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अध्याय ७०

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७०

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - उस समय दैत्यसेनाके हार जानेपर शुक्रने असुरोंके स्वामी अन्धकसे कहा - वीर महासुर ! इस समय घर चलो । फिर पर्वतपर आकर शंकरसे युद्ध करेंगे । अन्धकने उनसे कहा - ब्रह्मन् ! आपने उचित बात नहीं कही । अपने कुलको कलंकित करते हुए मैं युद्धसे नहीं भानूँगा । द्विजश्रेष्ठ ! मेरा अत्यन्त प्रबल पराक्रम तो देखिये । मैं ( उस पराक्रमसे ) इन्द्र और महेश्वरके सहित सबी देवों और दानवों तथा गन्धर्वोंको जीत लूँगा । ऐसा वचन कहकर हिरण्याक्षपुत्र अन्धकने शम्भु ( नामक ) सारथिसे मीठी वाणीमें अच्छी तरह आश्वस्त करते हुए कहा - ॥१ - ४॥

महाबलशाली सारथे ! तुम रथको महादेवके ( आमने ) सामने ले चलो । मैं बाणोंकी वर्षासे प्रमथों एवं देवोंकी सेनाको मार भगाऊँगा । मुने ! अन्धकके वचनको सुनकर सारथिने ( अपने रथके ) काले रंगके तीव्रगामी घोड़ोंको कोड़ेसे मारा । शंकरकी ओर चेष्टापूर्वक चलाये जाते हुए भी वे घोड़े जाँघोंमें कष्टका अनुभव करते हुए कठिनाईसे उस रथको खींच रहे थे । दैत्यको ढोनेवाले वे घोड़े वायुके वेगके समान होनेपर भी एक वर्षसे भी अधिक समयमें प्रमथोंकी सेनामें पहुँच सके ॥५ - ८॥

उसके बाद ( अन्धकने ) धनुषको झुकाकर बाणसमूहोंसे गणेश्वरों एवं इन्द्र, विष्णु और महेश्वरके साथ सभी देवोंको ढक दिया । ( पूरी ) सेनाको बाणोंसे ढकी देखकर तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले चक्रपाणि भगवान् जनार्दनने देवोंसे कहा - ॥९ - १०॥

विष्णुने कहा - सुरश्रेष्ठो ! आप लोग व्यर्थमें क्यों बैठे हैं ? इसके मारे जानेसे ही विजय होगी । इसलिये विजयकी अभिलाषा रखकर आप लोग शीघ्र मेरे कहनेके अनुसार कार्य करें । ( पहले ) रथके सारथिके साथ इस ( अन्धक ) - के घोड़ोंको मार डालें एवं रथको तोड़कर शत्रुको बिना रथका कर दें । बिना रथका करनेके बाद तो शंकर इसे भस्म कर देंगे । देवो ! देवताओंके आचार्य बृहस्पतिने कहा है कि शत्रुकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । भगवान् वासुदेवके ऐसा कहनेपर इन्द्र एवं विष्णुसहित प्रमथों तथा देवोंने शीघ्रतासे चढ़ाई कर दी ॥११ - १४॥

जनार्दन ( विष्णु ) - ने क्षणामात्रमें ही अपनी ( कौमोदकी ) गदासे बादल - जैसे काले रंगवाले हजारों घोड़ोंको मार डाला । स्कन्दने मारे गये घोड़ोंवाले रथसे सारथिको खींचकर शक्तिसे उसके हदयको विदीर्ण कर दिया और प्राणहीन हो जानेपर उसे पृथ्वीपर फेंक दिया । इन्द्र आदि देवताओंके साथ तपोधन विनायक प्रभृति प्रमथोंने शीघ्र ध्वजा और पहिये तथा धुरेके साथ रथको तोड़ डाला । ( जब ) महातेजस्वी पराक्रमी ( अन्धक ) - ने बिना रथके हो जानेपर धनुषको छोड़ दिया और गदा लेकर वह देवताओंकी ओर दौड़ पड़ा ॥१५ - १८॥

