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अध्याय ८४

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८४

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदजीने कहा - दनुवंशमें उत्पन्न हुए प्रह्लादने भगवानकी भक्तिसे भावित होकर जप ( पाठ ) करनेयोग्य गजेन्द्रमोक्षणादि जिन चार स्तोत्रोंका जप किया था उन चारों स्तोत्रोंको आप मुझे बतलावें ॥१॥

पुलस्त्यजी बोले - तपोधन ! मैं उन ( जप करनेयोग्य ) स्तोत्रोंका वर्णन करता हूँ जिनके कहने, सुनने और स्मरण करनेसे दुःस्वप्नोंका विनाश होता है उसे आप सुनें । पहले गजेन्द्रमोक्षणस्तोत्र सुनिये । उसके बाद सारस्वतस्तोत्र एवं उसके बाद पापोंके प्रशमन करनेवाले ( दो पवित्र ) स्तोत्रोंका वर्णन करुँगा । सूर्यके सदृश कान्तिवाले पर्वतराज सुमेरुका पुत्र सर्वरत्नोंसे भरा श्रीसे सम्पन्न त्रिकूट नामका एक पर्वत है । क्षीरसागरके जलकी लहरोंसे धुले हुए निर्मल शिलातलवाला वह पर्वत समुद्रका भेदन कर उसके ऊपर निकल आया है एवं देवता और ऋषिगण वहाँ सदा निवास करते हैं ॥२ - ५॥

अप्सराओंसे घिरा, झरते हुए झरनोंवाला, गन्धर्वों, किन्नरों, यक्षों, सिद्धों, चारणों, पन्नगों, पत्नीके साथ विद्याधरों, संयमका पालन करनेवाले तपस्वियों और भेड़ियों, चीतों एवं गजेन्द्रोंसे भरा - पूरा वह शोभाशाली पर्वत अत्यन्त सुशोभित है । पुंनाग, कर्णिकार, बिल्व आमलक, पाटल, आम्र, नीप, कदम्ब, चन्दन, अगुरु, चम्पक, शाल, ताल, तमाल, सरल, अर्जुन, पर्पट तथा दूसरे बहुत प्रकार के वृक्षोंसे वह पर्वत सब तरहसे सुशोभित है ॥६ - ९॥

वह पर्वत भाँति - भाँतिकी धातुओंसे चमकती चोटियों, चारों ओरसे बहनेवाले झरनों और अत्यन्त मनोहर तथा सुदूर देशमें फैले हुए तीन शिखरोंसे शोभित है । वह पर्वत, हरिण, बन्दर, सिंह, मदसे मतवाले हाथी, चातक, चकोर एवं मोर आदिके शब्दोंसे सदा शब्दायमान होता रहता है । कई प्रकारके फूलोंसे भरे - पूरे एवं तरहतरहकी सुगन्धोंसे सुवासित उसके एक सुनहले शिखरका सेवन सूर्य करते हैं । सफेद बादलोंकी तरह एवं बर्फके ढेरके समान चाँदी - जैसी उसकी दूसरी चोटीका सेवन चन्द्रमा करते हैं ॥१० - १३॥

हीरा, इन्द्रनील, वैडूर्य आदि रत्नोंकी चमकसे दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला उसका अत्यन्त उत्तम तीसरा शिखर ब्रह्माका निवास - स्थान है । कृतघ्न, क्रूर, नास्तिक, तपस्यासे हीन एवं लोकमें पापकर्म करनेवाले मनुष्य उसे नहीं देख सकते । उस पर्वतके पीछेकी ओर कमलोंसे युक्त, कारण्डव पक्षियोंसे भरे, राजहंसोंसे सुशोभित, कुमुद, उत्पल, कह्नार, पुण्डरीक आदि अनेक प्रकारके सुनहले कमलोंसे अलड्कृत एवं सुनहले शतपत्रोंवाले तथा अन्य प्रकारके कमलोंसे ( और भी ) सुशोभित एवं मरकतके सदृश पत्तों तथा सोनेके समान पुष्पों और हवासे चूँ - चूँ शब्द करनेवाले बाँसके झाड़ोंसे चारों ओरसे घिरा एक सरोवर है ॥१४ - १८॥

