नारदजीने ( पूलस्त्यजीसे ) पूछा - आपने जो यह कहा है कि सूर्यने सुकेशीके नगरको आकाशसे पृथ्वीपर गिरा दिया था तो यह घटना कब और कहाँ हुई थी ? सुकेशी नामका वह कौन व्यक्ति था ? उसे वह नगर किसने दिया था और भगवान् सूर्यने उसे आकाशसे पृथ्वीपर क्यों गिरा दिया ? ॥१ -२॥
पुलस्त्यजी बोले - निष्पाप नारदजी ! यह कथा बहुत पुरानी है; आप इसे सावधानीसे सुनिये । ब्रह्माजीने जैसे यह कथा मुझे सुनायी थी, वैसे ही इसे मैं आपको सुना रहा हूँ । पहले विद्युत्केशी नामसे प्रसिद्ध राक्षसोंका एक राजा था । उसका पुत्र सुकेशी गुणोंमें उससे भी बढ़कर था । उसपर प्रसन्न होकर शिवजीने उसे एक आकाशचारी नगर और शत्रुओंसे अजेय एवं अवध्य होनेका वर भी दिया । वह शंकरसे आकाशचारी श्रेष्ठ नगर पाकर राक्षसोंके साथ सदा धर्मपथपर रहते हुए विचरने लगा । एक समय मगधारण्यमें जाकर उस राक्षसराजने वहाँ ध्यान - परायण ऋषियोंके आश्रमोंको देखा । उस समय महर्षियोंको देखकर अभिवादन और प्रणाम किया । फिर एक जगह बैठकर उसने समस्त ऋषियोंसे कहा - ॥३ - ८॥
सुकेशि बोला - मैं आप लोगोंको आदेश नहीं दे रहा हूँ; बल्कि मेरे हदयमें एक संदेह है, उसे मैं आपसे पूछना चाहता हूँ । आप मुझको उसे बतलाइये । द्विजोत्तमो ! इस लोक और परलोकमेंझ कल्याणकारी क्या है ? मनुष्य सज्जनोंमें कैसे पूज्य होता है और उसे सुखकी प्राप्ति कैसे होती है ? ॥९ - १०॥
पुलस्त्यजी बोले - सुकेशीके इस प्रकारके वचनको सुनकर श्रेष्ठ ऋषियोंने विचारकर उससे इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी बातें कहीं ॥११॥
ऋषिगण बोले - वीर राक्षस - श्रेष्ठ ! इस लोक और परलोकमें जो अक्षय श्रेयस्कर वस्तु है, उसे हम तुमसे कहते हैं, उसे सुनो । निशाचर ! इस लोक और परलोकसें धर्म ही कल्याणकारी है । उसमें स्थित रहकर व्यक्ति सज्जनोंमें आदरणीय एवं सुखी होता है ॥१२ - १३॥
सुकेशि बोला - धर्मका लक्षण ( परिचय ) क्या है ? उसमें कौन - से आचरण एवं सत्कर्म होते हैं, जिनका आश्रय लेकर देवादि कभी दुःखी नहीं होते । आप उसका वर्णन करें ॥१४॥
ऋषियोंने कहा - सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, वेदज्ञान और विष्णुपूजामें रति - ये देवताओंके शाश्वत परम धर्म है । बाहुबल, ईर्ष्याभाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्रका ज्ञान और हर - भक्ति - ये दैत्योंके धर्म कहे गये हैं । श्रेष्ठ योगसाधन, वेदाध्ययन, ब्रह्मविज्ञान तथा विष्णु और शिव - इन दोनोंमें अचल भक्ति - ये सब सिद्धोंके धर्म कहे गये हैं । ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्यका ज्ञान तथा सरस्वतीके प्रति निश्चल भक्ति - ये गन्धर्वोंके धर्म कहे जाते हैं ॥१५ - १८॥
