह्मन् ! इसके बाद विष्णुका प्रतापी विशाल चरण आकाशमें ब्रह्माण्डके उदरभागको भेदकर निरालोकमें चला गया । विष्णुके बढ़ते चरणसे बलपूर्वक कटाहका भेदन कर दिया । विष्णुका चरण कुटिला नदीके निकट पहुँच गया । मुने ! इससे कुटिला विष्णुपदी नामसे प्रसिद्ध हुई । तपस्या करनेवाले लोग देवनदीके रुपमें उसकी सेवा करने लगे । सर्वसमर्थ भगवान् तीसरे चरणके पूर्ण न होनेपर बलिके समीप गये और ओठको किंचित् स्फुरित करते हुए बोले - दैत्येन्द्र ! ऋण न चुकानेपर देखनेमें भयंकर बन्धन प्राप्त होता है । अतः तुम मेरे शेष पदको पूरा करो, नहीं तो बन्धन स्वीकार करो । मुरारि ( भगवान् ) - के उस वचनको सुनकर बलिके पुत्र बाणने अमरपतिसे हँसकर हेतुसे युक्त वचन कहा ॥३० - ३६॥

बाणने कहा - जगत्पते ! आपने स्वायम्भुव आदि छः भुवनोंका ही निर्माणकर पृथ्वीको छोटा बनाया है । आपने भूमिको पहले ही विशाल नहीं बनाया, अतः आप बलिसे अत्यन्त विशाल भूमि कैसे माँगते हैं । विभो ! भुवनोंके मध्यवर्ती स्थानोंके साथ जितनी पृथ्वीकी सृष्टि आपने की थी उसे मेरे पिताने आज आपको दे दिया । अतः आप कपटके द्वारा उन्हें क्यों बाँधते हैं ? मुरारे ! जिस पृथ्वीकी कमीको आप पूरा नहीं कर सकते, उसको ये दानवपति कैसे विस्तृत कर सकेंगे ? ये आपकी पूजा करनेमें समर्थ हैं । अतः आप प्रसन्न हों और इन्हें बन्धन प्राप्त करनेका आदेश न दें । प्रभो ! आपने ही श्रुतिमें यह कहा है कि पवित्र देश, काल एवं वर देनेके समय सत्पात्रमें दिया गया दान सुख देनेवाला होता है । चक्रपाणे ! वह सम्पूर्ण ( सुयोग ) दिखलायी पड़ रहा है ॥३७ - ४०॥

समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला भूमिका दान हो रहा है, देवोंके अधिदेव अपने - आपको नियन्त्रित रखनेवाले आप पात्र हैं, ज्येष्ठा एवं मूलके योगमें स्थित चन्द्रमासे युक्त काल है तथा प्रसिद्ध पवित्र कुरुक्षेत्रका देश है अथवा हम - जैसे बुद्धिहीन लोगोंके द्वारा आप भगवानको उचित और अनुचित शिक्षा क्या दी जाय ? आप स्वयं वेदोंके भी आदिस्त्रष्टा और सदसद् विश्वको व्याप्त कर अवस्थित हैं । आपने स्वयं अपने प्रमाण ( शारीरिक आकार ) - को छोटा बनाकर तीन पग भूमि माँगी थी । देव ! क्या आप तीनों लोकोंमें अपने वन्दित रुपसे तीनों लोकोंको ग्रहण नहीं कर लिये हैं ? आपके तीन पगोंको सारा संसार पूरा नहीं कर सका इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आप इसको अपने एक पगसे ही लाँघ सकते हैं । लोकनाथ ! आपने तो यह लीला ही की है । माधव ! पद्मनाभ ! विष्णो ! पृथ्वीको अपने - आप छोटे पैमानेमें बनाकर बलिको बाँधना उचित नहीं । ( ठीक है, आप ) प्रभु जो चाहते हैं वही करते हैं ॥४१ - ४५॥

पुलस्त्यजी बोले - बलिपुत्र बाणके इस प्रकार कहनेपर आदिस्रष्टा भगवान् जनार्दनने यह वचन कहा ॥४६॥

त्रिविक्रमने कहा - बलिनन्दन ! तुमने इस समय इस प्रकार जिन वचनोंको कहा है उनका कारणसहित प्रत्युत्तर मुझसे सुनो । मैंने पहले ही तुम्हारे पितासे यह कहा था कि ‘ राजन् ! मेरे प्रमाणके अनुसार मुझे तीन पग भूमि दो ।’ उन्होंने भलीभाँति उसका सम्मान किया । असुर ! क्या तुम्हारे पिता बलि मेरा प्रमाण नहीं जानते थे, जो उन्होंने निः शड्क होकर मेरे अनन्त तीन पगोंका दान किया । सचमुच ही मैं अपने एक पैरसे समस्त भूः भुवः आदि जगतको नाप सकता हूँ । बलिके कल्याणके लिये ही मैंने ये तीन पग किये हैं । अतः बलिपुत्र ! तुम्हारे पिताने मेरे हाथमें शुद्ध जल दिया है, इससे उनकी आयु एक कल्पकी होगी । बाण ! श्राद्धदेवका वर्तमान मन्वन्तर बीत जानेके बाद सावर्णिक मन्वन्तरके आनेपर बलि इन्द्र बनेंगे । बलिके पुत्र बाणसे इस प्रकार कहनेके बाद त्रिविक्रम देव बलिके निकट गये और उससे मधुर वचन कहे ॥४७ - ५३॥

