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अध्याय ७४

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७४

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद बाणासुरके लौट आनेपर फिर दानव तुरंत शस्त्र लेकर देवताओंसे युद्ध करनेकी इच्छासे लौट पड़े । अत्याधिक तेजस्वी विष्णुने बलिके पुत्र बाणको अजेय जान करके देवताओंको बुलाकर कहा - आप लोग निर्भय होकर ( सतर्कतासे ) युद्ध कीजिये । विष्णुसे आदेश पाकर इन्द्र आदि देवता दानवोंके साथ युद्ध करने लगे । किंतु विष्णु अदृश्य हो गये । विष्णुको वहाँसे चला गया जानकर शुक्रने बलिसे कहा - बले ! विष्णुको वहाँसे चला गया जानकर शुक्रने बलिसे कहा - बले ! विष्णुने देवताओंको अकेले युद्धके लिये छोड़ दिया है । अब तुम जय प्राप्त करो ॥१ - ४॥

दुष्टजनोंको ताड़ना देनेवाले भगवान् विष्णुके चले जानेपर तेजस्वी बलि पुरोहित ( शुक्राचार्य ) - के वाक्यसे हर्षित हो गदा लेकर देवसेनाकी ओर दौड़ा । बाणासुरने हजार हाथोंमें अस्त्र - शस्त्र लेकर देवसेनापर चढ़ाई कर दी और हजारोंका वध कर दिया । मुने ! बलवान् मय दानव भी मायाके द्वारा विभिन्न रुपोंको धारणकर अमरोंकी सेनाके साथ युद्ध करने लगा । विद्युज्जिह्व, पारिभद्र, वृषपर्वा, शतेक्षण, विपाक तथा विक्षर भी देवताओंकी सेनापर टूट पड़े ॥५ - ८॥

भगवान् विष्णुके चले जानेपर इन्द्र आदि देवता दैत्योंके द्वारा मारे जानेपर युद्धसे पराड्मुख हो गये । तीनों लोकोंपर विजय पानेकी इच्छावाले बलि एवं बाण आदि सभी ( दैत्य ) भागते हुए देवताओंके पीछे दौड़ पड़े । दैत्योंके द्वारा पीडित इन्द्र आदि देवता डरकर और स्वर्गको छोड़कर ब्रह्मलोक चले गये । फिर तो इन्द्रके साथ ही देवताओंके ब्रह्मलोक चले जानेपर बलि अपने पुत्र, भाई और बान्धवोंके साथ स्वर्गका भोक्ता हो गया ॥९ - १२॥

ब्रह्मन् ! भाग्यशाली बलि इन्द्र हुआ और बाण यम बना । मय दानव वरुण बन गया, राहु चन्द्र बना और ह्लाद अग्नि बन गया । केतु सूर्य बना और शुक्राचार्य बृहस्पति बन गये । इसी प्रकार अन्य विभिन्न अधिकार - प्राप्त देवताओंके पदोंपर असुरोंने अधिकार जमा लिया । पाँचवें कलियुगके प्रारम्भ और द्वापरयुगके आखिरी भागमें देवताओं और दैत्योंका भयङ्कर युद्ध हुआ, जब कि बलि इन्द्र बन गया । सातों पाताल और भूः भुवः, स्वः, नामके प्रसिद्ध तीनों लोक उसके वशमें हो गये थे । इस प्रकार बलि दस लोकोंका शासक बन गया था ॥१३ - १६॥

इन्द्र बना हुआ बलि अत्यन्त दुर्लभ भोगोंको स्वयं भोगता हुआ स्वर्गमें रहने लगा । वहाँ विश्वावसु आदि गन्धर्व उसकी सेवा करने लगे । देवर्षे ! तिलोत्तमा आदि अप्सराएँ ( उसे प्रसन्न करनेके लिये ) नृत्य किया करती थीं और यक्ष तथा विद्याधर आदि बाजे बजाते थे । ब्रह्मन् ! विविध भोगोंका भोग करते हुए दैत्येश्वर बलिने अपने पितामह प्रह्लादका मनसे स्मरण किया । पौत्र ( बलि ) - के स्मरण करते ही वे महान् भागवत ( विष्णुके परम भक्त ) असुर प्रह्लादजी पातालसे अक्षय स्वर्गलोकमें चले आये ॥१७ - २०॥

