पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ) संसारके उत्पन्न करनेवाले भगवानके वचनानुसार देवमाता अदितिके गर्भमें वामनरुपमें देवके स्थित हो जानेपर असुर निस्तेज हो गये । असुरोंको निस्तेज देखकर दानवोंमें श्रेष्ठ बलिने दानवेश्वर प्रह्लादसे यह वचन कहा ॥१ - २॥
बलिने कहा - तात ! आप यह बतलानेकी कृपा करें कि दानव किस कारणसे निस्तेज हो गये हैं ? शुभ और अशुभके जानेनावाले आप महान् ज्ञानी हैं ॥३॥
पुलस्त्यजी बोले - अपने पौत्र ( बलि ) - के उस वचनको सुनकर ( दानवोंके ) तेजकी अत्याधिक हानि ल्यों और किससे हुई है - ( यह जाननेके लिये ) प्रह्लादने क्षणभर ध्यान किया और दैत्योंके लिये वासुदेवद्वारा उत्पन्न हुए अतुलनीय भयको जानकर उन योगात्माने यह सोचा कि इस समय विष्णु कहाँपर स्थित हैं ? नारदजी ! नाभिके नीचेके स्थानमें सात पातालोंका चिन्तन करनेकी बाद ( सातों पातालोंमें पता लगानेके बाद ) सभीको अपने वशमें करनेवाले वे नाभिके ऊपर भूः आदि लोकमें देखनेके लिये ( पता लगानेके लिये ) पहुँचे । उन्होंने कमलके आकारकी भूमि और उसके बीच महान् समृद्धिसे सम्पन्न सुवर्णमय कमलकेआकार - जैसे पर्वतश्रेष्ठ मेरुको देखा । उसके ऊपर महा - पुरियोंमें देज्खा ॥४ - ८॥
उसके नीचे उन्होंने महान् पुण्यसे युक्त देवताओंसे पूजित तथा पशुपक्षियोंसे भरे देवमाता अदितिके आश्रमको देखा । मुने ! समस्त तेजोंसे भी अधिक तेजस्विनी उस देवमाता अदितिको देखकर दानवपति प्रह्लादाने मधुसूदनको ढूँढ़नेके लिये ( उनके उदरमें ) प्रवेश किया । उन्होंने सभी प्राणियोंमें श्रेष्ठ वामनके रुपमें उन जगत्पति माधवको देवमाताके उदरमें देखकर सारे सुरों और असुरोंसे चारों और व्याप्त शरीरवाले शङ्ख्य, चक्र एवं गदा धारण करनेवाले उन पुण्डरीकनयन भगवानको देखा । उसी योगके क्रममें वामनरुपको प्राप्त हुए दैत्योंके तेजको हरण करनेवाले विष्णुको जानकर वे प्रकृति - भावमें स्थित हो गये । उसके बाद मधूसूदनको प्रणाम कर महाबुद्धिमान् प्रह्लादने विरोचनपुत्र बलिसे मधर वचन कह ॥१ - २॥
प्रह्लादने कहा - दैत्येन्द्र ! आप लोगोंको जिससे रहित हो गये हैं, वह सब मैं कहता हूँ, सुनो । आपके द्वारा जीते गये इन्द्रसहित रुद्र, सूर्य तथा अग्नि आदि देवता त्रिभुवनके स्वामी देव हरिकी शरणमें गये । वे लोकगुरु महाबाहु हरि इन्द्र आदि देवताओंको अभय देकर अदितिके उदरमें अवतीर्ण हुए हैं । बले ! मेरा ऐसा विचार है कि उन्होंने तुम लोगोंके तेजको हरण कर लिया है । बले ! ( जैसे कि ) सूर्योदयके होते ही अन्धकार ठहर नहीं सकता है ॥१५ - १८॥
पुलस्त्यजी बोले - प्रह्लादके वचनको सुनकर ओठ फड़फड़ाते हुए बलिने होनहारसे प्रेरित होकर प्रह्लादसे कहा ॥१९॥
