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अध्याय ८३

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८३

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - प्रह्लादने उस उत्तम तीर्थमें स्त्रान कर त्रिनयन महादेवका दर्शन किया और सुवर्णाक्षकी पूजाकर वे नैमिषारण्य चले गये । वहाँ गोमती, काञ्चनाक्षी और गुरुदाके मध्यमें पाप - नाश करनेवाले तीस हजार तीर्थ हैं । उनमें स्त्रानकर उन्होंने पीताम्बर धारण करनेवाले देवेश्वर अच्युतकी पूजा की । नैमिषारण्यमें रहनेवाले ऋषियोंकी पूजा करनेके पश्चात् देवाधिदेव महेशका विधिपूर्वक पूजन कर वे महासुर गोपतिका दर्शन करनेके लिये गयातीर्थमें चले गये ॥१ - ४॥

वहाँ ब्रह्मध्वजमें स्त्रान और उसकी प्रदक्षिणा कर उन्होंने पितरोंके निमित्त पवित्र पिण्डदान किया । ( फिर ) उदपानमें स्त्रानकर जितेन्द्रिय ( प्रह्लाद ) - ने पितरों, गदापाणि ( विष्णु ) एवं गोपति शंकरकी पूजा की । इन्द्रतीर्थमें ( भी ) स्त्रानकर उन्होंने पितरों एवं देवोंका तर्पण किया तथा महानदीके जलमें स्त्रानकर वे सरयूके समीप पहुँचे । उसमें स्त्रानकर उन्होंने गोप्रतारमें कुशेशयकी पूजा की एवं वहाँ एकि रात्रि निवास कर वे विरजा नगरीमें गये ॥५ - ८॥

विरजातीर्थमें स्त्रान करनेके बाद पितरोंको पिण्डदान कर वे श्रीमान् पुरुषोत्तम अजितका दर्शन करने चले गये । वे निष्पाप प्रह्लाद अविनाशी पुण्डरीकाक्षका दर्शन करनेके पश्चात् छः रातोंतक वहाँ निवासकर दक्षिण दिशामें स्थित महेन्द्र पर्वतपर चले गये । ( वे ) वहाँ देवश्रेष्ठ अर्धनारीश्वर महादेवका दर्शन तथा पूजनकर पितरोंकी अर्चना करके उत्तर दिशाकी ओर चले गये । वहाँ देववर शम्भु और सोमपायी गोपालका दर्शन करनेके पश्चात् सोमतीर्थमें स्त्रानकर वे सह्याचलपर गये ॥९ - १२॥

वहाँ महोदकीमें स्त्रान करनेके बाद श्रद्धापूर्वक विष्णु, देवताओं एवं पितरोंका पूजन कर वे पारियात्र पर्वतपर चले गये । वहाँ लाङ्गलिनीमें स्त्रान करनेके बाद उन्होंने अपराजितका पूजन किया और कशेरुदेशमें जाकर विश्वरुपका दर्शन किया । वहाँ योगवित् देववर शम्भुने गणोंसे पूजित अपना विश्वरुप प्रकट किया था; वहाँ मड्कुणिकाके जलमें स्त्रान करनेके बाद महेश्वरका पूजनकर प्रह्लाद सुगन्धियुक्त मलय पर्वतपर गये ॥१३ - १६॥

उसके बाद महाह्मदमें स्त्रान करनेके पश्चात् शंकरकी पूजाकर योगात्मा प्रह्लाद सदाशिवका दर्शन करनेके लिये विन्ध्यपर्वतपर गये । उसके बाद विपाशाके जलमें उन्होंने स्त्रान किया और सदाशिवका पूजन किया । उसके पश्चात् तीन रातोंतक वहाँ निवास करके वे अवन्ती नगरीमें गये । वहाँ शिप्राके जलमें स्त्रान करनेके बाद श्रद्धापूर्वक विष्णुका पूजनकर उन्होंने श्मशानमें स्थित महाकालशरीरधारीका दर्शन किया । वहाँ उस रुपमें स्थित आत्मवशी शंकर तामसरुप धारण करके समस्त प्राणियोंका संहार करते हैं ॥१७ - २०॥