उस सरोवरके जलमें हाथियोंका शत्रु दुष्ट स्वभावका आधी खुली आँखोंवाला कुरुप एक मगर रहता था । एक समय उज्ज्वल दाँतोंवाला, मदस्रावी, पैरसे चलनेवाले पर्वतके समान, मदके गन्धसे वासित ऐरावतके सदृश अञ्जनकी भाँति काला, मदके कारण चञ्चल नेत्रोंवाला, प्यासा एक गजयूथपति पानी पीनेकी इच्छासे उस सरोवरके जलमें पैठा और कमलोंके समूहसें अपने झुंडके बीचमें रहकर क्रीडा करने लगा । ( जलके भीतर ) अपने शरीरको छिपाये हुए एक भयंकर ग्राहने उसे पकड़ लिया । करुण स्वरसे चिग्घाड़ कर रही हथिनियोंके देखते - ही - देखते अत्यन्त बलवान् ग्राह उसे कमलोंसे संकुल जलमें खींच ले गया और वरुणके पाशोंसे बाँधकर उसे चेष्टारहित एवं गतिहीन ( विवश ) कर दिया ॥१९ - २४॥

वहाँ सुदृढ और भयङ्कर पाशोंसे आबद्ध हो जानेके कारण गजराज यथाशक्ति छटपटाकर ऊँचे स्वरसे चिग्घाड़ने लगा । क्रूर कर्मवाले ( उस ग्राह ) - के द्वारा पकड़े जानेपर वह पीड़ित और उत्साहरहित हो गया । भारी विपत्तिमें पड़कर वह मनसे भगवान् श्रीहरिका ध्यान करने लगा । वह सुन्दर गजराज ( पूर्वजन्मका ) नारायणका भक्त था । इसलिये वह उस समय सर्वतोभावेन उन्हीं देवकी शरणमें प्रपन्न हो गया । वह गजराज जन्म - जन्मान्तरके अभ्याससे एकाग्र एवं संयतचित्त होकर विशुद्ध अन्तः करणसे गरुडध्वज भगवान् विष्णुकी भक्तिमें लग गया था । उसने महान् देव केशव ( श्रीविष्णु ) - के सिवा अन्य देवताओंकी पूजा नहीं की । उस गजने मथे हुए अमृतके फेनके समान कान्तिवाले, शङ्ख तथा चक्र और गदाको धारण करनेवाले, सहस्त्रों शुभ नामोंवाले, आदिदेव एवं अजन्मा सर्वव्यापक विष्णु ( नारायण ) - का ध्यान किया और अपने शुण्डके अग्रभागमें एक उत्तम स्वर्ण - कमल लेकर ( इस ) आपत्तिसे मुक्ति प्राप्त करनेकी इच्छासे इस स्तोत्रका पाठ करने लगा ॥२५ - ३०॥

गजेन्द्र बोला - ॐ मूलप्रकृतिस्वरुप महान् आत्मा अजित विष्णुभगवानको नमस्कार है । अन्योंपर आश्रित न रहनेवाले एवं ( किसी वस्तुकी प्राप्तिकी ) इच्छासे रहित आप देवको नमस्कार है । आद्यबीजस्वरुप, ऋषियोंके आराध्यदेव संसारचक्रके प्रवर्तक आपको नमस्कार है । अन्तरहित - सर्वत्र व्याप्त एकमात्र अव्यक्तको पुनः - पुनः नमस्कार है । गुह्य, गूढ़, गुणस्वरुप एवं गुणोंमें रहनेवालेको नमस्कार है । तर्कसे अतीत, निर्णयात्मिका बुद्धिसे भी नहीं समझे जानेयोग्य, अतुलनीय ( आप ) - को बार - बार नमस्कार है । प्रथम मङ्गलमय, शान्त, निश्चिन्त, यशस्वी, सनातन और पुराणपुरुषको बार - बार नमस्कार है ॥३१ - ३४॥