अद्भुत विद्याका धारण करना, विज्ञान, पुरुषार्थकी बुद्धि और भवानीके प्रति भक्ति - ये विद्याधरोंके धर्म हैं । गन्धर्वविद्याका ज्ञान, सूर्यके प्रति अटल भक्ति और सभी शिल्प - कलाओंमें कुशलता - ये किम्पुरुषोंके धर्म माने जाते हैं । ब्रह्मचर्य, अमानित्व ( अभिमानसे बचना ) योगाभ्यासमें दृढ प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमणये पितरोंके धर्म कहलाते हैं । राक्षस ! ब्रह्मचर्य, नियताहार, जप, आत्मज्ञान और नियमानुसार धर्मज्ञान - ये ऋषियोंके धर्म कहे जाते हैं । स्वाधाय, ब्रह्मचर्य, दान यज्ञ, उदारता विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेन्द्रियता, शौच, माङ्गल्य तथा विष्णु, शिव, सूर्य और दुर्गादेवीमें भक्ति - ये मानवोंके ( सामान्य ) धर्म हैं ॥१९ - २४॥
धनका स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिवजीका पूजा, अहंकार और सौम्यता - ये गुह्योंके धर्म हैम परस्त्रीगमन, दूसरेके दनमें लोलुपता, वेदाध्ययन और शिवभक्ति - ये राक्षसोंके धर्म कहे गये हैं । अविवेक, अज्ञान, अपवित्रता, असत्यता एवं सदा मांस - भक्षणकी प्रवृत्ति ये राक्षसोंके धर्म कहे गये हैं । अविवेक, अज्ञन, अपवित्रता, असत्यता एवं सदा मांस - भक्षणकी प्रवृत्ति - ये पिशाचोंके धर्म हैं । राक्षस ! ये ही बारह योनियाँ हैं । पितामह ब्रह्माने उनके ये बारह गति देने वाल धर्म कहे हैं ॥२५ - २८॥
सुकेशिने कहा - आप लोगोंने जो शाश्वत एवं अव्यय बारह धर्म बताये हैं, उनमें मनुष्योंके धर्मोंको एक बार पुनः कहनेकी कृपा करें ॥२९॥
ऋषियोंने कहा - निशाचर ! पृथ्वीके सात द्वीपोंमें निवास करनेवाले मनुष्य आदिके धर्मोंको सुनो । यह पृथ्वी पचास करोड़ योजन विस्तारवाली है और यह नदीमें नावके समान जलपर स्थित है । सज्जनश्रेष्ठ ! उसके ऊपर देवेश ब्रह्माने कर्णिकाके आकारवाले अत्यन्त ऊँचे सुमेरुगिरिको स्थापित किया है । फिर उसपर ब्रह्माने चारों दिशाओंमें पवित्र प्रजाका निर्माण किया और द्वीपनामवाले अनेक स्थानोंकी भी रचना की है ॥३० - ३३॥
उनके मध्यमें उन्होंने जम्बूद्वीपकी रचना की । इसका प्रमाण एक लक्ष योजनका कहा जाता है । उसके बाहर दुगुना परिमाणमें लवण - समुद्र है तथा उसके बाद उसका दुगुना प्लक्षद्वीप है । उसके बाहर दुगुने प्रमाणवाला बलयाकार इक्षुरस - सागर है । इस महोदधिका दुगुना शाल्मलिद्वीप है । उसके बाहर उससे दुगुना सुरासागर है तथा उससे दुगुना कुशद्वीप है । कुशद्वीपसे दुगुना घृतसागर है ॥३४ - ३७॥