वहाँपर स्थित हुए सुरेशने सर्वभूतापहारी ( समस्त भूतोंका अपहरण करनेवाले ) अन्तकको जलाकर श्वेतकि नामक राजाकी रक्षा की थी । करोड़ों गणोंसे घिरे हुए एवं देवोंसे पूजित भगवान् शंकर उमाके साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहाँ नित्य निवास करते हैं । उन कालोंके काल, अन्तकोंके अन्तक, यमोंके नियामक, मृत्युके मृत्यु, चित्रविचित्र श्मशानके वासी, भूतपति, जगत्पति, शूल धारण करनेवाले शंकरका दर्शन एवं पूजनकर वे निषधदेशकी ओर चले गये ॥२१ - २४॥

वहाँ श्रद्धापूर्वक अमरेश्वर देवका दर्शन एवं अर्चन करनेके बाद उन्होंने महोदयमें जाकर हयग्रीवका दर्शन किया । उसके बाद अश्वतीर्थमें स्त्रान कर अश्वमुखका दर्शन तथा श्रीधरका अर्चन कर वे पाञ्चाल देशमें गये । जितेन्द्रिय प्रह्लाद वहाँ ईश्वरीय गुणोंसे सम्पन्न धनपति कुबेरके पुत्र पाञ्चालिकका दर्शनकर प्रयाग चले गये । निकटमें रहनेवाले यमुनाके विख्यात तीर्थमें स्त्रान करनेके पश्चात् वटेश्वर रुद्र तथा योगशायी माधवका दर्शन एवं श्रद्धापूर्वक उन दोनों पूजनीयोंका अर्चन कर उन महासुरने माघमासमें वहाँ निवास किया । उसके बाद वे वाराणसी चले गये ॥२५ - २९॥

उसके बाद समस्त पापोंका अपहरण करनेवाले असी और वरुणाके विभिन्न तीर्थोंमें स्त्रानके बाद पितरों एवं देवोंका अर्चनकर उन्होंने ( वाराणसी ) पुरीकी प्रदक्षिणा की । उसके बाद अविमुक्तेश्वर एवं केशवकी पूजा तथा लोलार्कका दर्शन करके वे मधुवन चले गये । महातेजस्वी असुरोत्तम प्रह्लाद वहाँ स्वयम्भू देवका दर्शन एवं पूजनकर पुष्कारारण्यमें गये । उन तीनों तीर्थोंमें स्त्रान करनेके बाद पितरों एवं देवोका पूजन कर उन्होंने अयोगएन्धि, पुष्कराक्ष तथा ब्रह्माका अर्चन किया । उसके बाद उन्होंने कोटितीर्थमें सरस्वतीके तटपर स्थित लोकविख्यात रुद्रकोटि वृषभध्वजका दर्शन किया ॥३० - ३४॥

( कथा है कि प्राचीन समयमें ) नैमिषारण्य, मगध, सिन्धुप्रदेश, धर्मारण्य, पुष्कर, दण्डकारण्य, चम्पा, भरुकच्छ एवं देविकाके तटपर रहनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ शंकरका दर्शन करने आये थे । मुने ! शिवके दर्शनकी इच्छावाले करोड़ों सिद्ध तपस्वी ‘ मैं पहले दर्शन करुँगा ’, ‘ मैं पहले दर्शन करुँगा ’ इस प्रकारका विवाद करने लगे । उन निष्पाप महर्षियोंको विशेष अधीर हुआ देखकर शंकरने उनपर कृपाकर करोड़ों मूर्तियाँ धारण कर लीं ॥३५ - ३८॥