बलिने कहा - तात ! ये हरि कौन हैं जिनके कारण हमें भय प्राप्त हुआ है ? हमारे पास वासुदेवसे अधिक बलवान् सैकड़ों दैत्य हैं । उन लोगोंने इन्द्रसहित रुद्र, अग्नि तथा वायु आदि हजारों देवोंको युद्धमें जीतकर उनके अहंकारको नष्ट किया एवं उन्हें स्वर्गसे खदेड़ दिया । वह बलशाली विप्रचिति मेरी सेनाका अगुआ है, जिसने धावा बोलकर सूर्यके रथसे महान् तीव्रगामी चक्रको खींच लिया था । अयः शङ्कु, शिव, शम्भु, असिलोमा, विलोमकृत्, त्रिशिरा, मकराक्ष, वृषपर्वा एवं नतेक्षण - ये तथा अन्य बहुत - से भाँतिभाँतिके आयुधोंको चलानेमें निपुण बलवान् ( दैत्य मेरे सहायक हैं, ) जिनमें हर एककी सोलहवीं कलाके भी समान विष्णु नहीं हैं ॥२० - २४॥
पुलस्त्यने कहा - पौत्रके इस वचनको सुनकर अत्यन्त कुपित हुए उन प्रह्लादने विष्णुकी निन्दा करनेवाले बलिसे कहा - पापकर्मा दुष्टबुद्धि तुम मूर्खको धिक्कार है । विष्णुकी निन्दा करते हुए तुम्हारी जीभ क्यों नहीं गिर गयी ? दुर्बुद्धे ! दुर्मते ! तुम शोक करने लायक और सज्जनोंद्वारा निन्दा किये जाने योग्य हो । क्योंकि तुम तीनों लोकोंके गुरु विष्णुकी निन्दा कर रहे हो । निस्सन्देह मैं भी शोक किये जाने लायक हूँ, जिसने तुम्हारे उस पिताको जन्म दिया, जिससे तुम देवताओंकी निन्दा करनेवाले तथा उग्र पुत्र हुए ॥२५ - २८॥
निश्चय ही तुम और ये महासुर भी जानते हैं कि जनार्दनसे अधिक दूसरा कोई मेरा प्रिय नहीं है । विष्णु मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, यह जानते हुए भी तुमने सर्वेश्वरेश्वर देवकी निन्दा किस प्रकार की ? तुम्हारे पिता ( तुम्हारे लिये ) गुरु एवं पूजनीय हैं । उनका भी गुरु तथा पूजनीय मैं हूँ । लोकगुरु भगवान् विष्णु मेरे भी पूजनीय और गुरु हैं । मूढ़ पापिन् ! गुरुके भी गुरु तुम्हारे लिये पूज्य एवं पूज्यतम हैं । तुम पूजनीयकी निन्दा करते हो, इसलिये तुम नीचे क्यों नहीं गिर गये ॥२९ - ३२॥
तुमने दुराचरण करनेवाले इन दानवोंको शोचनीय बना दिया । क्योंकि वासुदेवकी निन्दा करनेवाले कठोरस्वभावके तुम इनके राजा हो । हे पापका आचरण करनेवाले ! यतः तुमने पूजनीय एवं अर्चनीय विष्णुकी निन्दा की हैं, अतः तुम्हारे राज्यका विनाश होगा । क्योंकि मन, कर्म एवं वाणीसे मेरा केशवसे अधिक दूसरा कोई प्रिय नहीं है, अतः राज्यसे भ्रष्ट होकर तुम अधः पतित हो जाओ । क्योंकि चौदहों लोकोंमें उनसे भिन्न दूसरा कोई नहीं है, अतः राज्य - भ्रष्ट होकर तुम पतित हो जाओ; क्योंकि संसारमें सभी भूतोंका ( वासुदेवके अतिरिक्त ) दूसरा कोई आधार नहीं है, अतः मैं तुम्हें राज्यच्युत हुआ देखूँ ॥३३ - ३७॥
पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मन् ! इस प्रकार कहे जानेपर बलशाली बलि शीघ्र ही आसनसे नीचे उतरा और हाथ जोड़कर उसने सिरसे झुककर प्रणाम कर कहा - गुरो ! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हों । बड़े लोग अपराध करनेपर भी बालकोंको क्षमा करते हैं । दानवेश्वर ! आपका मुझे शाप देना ठीक है । मैं शत्रुओंसे तथा राज्यके विनाश होनेसे भयभीत नहीं हूँ । विभो ! मुझे राज्यसे भ्रष्ट हो जानेका कष्ट भी नहीं है, परंतु आपका अपराध करनेका मुझे सबसे अधिक दुःख है । इसलिये तात ! आप मेरे अपराधको क्षमा करें । मैं एक अनाथ दुर्बुद्धि शिशु हूँ । गुरुजन दोष करनेपर भी आर्त बने हुए बालकोंको क्षमा कर देते हैं ॥३८ - ४२॥
