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अध्याय २१

श्रीवामनपुराण - अध्याय २१

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदजीने कहा - ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ पुलस्त्यजी ! अब आप देवीकी उत्पत्तिके विषयमें मुझसे पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । उसे सुननेकी मेरी बड़ी अभिलाषा है ॥१॥

पुलस्त्यजी बोले - मुनिजी ! सुनिये; मैं पुनः लोककल्याणकी इच्छासे शुम्भ नामक असुरके वधके लिये देवीकी जो पुनः उत्पत्ति हुई, उसका वर्णन करता हूँ । भगवान् शङ्करने हिमवानकी जिस तपस्विनी कन्या उमासे विवाह किया था, उन्हींके शरीर - कोश ( गर्भ ) - से उत्पन्न होनेके कारण वे देवी कौशिकी कहलायीं । उत्पन्न होनेपर भूतगणोंसे आवृत हो वे विन्ध्यपर्वतपर गयीं और उन्होंने ( अपने ) श्रेष्ठ आयुधोंसे शुम्भ तथा निशुम्भ नामके दानवोंका वध किया ॥२ - ४॥

नारदजीने कहा - ब्रह्मन् ! आपने पहले यह बात कही थी कि दक्षकी पुत्री सती ही मरकर फिर हिमवानकी पुत्री हुई थीं । ( अब ) इसे आप विस्तारसे सुनाइये । पार्वतीके शरीर - कोशसे जिस प्रकार वे कौशिकी प्रकट हुईं और फिर उन्होंने शुम्भ तथा निशुम्भ नामके बड़े असुरोंका जैसे वध किया था - इन सभी बातोंको विस्तारसे कहिये । ये शुम्भ और निशुम्भ नामसे विख्यात वीर किसके पुत्र थे, इसका ठीक - ठीक विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥५ - ७॥

पुलस्त्यजी बोले - मुने ! ( अच्छा ), अब मैं फिर आपसे पार्वतीकी उत्पत्तिके विषयमें वर्णन कर रहा हूँ, आप ध्यान देकर ( सम्बद्ध ) स्कन्दके जन्मकी शाश्वत ( नित्य, सदा विराजनेवाली ) कथा सुनें ! सतीके देह त्याग कर देनेपर रुद्र भगवान् निराश्रय विधुर हो गये एवं ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए तपस्या करने लगे । वे शङ्करजी ( पहले ) दैत्योंके दर्पको चूर्ण करनेवाले देवताओंके सेनानी थे । परंतु अब उन्होंने ( रुद्र - रुपका त्याग कर ) शिव - स्वरुप धारण कर लिया तथा तपमें लगकर सेनापति ( स्थायी ) - पदका भी परित्याग कर दिया । फिर तो देवताओंके ऊपर उनके सेनापति शिवसे विरहित हो जानेके कारण दानवश्रेष्ठ महिषने बलपूर्वक आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया ॥८ - ११॥

( जब देवसमुदाय पराजित हो गया ) तब पराजित हुए देवतालोग शरण - प्राप्तिकी खोजमें देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुके दर्शनार्थ श्वेतद्वीप गये । उस समय भगवान् विष्णु इन्द्र आदि देवताओंको आये हुए देखकर हँसे और मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले - मालूम होता है कि आपलोग असुरोंके स्वामी दुरात्मा महिषसे हार गये । जिसके कारण इस प्रकार एक साथ मिलकर मेरे पास आये हैं ? श्रेष्ठ देवताओं ! अब आपलोगोंकी भलाईके लिये मैं जो बात कहता हूँ, उसे आप सब सुनिये और उसे ( यथावत् ) आचरण कीजिये । उसके सहारे आपकी निश्चय विजय होगी ॥१२ - १५॥