श्रीभगवानने कहा - राजन् ! दक्षिणाकी सम्पन्नता होनेतक तुम्हें यह महान् फल प्राप्त करना होगा । तुम सुतल नामक पातालमें नीरोग - स्वस्थ होकर निवास करो ॥५४॥

बलिने कहा - नाथ ! सुतलमें निवास करते समय नीरोग - स्वस्थरुपसे रहनेके लिये अक्षय अविनाशीस्वास्थ्यप्रद भोग कहाँसे प्राप्त होंगे ? ॥५५॥

त्रिविक्रमने कहा - दैत्येन्द्र ! मैं इस समय तुम्हारे सामने उन सम्पूर्ण बहुमूल्य भोगोंका वर्णन करता हूँ जो पृथ्वीके तलमें निवास करते समय तुम्हें प्राप्त होंगे । अविधिपूर्वक किये गये दान, अश्रोत्रियद्वारा किये गये श्राद्ध एवं ब्रह्मचर्यव्रतरहित अध्ययन आपको फल प्रदान करेंगे । इन्द्र - पूजनके बाद आनेवाली प्रतिपदाको तुम्हारे पूजनके निमित्त दूसरा उत्सव मनाया जायगा, जिसका नाम होगा - ‘ द्वारप्रतिपदा ’ । उस उत्सवके समय हष्ट - पुष्ट, नरश्रेष्ठ लोग सुन्दर रुपसे सज - धजकर पुष्प और दीप देकर प्रयत्नपूर्वक आपकी अर्चना करेंगे । आपके राज्यमें इस समय जिस प्रकार दिन - रात जनसमुदायके प्रसन्न रहनेके कारण सुन्दर महोत्सव बना रहता है, उसी प्रकार रहनेके कारण सुन्दर महोत्सव बना रहता है, उसी प्रकार उत्सवोंमें श्रेष्ठ वह ‘ कौमुदी ’ नामका उत्सव होगा ॥५६ - ६०॥

मधुसूदनने दानवेश्वर बलिसे इस प्रकार कहकर उसे पत्नीके साथ सुतल लोकमें भेज दिया । इसके बाद वे शीघ्र यज्ञको - अग्निदेवको साथ ले देव - समूहसे सेवित इन्द्रभवन चले गये । महर्षे ! उसके बाद सबका पालन - पोषण करनेवाले व्यापक भगवान् विष्णु, इन्द्रको स्वर्ग देकर और देवताओंको यज्ञ - भागका अधिकारी बनाकर देवताओंके देखते - ही - देखते अन्तर्धान हो गये । ब्रह्मा, वासुदेवके स्वर्ग चले जानेपर दानव शाल्व दैत्यकी बड़ी सेना लेकर सौभ नामका प्रसिद्ध नगर बनाकर इच्छानुसार आकाशमें घूमने लगा । नौकरों और अपनी पत्नीके साथ महात्मा मय सोने, ताँबे एवं लोहेके तीन नगरोंका निर्माण करके तारकाक्ष तथा वैद्युतके साथ अत्यन्त सुखपूर्वक उनमें रहने लगा ॥६१ - ६४॥

बाणासुर भी विष्णुके द्वारा स्वर्ग छीन लिये जानेपर और बलिके बँधने तथा रसातलमें रहनेपर अत्यन्त सुरक्षित शोणित नामके पुरका निर्माण कर दानवेन्द्रोंके साथ रहने लगा । इस प्रकार प्राचीन कालमें चक्र धारण करनेवाले विष्णुने वामनरुप धारण कर इन्द्रकी भलाई, देवताओंकी कार्यसिद्धि तथा ब्राह्मणों, ऋषियों ( गायोंके समूह ) और द्विजोंके हितके लिये बलिको बाँधा था । महर्षे ! मैंने आपसे वामनके पापहारी, पुण्ययुक्त एवं पवित्र प्रादुर्भावका वर्णन किया । इसके सुनने और कीर्तनसे पापका नाश एवं पुण्यकी प्राप्ति होती है । विप्र ! मैंने अक्षय पुण्यकीर्तिवाले वामनदेवके आविर्भाव तथा बलिको बाँधनेकी कथाका आपसे वर्णन किया । अब आप अन्य जो कुछ सुनना चाहते हों, उसे कहिये । मैं पूर्णतया उसका वर्णन करुँगा ॥६५ - ६८॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें इक्यानबेवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९१॥

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Last Updated : January 24, 2012

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