( फिर ) पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकारके वचन कहनेपर विष्णुके चरणोंमें श्रद्धा रखनेवाले ज्ञानी महात्मा ( प्रह्लाद ) - ने बहुत देरतक विचारकर पौत्रसे इस प्रकार अद्भुत एवं मधुर यह वचन कहा ॥४३॥
प्रह्लादने कहा - तात ! अज्ञानने मेरे ज्ञान एवं विवेकको ढक दिया था । इसीसे विष्णुको सर्वव्यापी जानते हुए भी मैंने तुम्हें शाप दे दिया । दानव ! निश्चय ही तुम्हारी इस प्रकारकी होनहार थी । इसीसे विवेकका प्रतिबन्धक - विषय - वासनारुप अज्ञान मुझमें प्रवेश कर गया था । इसलिये विभो ! राज्यके लिये कष्ट मत करो । अवश्यम्भावी विषय कभी भी विनष्ट नहीं होते । बुद्धिमान व्यक्तिको पुत्र, मित्र, पत्नी, राज्यभोग और धनके आने तथा जानेपर चिन्तित नहीं होना चाहिये ॥४४ - ४७॥
दैत्येन्द्र ! पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंके विधानसे जैसे - जैसे सुख और दुःख आते हैं, मनुष्यको उसी प्रकार उनको सहन कर लेना चाहिये । संयम करनेवाले व्यक्तिको आपत्तियोंका आगमन देखकर पीडित नहीं होना चाहिये एवं अत्यन्त अधिक सम्पत्तिको देखकर धीरता नहीं खो देनी चाहिये । उत्तम पुरुष धनके नष्ट होनेपर चिन्ता एवं धनकी प्राप्ति होनेपर हर्ष नहीं करते । वे कर्तव्य कर्मके प्रति सदा धीर बने रहते हैं । दैत्येन्द्र ! इस प्रकार जानकर तुम्हें किसी प्रकारका शोक नहीं करना चाहिये; तुम विद्वान् हो ! विद्वान् व्यक्ति दुःखी नहीं होते ॥४८ - ५१॥
महाबाहो ! तुम अपने लिये तथा अन्योंके लिये महान् अर्थपूर्ण एवं कल्याणकर ( वचन ) सुनो और सुनकर वैसा ही करो । दानवेन्द्र ! तुम उन्हीं शरणागतकी रक्षा करनेवाले पुरुषोत्तमकी शरणमें जाओ । वे ही इस भयसे तुम्हारी रक्षा करेंगे । आदि, मध्य और अन्तसे हीन, चर और अचरके गुरु, संसाररुपी गर्त्तमें गिरे हुओंके लिये हाथका आश्रय देनेवाले एवं सबके नियन्ता हरि विष्णुकी शरणमें जानवाले मनुष्य निश्चय ही संसारमें संतप्त नहीं होते । दानवश्रेष्ठ ! अब तुम अपना मन उन्हीमें लगाकर उनके भक्त बनो । वे जनार्दन ही तुम्हारा कल्याण करेंगे । मैं भी पापके विनाशके लिये ईश्वरकी आराधनाकर तीर्थयात्रा करने जाऊँगा और पापसे विमुक्त होकर मैं वहाँ जाऊँगा, जहाँ लोकपति अच्युत नृसिंह हैं ॥५२ - ५६॥
पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकार बलिको आश्वासन देनेके बाद महात्मा ( प्रह्लाद ) - ने योगके अधिपति विष्णुका स्मरण किया और दानवसमूहोंके पालकोंसे अनुमति लेकर तीर्थयात्रा करने चले गये ॥५७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सतहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७७॥