तब दैत्येन्द्रने आठ पग चलकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें महादेवसे अपना अभीष्ट वचन कहा - भिक्षुक ! यद्यापि इस समय तुम सेनावाले हो और मैं असहाय हूँ, फिर भी मैं तुमको जीत लूँगा । आज मेरी शक्ति देखो । उसका वचन सुनकर शंकरने इन्द्र और ब्रह्माके साथ सभी देवताओंको अपने शरीरमें निवेशित कर लिया - छिपा लिया । उन प्रमथों एवं देवोंको अपने शरीरमें छिपानेके बाद शंकरने कहा - दुष्टात्मन् ! आओ, आओ ! मैं अकेला रहनेपर भी ( तुमसे लड़नेके लिये ) खड़ा हूँ ॥१९ - २२॥

समस्त देवगणोंसे संहार किये जाते उस महान् आश्चर्यको देखकर वह दैत्य गदा लेकर शीघ्रतासे शंकरके पास चला गया । भगवान् शूलपाणि उसे आते देख अपने श्रेष्ठ वृषभ ( नन्दी ) - को छोड़कर पर्वतपर पैरोंके बल खड़े हो गये । भैरवने तीनों लोकोंकी डरा देनवाला अत्यन्त भयानक रुप धारण करके तेजीसे आ रहे उस ( अन्धक ) - का हदय विदीर्ण कर दिया । ( उस समय शंकरका रुप ) भयानक दाढ़ोंवाले करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान, बाघम्बर पहने, जटासे सुशोभित, सर्पके हारसे अलंकृत ग्रीवावाला तथा दस भुजा और तीन नयनोंसे युक्त था ॥२३ - २६॥

ऐसे लक्षणोंसे संयुक्त मङ्गदाता, शाश्वत, भूतभावन भगवान् शिवने शूलसे शत्रुको विदीर्ण कर दिया । महामुने ! हदयके विदीर्ण हो जानेपर भी दानव शूलके साथ भैरवको पकड़कर एक कोसतक उन्हें खींच ले गया । तब भगवानने किसी प्रकार अपनेसे अपनेको रोककर गदा लिये हुए शत्रुको अपने शूलसे तुरंत मारा । दैत्योंके स्वामी ( अन्धक ) - ने भी शंकरके सिरपर गदाका वार किया और शूलको दोनों हाथोंसे पकड़कर ऊपर उछल गया ॥२७ - ३०॥

सबके आधारस्वरुप महायोगी वे प्रजापति शंकरजी खड़े रहे; परंतु इसके बाद गदाके आघातसे हुए चोटसे ( चारों दिशाकी ) चार धाराओंमें बहुत अधिक रक्त प्रवाहित होने लग गया । पूर्व दिशाकी धारासे अग्निके समान प्रभावाले, कमलकी मालासे सुशोभित ‘ विद्याराज ’ नामसे प्रसिद्ध भैरव उत्पन्न हुए । दक्षिण दिशाकी धारासे प्रेतसे मण्डित काले अञ्जनके समान प्रभावाले ‘ कालराज ’ नामसे प्रसिद्ध भैरव उत्पन्न हुए । उसके बाद पश्चिम दिशाकी धारासे अलसीके फूलके समान पत्रसे शोभित ‘ कामराज ’ नामसे विख्यात भैरव उत्पन्न हुए ॥३१ - ३४॥

उत्तर दिशाकी धारासे चक्रमालासे सुशोभित ( एवं ) शूल लिये ‘ सोमराज ’ नामसे प्रसिद्ध अन्य भैरव उत्पन्न हुए । घावके रक्तसे इन्द्रधनुषके समान चमकवाले ( एवं ) शूल लिये ‘ स्वच्छन्दराज ’ नामसे विख्यात भैरव उत्पन्न हुए । पृथ्वीपर गिरे हुए रक्तसे सौभाञ्जन ( सहिजन ) - के समान ( एवं ) शूल लिये शोभायुक्त ‘ ललितराज ’ नामसे विख्यात भैरव उत्पन्न हुए । मुने ! इस प्रकार इन भैरवका सात रुप कहा जाता है । ‘ विघ्नराज ’ आठवें भैरव हैं । इन्हें भैरवाष्टक ( आठों भैरव ) कहा जाता है ॥३५ - ३८॥

[ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] ब्रह्मन् ! इस प्रकार त्रिशूल धारण करनेवाले महात्मा भैरवने शूलसे विद्ध हुए महासुर दैत्यको छातेकी भाँति ऊपर उठा लिया । ब्रह्मन् ! शूलसे विद्ध होनेके कारण उसका बहुत अधिक रक्त गिरा । उससे सात मूर्तिवाले महादेव गलेतक लहू - लुहान हो गये । परिश्रम करनेके कारण शंकरके पूरे ललाटपर बहुत अधिक पसीना आ गया । उससे खूनसे लथपथ एक कन्या उत्पन्न हुई । विप्र ! शिवके मुखसे भूमिपर गिरे पसीनोंकी बूँदोंसे अंगारे - जैसी कान्तिवाला एक बालक उत्पन्न हुआ ॥३९ - ४२॥

अत्यन्त प्यासा वह बालक अन्धकका रक्त पीने लगा और अद्भुत कन्या भी काटकर उत्पन्न हुए रक्तको चाटने लगी । उसके बाद भैरवका रुप धारण करनेवाले वरदानी शंकरने प्रातः कालके सूर्यके समान कान्तिवाली उस कन्यासे जगत् - कल्याणकारी महान् वचन कहा - शुभकारिणि ! देवता, ऋषि, पितर, सर्पादि, यक्ष, विद्याक्षर एवं मानव तुम्हारी पूजा करेंगे । देवि ! ( वे लोग ) बलि एवं पुष्पाञ्जलिसे तुम्हारी स्तुति करेंगे । यतः तुम रक्तसे चर्चित ( लथपथ ) हो, अतः तुम्हारा शुभ नाम ‘ चर्चिका ’ होगा ॥४३ - ४६॥

वरदानी शंकरके ऐसा कहनेपर व्याघ्रचर्मको वस्त्ररुपमें धारण करनेवाली और सब भूतोंके बाद उत्पन्न हुई सुन्दरी चर्चिका पृथ्वीपर चारों ओर विचरती हुई इंगुरके रंगवाले उत्तम पर्वतपर चली गयी । उसके ( वहाँ ) चले जानेपर वरदानी शंकरने कुज ( मंगल ) - को सर्वश्रेष्ठ वर दिया । ( उन्होंने कहा - ) महात्मन् ! तुम ग्रहोंके स्वामी बनोगे तथा संसारका शुभ और अशुभ तुम्हारे अधीन होगा । उन भैरव - रुपधारी भगवान् शिवने अपने अग्नि और सूर्यरुपी नेत्रोंस्से एक हजार दिव्य वर्षोंतक अन्धकके शरीरको सुखाकर रक्तरहित कर हड्डी तथा चाम शेष रखकर कंकाल बना दिया । शंकरके नेत्रसे उत्पन्न अग्निद्वारा शुद्ध होनेके कारण वह असुरराज पापसे छूट गया । उसके बाद अनेक रुप धारण करके प्रजाओंका नियमन करनेवाले, समस्त चर और अचरके स्वामी, सर्वेश्वर, अविनाशी ईश, त्रैलोक्यपति, वरदानी, वरेण्य, सभी सुरादिकोंद्वारा विनयपूर्वक स्तुति करनेयोग्य एवं सबके आदिमें रहानेवाले शंकरको वास्तवरुपमें जानकर अन्धकने यह स्तुति की - ॥४७ - ५१॥