निशाचर ! घृतसागरसे दुगुना क्रौंचद्वीप कहा गया है तथा उससे दुगुना दधिसमुद्र है । दधिसागरसे दुगुना शाकद्वीप है और शाकद्वीपसे द्विगुण उत्तम क्षीरसागर है जिसमें शेषशय्यापर सोये श्रीहरि स्थित हैं । ये सभी परस्पर एक - दूसरेसे द्विगुण प्रमाणमें स्थित हैं । राक्षसेन्द्र ! जम्बूद्वीपसे लेकर क्षीरसागरके अन्ततकका विस्तार चालीस करोड़ नब्वे लाख पाँच योजन है ॥३८ - ४०॥
राक्षस ! उसके बाद पुष्करद्वीप एवं तदनन्तर स्वादु जलका समुद्र है । पुष्करद्वीपका परिमाण चार करोड़ बावन लाख योजन हैं । उसके चारों ओर उतने ही परिमाणका समुद्र है । उसके चारों ओर लाख योजनका अण्डकटाह है । इस प्रकार वे सातों द्वीप भिन्न धर्मो और क्रियावाले हैं । निशाचर ! हम उनका वर्णन करते हैं । तुम उसे सुनो । वीर ! प्लक्षसे शाकतकके द्वीपोंमें जो सनातन ( नित्य ) पुरुष निवास करते हैं, उनमें किसी प्रकारकी युग - व्यवस्था नहीं है । महाबाहो ! वे देवताओंके समान सुखभोग करते हैं । उनका धर्म दिव्य कहा जाता है । कल्पके अन्तमें उनका प्रलयमात्र होना वर्णित है । पुष्करद्वीप देखनेमें भयंकर है । वहाँके निवासी पैशाच - धर्मोंका पालन करते हैं । कर्मके अन्तमें उनका नाश होता है ॥४१ - ४६॥
सुकेशिने कहा - आप लोगोंने पुष्करद्वीपको भयंकर, पवित्रता - रहित, घोर एवं कर्मके अन्तमें नाश करनेवाला क्यों बतलाया ? कृपाकर यह बात हमें समझायें ॥४७॥
ऋषियोंने कहा - निशाचर ! उस द्वीपमें रौरव आदि भयानक नरक हैं । इसीसे पुष्करद्वीप देखनेमें बड़ा भयंकर है ॥४८॥
सुकेशिने पूछा - तपस्विगण ! वे रौद्र नरक कितने हैं ? उनका मार्ग कितना है ? उनका स्वरुप कैसा है ? ॥४९॥
ऋषियोंने कहा - राक्षसश्रेष्ठ ! उन समस्त रौरव आदि नरकोंका लक्षण और प्रमाण सुनो, जिन ( मुख्य नरकों ) - की संख्या इक्कीस है । उनमें प्रथम रौरव नरक कहा जाता है । वह दो हजार योजन विस्तृत एवं प्रज्वलित अङ्गारमय है । उससे भूमि जलते हुए ताँबेसे बनी है, जो नीचेसे अग्निद्वारा तापित होती रहती है । उससे द्विगुणित विस्तृत तीसरा तामिस्त्र नामक नरक कहा जाता है । उससे द्विगुणित अन्धतामिस्त्र नामक चतुर्थं नरक है । उसके बाद पञ्चम नरकको कालचक्र कहते हैं । अप्रतिष्ठ नामक नरक षष्ठ और घटीयन्त्र सप्तम है ॥५० - ५४॥
नरकोंमें श्रेष्ठ असिपत्रवन नामक आठवाँ नरक बहत्तर हजार योजन विस्तृत कहा जाता है । नवाँ तप्तकुम्भ, दसवाँ कूटशाल्मलि, ग्यारहवाँ करपत्र और बारहवाँ नरक श्वानभोजन है । उसके बाद क्रमशः संदंश, लोहपिण्ड, करम्भसिकता, भयंकर क्षार नदी, कृमिभोजन और अठारहवेंको घोर वैतरणी नदी कहा जाता है । उनके अतिरिक्त शोणित - पूयभोजन, क्षुराग्रधार, निशितचक्रक तथा संशोषण नामक अन्तरहित नरक हैं । सुकेशिन् ! हम लोगोंने तुमसे इन नरकोंका वर्णन कर दिया ॥५५ - ५८॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥११॥