देवगण ! जो ये ' अग्निष्वात्त ' नामसे प्रसिद्ध दिव्य पितर हैं, उनकी मेना नामकी एक मानसी कन्या है । देववृन्द ! आपलोग अत्यन्त श्रद्धासे अमावास्याको सती मेनाकी ( यथाविधि ) आराधना करें तथा उनसे हिमालयकी पत्नी बननेके लिये प्रार्थना करें । उन्हीं मेनासे ( एक ) तपस्विनी रुपवती कन्या उत्पन्न होगी, जिसने दक्षके ऊपर कोपकर अपने प्रिय जीवनका मलके समान परित्याग कर दिया था । वे शिवजीके तेजके अंशरुप जिस पुत्रको उत्पन्न करेंगी वह दैत्योंमें श्रेष्ठ महिषको उसकी सेनासहित मार डालेगा ॥१६ - १९॥

अतः आपलोग महान् फल देनेवाले, पवित्र कुरुक्षेत्रमें जायँ एवं वहाँ ' पृथूदक ' नामके तीर्थमें नित्य ही अग्निष्वात्त नामके पितरोंकी पूजा करें । यदि आपलोग अपने शत्रुकी पराजय चाहते हैं तो सब कुछ छोड़कर अमावास्याको उस परम पवित्र तीर्थमें इसी ( निर्दिष्ट ) कार्यको सम्पन्न करें ॥२० - २१॥

पुलस्त्यजी बोले - भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि देवताओंने हाथ जोड़कर उन परमात्मासे पूछा - ॥२२॥

देवताओंने पूछा - भगवान् ! यह कुरुक्षेत्र तीर्थ कौन है, जहाँ पृथूदक तीर्थ है ? आप हमलोगोंको उस तीर्थकी उत्पत्तिके विषयमें बतायें । और, वह पवित्र उत्तम तिथि कौन - सी है जिसमें हम सब दिव्य पितरोंकी पूजा प्रयत्नपूर्वक कर सकें । तब भगवान् विष्णुने देवताओंकी प्रार्थना सुनकर उनसे कुरुक्षेत्रकी पवित्र उत्पत्ति तथा उस उत्तम तिथिका भी वर्णन किया ( जिसमें पूजा करनेकी बात कही थी ) ॥२३ - २५॥

श्रीभगवानने कहा - सत्ययुगके प्रारम्भमें सोमवंशमें ऋक्षनामके एक महाबलवान् राजा उत्पन्न हुए । उन ऋक्षसे संवरणकी उत्पत्ति हुई । पिताने उसे बचपनमें ही राज्यपर अभिषिक्त कर दिया । वह बाल्यकालमें भी सदा धर्मनिष्ठ एवं मेरा भक्त था । रुणके पुत्र वसिष्ठ उसके पुरोहित थे । उन्होंने उसे अङ्गोंसहित सम्पूर्णा वेदोंको पढ़ाया । एक दिनकी बात है कि अनध्याय ( छुट्टी ) रहनेपर वह राजपुत्र ( संवरण ) तपोनिधि वसिष्ठको सभी कार्य सौंपकर वनमें चला गया ॥२६ - २९॥

फिर शिकारके लिये व्याक्षिप्त ( व्यग्र ) वह अकेला ही वैभ्राज नामक निर्जन वनमें पहुँचा । उसके बाद वह उन्मादसे ग्रस्त हो गया । उस वनमें सभी ऋतुओंमें फूल फूलते रहते थे, सुगन्धि भी रहती थी, फिर भी उससे संतृप्त न होनेके कारण वह कुतूहलवश वनमें चारों ओर विचरण करने लगा । वहाँ उसने फूले हुए श्वेत, लाल, पीले कमल, कुमुद एवं नीले कमलोंसे भरे उस वनको देखा । अप्सराएँ एवं देवकन्याएँ वहाँ सदा मनोरञ्जन ( मनबहलाव ) किया करती थीं । संवरणने उनके बीच एक अत्यन्त सुन्दरी कन्याको देखा ॥३० - ३३॥

उसे देखते ही वह राजा कामदेवके बाणसे पीडित ( कामसे आशित ) हो गया और इसी प्रकार वह कन्या भी उसे देखकर कामबाणसे अधीर ( मोहित ) हो गयी । कामके बाणोंसे विवश होकर वे दोनों अचेत - से हो गये । राजा घोड़ेकी पीठपर रखे हुए आसनसे खिसककर पृथ्वीपर गिर पड़ा और इच्छाके अनुसार अपना रुप बना लेनेवाले महात्मा गन्धर्वलोग उसके पास जाकर उसे जलसे सींचने लगे । ( फिर ) वह दूसरे ही क्षण चेतनामें आ गया । तब अप्सराओंने उसे मधुर वचनरुपी जलसे भी आश्वस्त किया और उसे उठाकर उसके पिताके घर ले गयीं ॥३४ - ३७॥