अन्धकने कहा - हे विशालकाय भैरव ! हे त्रिलोककी रक्षा करनेवाले ! हे तीक्ष्ण शूल धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है । हे दस भुजाओंवाले तथा नागेशका हार धारण करनेवाले त्रिनेत्र ! आप मुझ नष्टमतिकी रक्षा करें । हे देवों तथा असुरोंसे वन्दित पादपीठवाले विश्वमूर्ति सर्वेश्वर ! आपकी जय हो । हे त्रिलोकजननीके स्वामी वृषाङ्क ! मैं भयभीत होकर आप शरणागतकी रक्षा करनेवालेकी शरणमें आया हूँ । हे नाथ ! देवता आपको शिव ( मङ्गलमय ) कहते हैं । सिद्धलोग आपको हर ( पापहारी ), महर्षिलोग स्थाणु ( अचल ), यक्षलोग भीम, मनुष्य महेश्वर और भूत भूताधिपति मानते हैं । निशाचर उग्र नामसे आपकी अर्चना करते हैं तथा पुण्यात्मा पितृगण भव नामसे आपको नमस्कार करते हैं । हे हर ! मैं आपका दास हूँ, आप मेरी रक्षा करें । हे लोकनाथ ! मेरे पापोंका आप विनाश कीजिये ॥५२ - ५५॥

हे सर्वसमर्थ त्रिनेत्र ! आप त्रिदेव, त्रियुग, त्रिधर्मा तथा त्रिपुष्कर हैं । हे अव्ययात्मन् ! आप त्रय्यारुणि तथा त्रिश्रुति हैं । आप मुझे पवित्र करें । मैं आपकी शरणमें आया हूँ । आप त्रिणाचिकेत, त्रिपदप्रतिष्ठ ( स्वर्ग, मर्त्य, पातालरुप तीनों पदोंपर प्रतिष्ठित ) षडङ्गवित् ( वेदके शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष - इन छः अङ्गोंके जाननेवाले ), विषयोंके प्रति अनासक्त तथा तीनों लोकोंके स्वामी हैं । हे शम्भो ! आप मुझे पवित्र करें । मैं आपका दास हूँ । भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ । हे शंकर ! हे महाभूतपते ! हे गिरीश ! कामरुपी शत्रुने मेरे मनको जीत लिया था, इसलिये मैंने आपका महान् अपराध किया है । मैं आपको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मैं पापी, पापकर्मा, पापात्मा तथा पापसे उत्पन्न हूँ । हे देव ईशान ! हे समस्त पापोंको हरण करनेवाले महादेव ! आप मेरी रक्षा कीजिये ॥५६ - ५९॥

देवेश ! आप मेरे ऊपर कुपिन न हों । आपने ही मुझे इस प्रकारके पापका आचरण करनेवाला बनाया है । ईश्वर ! मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । आप सृष्टि तथा पालन - पोषण करनेवाले हैं । आप ही जय और आप ही महाजय हैं । आप मङ्गलमय हैं । आप ओंकार हैं । आप ही ईशान, अव्यय तथा ध्रुव हैं । आप सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा तथा ( सब कुछ करनेमें ) समर्थ हैं । आप विष्णु और महेश्वर हैं । आप इन्द्र हैं, आप वषट्कार हैं, आप धर्म तथा देवोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं । आप ( कठिनतासे देखे जाने योग्य ) सूक्ष्म हैं, आप ( प्रतीतिका विषय होनेसे ) व्यक्तरुप हैं, आप अप्रकटराहस्य - अव्यक्त हैं, आप ईश्वर हैं, आपसे ही यह चर - अचर जगत् व्याप्त ( ओतप्रोत या ढका ) है । आप आदि, मध्य एवं अन्त हैं, ( साथ ही ) आप आदिरहित एवं हजारों पैरोंवाले सहस्त्रपात् हैं । आप विजय हैं । आप हजारों आँखोंवाले, विरुप आँखवाले एवं बड़ी भुजावाले हैं । आप अन्तसे रहित, सर्वगत, व्यापी, हंस, प्राणोंके स्वामी ( सदा स्वस्वरुपमें स्थित ) अच्युत, देवाधिदेव, शान्त, रुद्र, पशुपति एवं शिव हैं । आप तीनों वेदोंके जाननेवाले, क्रोधको जीत लेनेवाले, शत्रुओंको विजित करनेवाले, इन्द्रियजयी, जय एवं शूलपाणि हैं । आप मुझ शरणागतकी रक्षा करें ॥६० - ६६॥

पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मन् ! दैत्योंके स्वामी अन्धकके इस प्रकार स्तुति करनेपर लालिमा लिये भूरे रंगकी आँखवाले महेश्वरने प्रसन्न होकर हिरण्याक्षके पुत्र अन्धकसे कहा - दानवपति अन्धक ! तुम सिद्ध हो गये हो; मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ । अम्बिकाके सिवाय तुम जो चाहो, वह वर माँगो । तुम्हारा कल्याण हो ॥६७ - ६८॥

अन्धकने ( विनीत भावसे ) कहा - अम्बिका मेरी जाता और आप त्र्यम्बक मेरे पिता है । अम्बिका मेरी वन्दनीया हैं । मैं उन माताके चरणोंकी वन्दना करता हूँ । ईशान ! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो मेरे शरीरसम्बन्धी, मनसम्बन्धी एवं वचनसम्बन्धी पाप तथा नीच विचार नष्ट हो जायँ । महेश्वर ! मेरा दानवीय विचार भी दूर हो जाय एवं आपमें मेरी अटल भक्त हो जाय - मुझे यही वर दीजिये ॥६९ - ७१॥

भगवान् महादेवने कहा - दैत्येन्द्र ! ऐसा ही हो । तुम्हारे पाप नष्ट हो जायँ । तुम दानवीय विचारसे मुक्त हो गये । अब तुम भृङ्गी नामके गणपति हो गये । इस प्रकार कहकर वरदानी महादेवने उस अन्धकको शूलकी नोकसे उतारा और अपने हाथसे सहलाकर बिना घावका कर दिया । उसके बाद उन्होंने अपने शरीरमें स्थित ब्रह्मादि देवोंका आह्वान किया । वे सभी महान् देवगण त्र्यम्बक शिवको नमस्कार करते हुए बाहर निकले । नन्दीके साथ गणोंको बुलाकर और सामने बैठाकर भृङ्गीको दिखलाते हुए उन्होंने कहा - निश्चय ही यह अन्धक ( पहले - जैसा ) नहीं रह गया है ॥७२ - ७५॥

उस सूखे हुए मांसवाले शत्रु दानवपतिको गणाधिप हुआ देखकर वे सभी वृषध्वज ( शंकर ) - की प्रशंसा करने लगे । उसके बाद भगवान् शंकरने उन देवोंको गले लगाकर कहा - देवताओ ! आप लोग अपने - अपने स्थानको जाइये और स्वर्ग - सुखका उपभोग कीजिये । इन्द्र भी सुखद मलय - पर्वतपर जायँ तथा वहाँ अपना काम समाप्त करके ही स्वर्ग चाले जायँ । ऐसा कहकर देवोंसे वार्तालाप कर देवोंको विदा कर दिया । महेशने पितामहको नमस्कार तथा जनार्दनको गले लगाकर उन सभीको विदा कर दिया । ( महेशसे विदा किये गये ) वे देवगण स्वर्गको चले गये ॥७६ - ७९॥

महेन्द्र भी मलयाचलपर जा करके ( अपना ) कार्य सम्पन्नकर स्वर्ग चले गये । शिवने इन्द्र आदि देवोंके चले जानेपर गणोंको यथायोग्य सम्मानित कर विदा कर दिया । [ पुलस्त्यजी कहते हैं कि - ] नारदजी ! गण भी शंकरका दर्शन कर अपने वाहनोंपर आरुढ़ हो विशाल भोगसे सम्पन्न उन सुखद लोकोंको चले गये, जहाँकी गौएँ इच्छित वस्तु प्रदान करनेवाली थीं, वृक्ष समस्त कर्मरुपी फलोंके दाता थे, नदियाँ अमृतकी धारा बहानेवाली थीं और सरोवर दूधके पङ्कसे भरे थे । महेश्वर प्रमथोंके अपने - अपने स्थानपर चले जानेपर अन्धकका हाथ पकड़कर ( उसे साथ लिये हुए ) नन्दीसहित पर्वतपर चले गये । ( वे ) शंकर दो हजार वर्षोंके बाद फिर अपने घर लौटे । उन्होंने सफेद अर्क ( आक या मन्दार ) - के फूलमें स्थित गिरिजाको देखा । पार्वती समस्त चिह्नोंसे युक्त शंकरको आया हुआ देखते ही अर्कके फूलको छोड़कर बाहर निकल आयीं और उन्होंने ( अपनी जयादि ) सखियोंको पुकारा । पुकारी गयीं वे जया आदि सभी देवियाँ शीघ्र वहाँ चली आयीं ॥८० - ८६॥