आप देवाधिदेवको नमस्कार है । स्वभावस्वरुपी आपको बार - बार नमस्कार है । जगतकी प्रतिष्ठा करनेवाले ( आप ) - को नमस्कार है । गोविन्दको बार - बार नमस्कार है । पद्मनाभको नमस्कार है और योगसे उत्पन्न होनेवाले ( आप ) योगोद्भवको नमस्कार है । विश्वेश्वर, देव, शिव, हरिको नमस्कार है । निर्गुण और गुणात्मा उन ( प्रसिद्ध ) देवको नमस्कार है । विश्वात्मा, नारायण एवं देवोंके परम आत्मा ( आप ) - को नमस्कार है । कारणवश वामनरुप धारण करनेवाले, अतुल विक्रमवाले नारायणको नमस्कार है । श्री, शार्ङ्ग, चक्र, तलवार एवं गदा धारण करनेवाले उन पुरुषोत्तमको नमस्कार है ॥३५ - ३८॥

गुह्य, वेदनिलय, महोदर, दैत्यके निधनके लिये सिंहरुप धारण करनेवाले, चार भुजाओंवाले, ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, मुनि तथा चारणोंके द्वारा स्तुत किये गये वरदानी देवोत्तम अच्युतभगवानको नमस्कार है । शेषनागके शरीरपर प्रसन्नतापूर्वक शयन करनेवाले, गोदुग्ध, स्वर्ण, शुक एवं नीलघनकी उपमासे युक्त, पीला वस्त्र धारण करनेवाले, मधु - कैटभका विनाश करनेवाले, सुन्दर मुकुट धारण करनेवाल, वृद्धावस्थासे रहित, विश्वकी आत्मा आप देवको नमस्कार है । नाभिसे उत्पन्न हुए कमलपर स्थित ब्रह्मासे युक्त, क्षीरसमुद्रको अपना निवास बनानेवाले, यशस्वी, अनेक प्रकारके विचित्र मुकुट एवं अङ्गद आदि आभूषणोंसे युक्त, वरदानी तथा वरस्वरुप सर्वेश्वरको नमस्कार है । भक्तिके प्रेमी, श्रेष्ठ दीप्तिसे सर्वथा पूर्ण सुन्दर दिखलायी देनेवाले, खिले हुए कमलके समान विशाल आँखोंवाले, देवेन्द्रके विघ्नोंका विनाश करनेके लिये पुरुषार्थ करनेको उद्यत वरस्वरुप, विरज योगेश्वरको नमस्कार है ॥३९ - ४२॥

ब्रह्मा और अन्य देवोंके आधारस्वरुप, लोकाधिनाथ, भवहर्त्ता, नारायण आत्महितके आश्रयस्थान महावराहको नमस्कार करता हूँ । मैं कूटस्थ, अव्यक्त, अचिन्त्य रुपवाले, कारणस्वरुप, आदिदेव नारायण, युगान्तमें शेष रहनेवाले पुराणपुरुष, देवाधिदेवकी शरण ग्रहण करता हूँ । मैं योगेश्वर, सुन्दर विचित्र रंगोंसे युक्त मुकुटको धारण करनेवाले, अज्ञेय, सर्वश्रेष्ठ, प्रकृतिके परे अवस्थित, क्षेत्रज्ञ, आत्मप्रभव, वरेण्य उन वासुदेवकी शरण ग्रहण करता हूँ । ब्रह्मर्षिजन जिन्हें अदृश्य, अव्यक्त, अचिन्तनीय, अव्यय, ब्रह्ममय और सनातन पुरुष कहते हैं, उन देवगुह्यकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥४३ - ४६॥