उसके बाद वे सभी मुनि हर्षपूर्वक अलग - अलग तीर्थ बनाकर महेश्वरकी पूजा करते हुए निवास करने लगे । इस प्रकार शम्भुका नाम रुद्रकोटि हुआ । महातेजस्वी श्रद्धालु जितेन्द्रिय प्रह्लादने उनका दर्शन किया एवं कोटीर्तीर्थमें स्त्रानकर वसुओं तथा पितरोंका तर्पण किया । उसके बाद रुद्रकोटिका अर्चनकर वे कुरुजाङ्गलमें चले गये । उन्होंने वहाँ सरस्वतीके जलमें निमग्न हुए देवताओंसे पूजित स्थाणु - पार्वतीपति भगवान् शंकरका दर्शन किया । सरस्वतीके जलमें स्त्रानकर उन्होंने श्रद्धापूर्वक स्थाणुकी पूजा की तथा दशाश्वमेधमें स्त्रानकर देवों एवं पितरोंका अर्चन किया ॥३९ - ४२॥

कन्याहदमें स्त्रान करनेके बाद पवित्र होकर उन्होंने सहस्रलिङ्गका अर्चन किया । इसके बाद ( शुक्रतीर्थमें ) गुरु शुक्राचार्यको प्रणामकर वे सोमतीर्थ चले गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद श्रद्धापूर्वक पितरों एवं सोमका अर्चन करके उन महायशस्वीने क्षीरिकावासमें जाकर स्त्रान किया । वहाँके वृक्षकी प्रदक्षिणाकर तथा वरुणकी पूजा करनेके पश्चात् बुद्धिमान् प्रह्लाद फिर कुरुध्वजका दर्शनकर पद्मा नामकी नगरीमें चले गये । वहाँ लोकपूजित तेजस्वी मित्रावरुणका पूजन करनेके बाद कुमारधारामें जाकर जितेन्द्रिय प्रह्लादने स्वामी कार्तिकेयका दर्शन किया । कपिलधारामें स्त्रान करके पितृतर्पण, देवपूजन एवं स्कन्दका दर्शन तथा अर्चन कर वे नर्मदाके निकट गये । उसमें स्त्रान करके लक्ष्मीपति वासुदेवकी अर्चना कर वे चक्र धारण करनेवाले भूधर वाराहदेवका दर्शन करने गये ॥४३ - ४८॥

वे कोकामुख तीर्थमें स्त्रान और धरणीधरकी पूजा करके अर्बुदेशमें त्रिसौवर्ण महादेवके पास गये । वहाँ उन्होंने नारीहदमें स्त्रान और शंकरकी अर्चना करनेके बाद कालिंजरमें आकर नीलकण्ठका दर्शन किया । नीलतीर्थके जलमें स्त्रान करनेके बाद शिवका पूजन कर वे समुद्रके तटपर प्रभासतीर्थमें भगवानका दर्शन करने गये । वहाँ उन्होंने सरस्वती नदी और सागरके संगममें स्त्रानकर लोकपति कपर्दी सोमेश्वरका दर्शन किया । कपर्दी शंकर एवं विष्णुने दक्षके शापसे दग्ध हुए एवं क्षयरोगसे ग्रसित ताराधिप चन्द्रमाको पूर्ण किया था ॥४९ - ५३॥

उन दोनों श्रेष्ठ देवोंका पूजनकर वे महालय गये; वहाँ रुद्रका पूजन कर वे उत्तरकुरु गये । वहाँ पद्मनाभका अर्चन कर वे सप्तगोदावर - तीर्थमें गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद उन्होंने तीनों लोकोंसे वन्दित भीमविश्वेश्वरका पूजन किया । दारुवनमें जाकर श्रीमान् प्रह्लादने लिङ्गका दर्शन किया । उनकी पूजा करनेके पश्चात् ब्राह्मणी ( नदी ) - में जाकर उन्होंने स्त्रान और त्रिदशेश्वर महादेवकी अर्चना की । उसके बाद प्लक्षावतरणमें जाकर उन्होंने श्रीनिवासकी अर्चना की । फिर कुण्डिनमें जाकर प्राणोंके तृप्तिदाता देवका अर्चन किया । उन्होंने शूर्पारकमें चतुर्भुज देवकी भलीभाँति पूजा करनेके बाद मागधारण्यमें जाकर वसुधाधिपका दर्शन किया । उन विश्वेशका पूजन कर वे प्रजामुखमें गये । उसके बाद उन्होंने महातीर्थमें स्त्रानकर वासुदेवको प्रणाम किया । उन्होंने शोणतटपर जाकर स्वर्णकवच धारण करनेवाले ईश्वरका पूजन किया । उसके बाद श्रद्धालु ( प्रह्लाद ) - ने महाकोशीमें हंस नामक महादेवका अर्चन किया एवं श्रेष्ठ सैन्धवारण्यमें जाकर शङ्ख तथा शूल धारण करनेवाले सुनेत्र नामक पूज्य ईश्वरका पूजन किया । उसके बाद वे महाबाहु त्रिविष्टप चले गये ॥५४ - ६१॥