फिर वह राजा ( अपने ) घोड़ेपर चढ़कर ( अपने ) श्रेष्ठ पैठण नगर इस प्रकार चला गया, जैसे कोई इच्छाके अनुसार चलनेवाला देवता ( सरलतासे ) मेरुश्रृङ्गपर चला जाय । ऋक्षके पुत्र संवरणने पर्वतपर देवकन्या तपतीको जबसे अपनी आँखोंसे देखा था, तबसे वह दिनमें न तो भोजन करता था और न रात्रिमें सोता ही था । फिर सब कुछ जाननेवाले एवं शान्त तथा तपस्याके निधिस्वरुप वरुणके पुत्र महायोगी वसिष्ठ उस वीर राजपुत्रको तपतीके कारण संतापमें पड़े देखकर आकाशमें ऊपर जाकर ( मध्य आकाशमें स्थित ) सूर्यमण्डलमें प्रवेश किया तथा वहाँ रथपर बैठे हुए तेज किरणवाले सूर्यदेवका उसने दर्शन किया ॥३८ - ४१॥

द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठने सूर्यदेवको देखकर प्रणाम किया । फिर वे सूर्यके द्वारा प्रत्यभिवादन ( प्रणामके बदले प्रणाम ) किये जानेपर उनके समीप जाकर रथमें बैठकर गये । सूर्यदेवके पास रथपर बैठे हुए अग्नि - शिखाके समान चमचमाती जटावाले वरुणके पुत्र वसिष्ठ दूसरे सूर्यके समान सुशोभित होने लगे । फिर भगवान् सूर्यने उन तपस्वी ( अतिथि ) - का अर्घ्य आदिसे ( सत्कार ) किया; उसके बाद उनसे उनके आनेका कारण पूछा । तब तपोधन वसिष्ठजीने सूर्यसे कहा - अति तेजस्वी देवेश ! मैं राजपुत्र संवरणके लिये आपसे कन्याकी याचना करने आया हूँ । उसे आप ( कृपया ) प्रदान करें ॥४२ - ४५॥

[ भगवान् विष्णु कहते हैं - ] देवगण ! उसके बाद सूर्यदेव घरपर आये और ब्राह्मणश्रेष्ठ वसिष्ठको राजा संवरणके लिये ( अपनी ) तपती नामकी उस कन्याको समर्पित कर दिया । फिर सूर्यपुत्रीको साथ लेकर वसिष्ठ अपने पवित्र आश्रममें आ गये । वह कन्या उस राजपुत्रका स्मरण कर और हाथ जोड़कर ऋषि वसिष्ठसे बोली - ॥४६ - ४७॥

तपतीने कहा - वसिष्ठजी ! मैंने वनमें चिन्तामें विभोर होकर अपनी सेविकाओं तथा अप्सराओंके साथ देवपुत्रके समान ( सौम्य सुन्दर ) जिस व्यक्तिको देखा था, उसे मैं लक्षणोंसे राजकुमार समझ रही हूँ; क्योंकि उसके दोनों शुभ चरणोंमें चक्र, गदा और खङ्गके चिह्न हैं । उसकी जाँघें तथा ऊरु दोनों हाथीकी सूँड़के समान हैं । उसकी कटि सिंहकी कटिके समान है तथा त्रिवलीयुक्त - तीन बलोंवाला उसका उदरभाग बहुत पतला है । उसकी गर्दन शङ्खके समान है, दोनों भुजाएँ मोटी, कठोर और लम्बी हैं, दोनों करतल कमल - चिह्नसे अङ्कित हैं तथा उसका मस्तक छत्रके समान सुशोभित है । उसके बाल काले तथा घुँघराले हैं, दोनों कर्ण मांसल हैं, नासिका सुडौल है, उसके हाथों एवं पैरोंकी अँगुलियाँ सुन्दर पर्वयुक्त ( पोरवाली ) और लम्बी हैं और उसके दाँत श्वेत हैं ॥४८ - ५१॥