( ब्रह्मदेवता ) जिसे अक्षर एवं सर्वव्यापी ब्रह्म कहते हैं तथा जिसके श्रवणसे मृत्युके मुखसे मुक्ति मिल जाती है, मैं उसी श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त, आत्मतृप्त, शाश्वत आश्रयस्वरुप ईश्वरकी शरण ग्रहण करता हूँ । मैं कार्य, क्रिया और कारणस्वरुप, प्रमाणसे अगम्य, हिरण्यबाहु, नाभिमें श्रेष्ठ कमल धारण करनेवाले, महाबलशाली, वेदोंकी निधि, सुरेश्वर जनार्दन विष्णुकी शरणमें जाता हूँ । मैं किरीट, केयूर एवं अतिमूल्यवान् श्रेष्ठ मणियोंसे सुसज्जित समस्त शरीरवाले, पीताम्बर धारण करनेवाले, स्वर्णिम पत्र - रचनासे अलङ्कृत, माला धारण करनेवाले केशवकी शरणमें जाता हूँ । मैं संसारको उत्पन्न करनेवाले, वेदके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ, योगात्माओं तथा सांख्यशास्त्रके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ, आदित्य, रुद्र, अश्विनीकुमार एवं वसुओंके प्रभावसे युक्त अच्युत, आत्मस्वरुप प्रभुकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥४७ - ५०॥

मैं श्रीवत्स - चिह्न धारण करनेवाले, महान् देव, देवताओंमें गुह्य, उपमासे रहित, सूक्ष्म, अचल तथा अभय देनेवाले वरेण्य देवकी शरण ग्रहण करता हूँ । मै समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले, निर्गुण, निःसङ्ग, यम और नियमका पालन करनेवाले संन्यासियोंकी परम गतिस्वरुप परमेश्वरकी शरण ग्रहण करता हूँ । मैं गुणाध्यक्ष, अक्षर, कमलनयन, आश्रय ग्रहण करनेयोग्य, शरण देनेवाले, भक्तोंसे प्रेम रखनेवाले भगवानकी श्रद्धापूर्वक शरण ग्रहण करता हूँ । मैं तीन पगोंमें तीनों लोकोंको नाप लेनेवाले, तीनों लोकोंके ईश्वर, सभीके प्रपितामह, योगकी मूर्ति, महात्मा जनार्दनकी शरण ग्रहण करता हूँ । मैं आदिदेव, अजन्मा, शम्भु, व्यक्त और अव्यक्तस्वरुप, सनातन, परम सूक्ष्म, ब्राह्मणप्रिय नारायणकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥५१ - ५५॥

श्रेष्ठ देवको नमस्कार है । सर्वशक्तिमानको नमस्कार है । मैं सदा सूक्ष्म - से - सूक्ष्म देवदेवेशकी शरण हूँ । लोकतत्त्वस्वरुप, एकमात्र परात्पर परमात्मा, सहस्त्रशीर्ष महात्मा अनन्तको नमस्कार है । वेदोंके पारगामी ऋषिगण आपको ही परम देव एवं ब्रह्मा आदि देवोंका आश्रयस्थान कहते हैं । हे पुण्डरीकाक्ष ! हे भक्तोंको अभयदान देनेवाले ! आपको नमस्कार है । सुब्रह्मण्य ! आपको नमस्कार है । आप मुझ शरणागतकी रक्षा करें ॥५६ - ५९॥

पुलस्त्यजी बोले - शङ्ख, चक्र एवं गदाको धारण करनेवाले, सफलताके आश्रय विष्णु उस गजेन्द्रकी भक्तिका विचार कर प्रसन्न हो गये । उसके बाद संसारके आधार जगत्स्वामी तपोधन केशव गरुड़पर सवार हो उस सरोवरके निकट गये । अप्रमेय आत्मस्वरुप मधुसूदनने ग्राहके द्वारा पकड़े गये उस गजेन्द्र तथा उस ग्राहको वेगपूर्वक सरोवरसे बाहर निकला । माधवने पृथ्वीपर स्थित ग्राहको चक्रके द्वारा विदीर्ण कर शरणापन्न गजेन्द्रको बन्धनसे मुक्त कर दिया । देवलके शापसे ग्राह बना हुआ गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू भगवान् श्रीकृष्णसे मृत्यु पाकर स्वर्ग चला गया ॥६० - ६४॥