वहाँ जटाधर नामसे प्रसिद्ध महेशान देवका दर्शन और विष्णुकी पूजा कर वे कनखल तीर्थमें गये । दानव प्रह्लाद वहाँ भद्रकालीश और वीरभद्र तथा धनाधिप मेघाड्ककी पूजा कर गिरिव्रज चले गये । वहाँ लोकनाथ महेश्वर पशुपति देवका विधिवत् अर्चन कर वे कामरुप चले गये । वहाँ चन्द्रकी कान्तिसे युक्त देवश्रेष्ठ त्रिनेत्र शंकरकी मृडानी ( पार्वती ) - के साथ विधिवत् अर्चना कर प्रह्लाद श्रेष्ठ महाख्य तीर्थमें गये और वहाँपर ( भी ) उन्होंने महादेवकी अर्चना की ॥६२ - ६५॥

उसके बाद वे अत्रिपुत्र चक्रपाणि विष्णुका दर्शन करनेके लिये त्रिकूट पर्वतपर चले गये और श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा कर उन्होंने परम पवित्र जपनेयोग्य गजेन्द्रमोक्षणस्तवका पाठ किया । मूल, फल एवं जलका भक्षण करते हुए दैत्येश्वर - पुत्र प्रह्लादने वहाँ तीन मासतक श्रद्धापूर्वक निवास किया । उसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सुवर्ण दान कर वे घोर दण्डकवन चले गये । वहाँ उन्होंने महान् हिंस्त्र पशुओंके निवारक, महान् शाखाओंसे युक्त वनस्पतिका शरीर धारण करनेवाले पुण्डरीकाक्षका दर्शन किया । सारस्वतस्तोत्रका पाठ करते हुए महान् विष्णुभक्त असुर प्रह्लादने तीन रातोंतक उसके नीचे बिना विस्तरके चबूतरेपर शयन किया ॥६६ - ६९॥

विद्वान् दानव ( प्रह्लादजी ) वहाँसे सर्वपापहारी हरिका दर्शन करनेके लिये सर्वपापनाशक श्रेष्ठ तीर्थमें चले गये । उन्होंने उनके सामने प्राचीन कालमें क्रोडरुपी जनार्दनसे कथित पापनाश करनेवाले दो स्तोत्रोंका पाठ किया । उसके बाद वे वहाँसे दैत्येन्द्र ( प्रह्लाद ) महाफलदायक शालग्रामतीर्थमें गये । वहाँ विष्णु समस्त चर और स्थावर पदार्थोंमें विराजमान हैं । ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) मुने ! वहाँ महान् विष्णुभक्त बलवान् प्रह्लाद विष्णुको सर्वव्यापी जानकर भगवानके चरणोंकी पूजा करते हुए उन ( - की भक्ति ) - में परायण हो गये । मैंने तुमसे मुनियोंके समूहोंसे सेवित अत्यन्त पवित्र प्रह्लादकी तीर्थयात्राका वर्णन कर दिया, जिसके कीर्तन, श्रवण एवं स्पर्शसे मनुष्य निष्पाप हो जाते हैं ॥७० - ७४॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तिरासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८३॥

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Last Updated : January 24, 2012

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