उन ( अपनी सहेली जयादि देवियों ) - से घिरी हुई पार्वतीजी शिवके दर्शनकी अभिलाषासे ( प्रतीक्षामें ) खड़ी रहीं । त्रिनेत्रधारी शंकरने गिरिजाको देखकर दानव एवं नन्दीके ऊपर भी दृष्टिपात किया; फिर प्रसन्नतापूर्वक गिरिसुताको गले लगा लिया । उसके बाद उन्होंने कहा - देवि ! मैंने अन्धकको तुम्हारा दास बना लिया है । चारुहासिनि ! प्रणाम कर रहे अपने पुत्रको देखो । ऐसा कहनेके बाद उन्होंने कहा - पुत्र ! शीघ्र यहाँ आओ । अपनी इस माताकी शरणमें जाओ ! ये तुम्हारा कल्याण करेंगी । प्रभुके इस प्रकार कहनेपर गणेश्वर नन्दी एवं अन्धक दोनोंने जाकर अम्बिकाके चरणोंमें प्रणाम किया । महामुने ! उसके बाद श्रद्धापूर्वक नम्र होकर अन्धकने गौरीकी पाप नाश करनेवाली एवं अत्यन्त पवित्र वेद - सम्मत स्तुति की ॥८७ - ९१॥

अन्धकने कहा - ॐ मैं भवानीको प्रणाम करता हूँ । मैं भूतभव्य - शङ्करकी प्रिया, लोकधात्री, जनित्री, कार्तिकेयकी जननी, महादेवकी प्रिया, लोकोंको धारण करनेवाली, स्यन्दिनी, चेतना, त्रैलोक्यजननी, धरित्री, देवमाता, इज्या, श्रुति, स्मृति, दया, लज्जा, श्रेष्ठ कान्ति, अग्र्या, असूया, मति, सदापावनी, दैत्योंकी सेनाओंका विनाश करनेवाली, महामाया वैजयन्ती, अत्यन्त शोभावाली, कालरात्रि, गोविन्द - भगिनी, शैलराजपुत्री, सर्वदेवोंसे पूजित, सर्वभूतोंसे पूजित, विद्या, सरस्वती, शंकरकी महारानीको प्रणाम करता हूँ । मैं शरणागतोंकी रक्षा करनेवाली मृडानीकी शरणमें आया हूँ । ( देवि ! ) आपका बार - बार प्रणाम है । अन्धकके इस प्रकार स्तुति करनेपर भवानीने प्रसन्न होकर कहा - पुत्र ! मैं प्रसन्न हूँ । तुम उत्तम वर माँगो ॥९२॥

भृङ्गिने कहा - पार्वति ! अम्बिके ! मेरे त्रिविध - मानसिक, कायिक, वाचिक पाप दूर हो जायँ एवं भगवान् शिवमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे ॥९३॥

पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद गौरीने हिरण्याक्षके पुत्र अन्धकसे कहा - ऐसा ही हो । वह वहाँ रहकर शिवकी पूजा करते हुए गणाधिप हो गया । इस प्रकार पहले समयमें महेश्वरने उस दानवश्रेष्ठको अपनी विरुपदृष्टिसे भयदायक भीषण रुप प्रदानकर अपनी भक्तिसे ‘ भृङ्गी ’ बना दिया । महर्षे ( नारदजी ) ! मैनें आपसे शिवकी कीर्तिको बढ़ानेवाला यह पुण्य पवित्र एवं धनको चाहनेवालोंको श्रेष्ठ द्विजातियोंमें इसका कीर्तन सदा करना चाहिये ॥९४ - ९६॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७०॥

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Last Updated : January 24, 2012

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