भगवान् विष्णुका स्पर्श होनेसे वह हाथी भी दिव्य शरीर धारण करनेवाला पुरुष हो गया । इस प्रकार हाथी एवं गन्धर्वश्रेष्ठ दोनों एक ही साथ संकटसे मुक्त हो गये । मुनिवर ! उसके बाद उन दोनोंसे पूजित होकर शरणागतवत्सल पुण्डरीकाक्ष देवेश प्रसन्न हुए और उन योगी भगवान् मधुसूदनने शरणागत गजेन्द्रसे यह मधुर वचन कहा - ॥६५ - ६७॥

श्रीभगवानने कहा - स्थिर बुद्धिसे पवित्र व्रत धारण करनेवाले जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक मेरा, तुम्हारा तथा इस सरोवरका एवं ग्राहके विदारण, गुल्म, कीचक, रेणु एवं मेरु पुत्रके रुप, पीपल, सूर्य, गङ्गा और नैमिषारण्यका श्रद्धापूर्वक स्मरण एवं कीर्तन तथा श्रवण करेंगे उनके दुःस्वप्नका विनाश हो जायगा एवं सुस्वप्नकी सृष्टि होगी । जो मनुष्य प्रातः काल उठकर मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार, वामनावतार, गरुड़, नरसिंहावतार, गजेन्द्र और सृष्टि - प्रलय करनेवाले ( भगवान् ) - का स्मरण करेंगे, वे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यलोकको प्राप्त करेंगे ॥६८ - ७२॥

पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) गजेन्द्रसे ऐसा कहकर गरुड़ध्वज हषीकेशने हाथसे गजेन्द्र और गन्धर्व दोनोंका स्पर्श किया । हे विप्र ! उसके बाद नारायणकी आराधना करनेमें लीन गजेन्द्र दिव्य शरीर धारणकर मधुसूदनकी शरणमें चला गया । उसके बाद अद्भुत कर्म करनेवाले श्रीमान् नारायणने गजोत्तम एवं ग्राहको पापबन्धसे एवं शापसे मुक्त किया । भगवद्भक्त ऋषियोंद्वारा स्तुत होते हुए वे अविज्ञेय गतिवाले प्रभु भगवान् विष्णु ( अपने धाम ) चले गये ॥७३ - ७६॥

गजेन्द्रके मोक्षको देखकर इन्द्र आदिउ देवोंने महात्मा प्रभु नारायण श्रीहरिकी वन्दना की । गजको ग्राहसे मुक्त हुए देखकर विस्मयसे खिले नेत्रोंवाले महर्षियों एवं चारणोंने जनार्दनकी स्तुति की । चक्रपाणिके गजेन्द्रमोक्षणरुपी कर्मको देखकर प्रजापति ब्रह्माने यह वचन कहा - जो मनुष्य प्रातः काल उठकर प्रतिदिन इसे सुनेगा, वह परमसिद्धिको प्राप्त करेगा और उसका दुःस्वप्न विनष्ट हो जायगा ॥७७ - ८०॥

तपोधन ! गजेन्द्रमोक्ष पवित्र और सब प्रकारके पापोंका नाश करनेवाला है । इस गजेन्द्रमोक्षके कहने, स्मरण करने और सुननेसे मनुष्य तुरंत सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । मुरारि विष्णुका यह पवित्र चरित्र पुण्य प्रदान करनेवाला तथा कीर्तन करने योग्य है । इसे कहनेसे मनुष्य गजेन्द्रके समान अनेक पापोंके बन्धनसे मुक्त हो जाता है । मैं अज, वरेण्य, श्रेष्ठ, पद्मनाभ, नारायण, ब्रह्मनिधि, सुरेश, देवगुह्य, पुराणपुरुष उन लोक - स्वामी की वन्दना करता हूँ ॥८१ - ८३॥

पुलस्त्यजी बोले - स्तुतियोंमें श्रेष्ठ गजेन्द्रद्वारा कीर्तित मुरारिके इस श्रेष्ठ स्तोत्रको मैंने तुमसे कहा । इसके कीर्तन, श्रवण तथा चिन्तन करनेसे मनुष्य पापोंसे विमुक्ति पा जाता है ॥८४॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौंरासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८४॥

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Last Updated : January 24, 2012

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