[ तपतीने आगे कहा - ] - उस महापराक्रमी राजपुत्रके ललाट, कंधे, कपोल ( गाल ), ग्रीवा, कमर तथा जाँघें - ये छः अङ्ग ऊँचे ( सुडौल ) हैं, नाभि, मध्य तथा हँसुली - ये तीन अङ्ग गम्भीर हैं और उसकी दोनों भुजाएँ तथा अण्डकोष - ये तीन अङ्ग लम्बे हैं । दोनों नेत्र, अधर, दोनों हाथ, दोनों पैर तथा नख - ये पाँचों लाल वर्णवाले हैं, केश, पक्ष्म ( बरौनी ) और कनीनिका ( आँखकी पुतली ) - ये चार अङ्ग कृष्ण हैं, दोनों भौंहें, आँखके दोनों कोर तथा दोनों कान झुके हुए हैं, दाँत तथा नेत्र दो अङ्ग श्वेत वर्णके हैं, केश, मुख तथा दोनों कपोल - ये चार अङ्ग सुगन्धवाले हैं । उनके नेत्र, मुख - विवर, मुखमण्डल, जिह्वा, ओठ, तालु, स्तन, नख, हाथ और पैर - ये दस अङ्ग कमलके समान हैं । भगवन् ! मैंने खूब सोच - विचारकर पृथ्वीपर उस राजपुत्रको पहले ही पतिरुपसे वरण कर लिया है । प्रभो ! मुझे क्षमा करें । आप गुणोंसे युक्त ( मेरी ) इच्छाके अनुकूल तथा वाञ्छित उस तपस्वीको मुझे दे दें; क्योंकि सन्तोंका यह कहना है कि अन्यकी कामना करनेवाली कन्याको किसी औरको नहीं देना चाहिये ॥५२ - ५४॥

( देवदेव भगवान् विष्णु बोले ) - फिर सूर्यपुत्री तपतीके ऐसा कहनेपर वसिष्ठजी ध्यानमें मग्न हो गये और तपतीको उस कुमारमें आसक्त समझकर प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने यह बात कही - पुत्रि ! जिस राजपुत्रका तुमने पहले दर्शन किया था और जिसकी कामना तुम आज कर रही हो, वह ऋक्षका पुत्र ( राजा ) संवरण ही है । वह आज मेरे आश्रममें आ रहा है । उसके पश्चात् वह राजकुमार भी ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीके आश्रममें आया । उस राजाने वसिष्ठको देखकर सिर झुकाकर प्रणाम किया; बैठनेपर तपत्तीको भी देखा । खिले कमलके समान विशाल नेत्रोंवाली उस तपतीको देखकर उसने सोचा कि इसे मैंने पहले भी देखा है । ( तब ) उसने पूछा - ब्राह्मणश्रेष्ठ ! यह सुन्दर स्त्री कौन हैं ? इसपर वसिष्ठजीने राजश्रेष्ठ संवरणसे कहा - ॥५५ - ५८॥

' नरेन्द्र ! पृथ्वीमें तपती नामसे प्रसिद्ध यह सूर्यकी पुत्री है । मैंने तुम्हारे ही लिये सूर्यसे इसकी याचना की थी और उन्होंने तुम्हारे लिये इसे मुझे सौंपा था । मैं तुम्हारे लिये ही इसे आश्रममें लाया हूँ; अतः नरेन्द्र ! उठो एवं विधिवत् इस सूर्यपुत्री तपतीका पाणिग्रहण करो । ' [ वसिष्ठजीके ] - ऐसा कहनेपर राजा बहुत प्रसन्न हुआ । उसने तपतीका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया । सूर्यकी तनया तपती भी इन्द्रके तुल्य प्रभावशाली उस सुन्दर उसके साथ इस प्रकार विहार करने लगी, जैसे इन्द्रको पाकर स्वर्गमें शची विहार करती है ॥५९ - ६१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२१॥

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Last Updated : January 24, 2012

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