उन्हें आया हुआ देखते ही बलिने सिंहासन छोड़कर और हाथ जोड़कर उनके चरणोंकी वन्दना की । प्रल्हाद चरणोंमें पड़े हुए वीर बलिको जल्दीसे उठाकर और गले लगाकर उचित सुन्दर आसनपर बैठ गये । बलिने उनसे कहा - अये तात ! मैंने आपके पुण्यप्रसादसे ( प्राप्त ) पराक्रम और बलसे देवताओंको जीत लिया और इन्द्रके राज्यको छीन लिया है । तात ! आप मेरे पराक्रमसे जीते गये देवोंवाले इन उत्तम तीनों लोकोंके राज्यका भोग करें और मैम आपके सामने नौकर बनकर रहूँ ॥२१ - २४॥

तात ! इस प्रकार आपके चरणोंकी पूजासे और आपके जूठे अन्नका भोजन करनेसे मैं पुण्यवान् हो जाऊँगा । सत्तम ! विभो ! राज्यका पालन करनेवाले शासकमें वह धीरता नहीं होती, जो धीरता गुरुकी सेवा करनेवालोंमें होती हैं । द्विजसत्तम ! उसके बाद प्रह्लादने बलिके कहे वचनको सुनकर धर्म, अर्थ उर कामका साधक वचन कहा । बलिराज ! मैंने पहले शत्रुओंकी विघ्न - बाधासे रहित राज्य किया है । ( मैं ) पृथ्वीका शासन और मित्रोंका सत्कार कर चुका हूँ, इच्छानुसार दान दे चुका हूँ । ( गृहस्थ - धर्मके नाते ) मैंने पुत्रोंको भी उत्पन्न किया है । किंतु ( इन सबसे शान्ति न पाकर ) इस समय मैं योगसाधक बन गया हूँ ॥२५ - २८॥

पुत्र ! मैंने तुम्हारे दिये ( राज्य ) - को विधिपूर्वक ग्रहणकर पुनः तुमको दे दिया । तुम गुरुओंकी सेवामें इसी प्रकार सदा लगे रहो । ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) ब्रह्मन् ! ऐसा वचन कहकर ( प्रह्लादने बलिका ) दाहिना हाथ पकड़कर उसे तुरंत इन्द्रके सिंहासनपर आसीन करा दिया । महेन्द्रके सभी रत्नोंसे बने शुभ सिंहासनपर बैठा हुआ वह दैत्यपति बइ इन्द्रके समान शोभित हुआ । उसपर बैठनेके बाद उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर मेघके गर्जनके समान गम्भीर वाणीमें प्रह्लादसे कहा ॥२९ - ३२॥

तात ! तीनों लोकोंकी रक्षा करते हुए जो मेरे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ( इन चारों पुरुषार्थों ) - के लिये करणीय कार्य है, उसके लिये आप मुझे आदेश दें । उस ( बलि ) - के वाक्यके साथ ही शुक्रने ( भी ) प्रह्लादसे कहा - महाबाहो ! जो उचित हो वह उत्तर दीजिये । विष्णुके भक्त प्रह्लादने बलि और शुक्रकी बात सुनकर धर्म और अर्थसे युक्त श्रेष्ठ वचन कहा - पुत्र ! भविष्यके लिये जो उपयुक्त हो, संसारके लिये जो हितकारी हो और धर्मके अनुकूल जो अर्थका उपार्जन और सभी प्राणियोंके अनुकूल जो कामवर्गका फल है एवं इस लोक और परलोकमें जो कल्याणकारी कर्म हो उसका आचरण करो । महामते ! तुम जैसे प्रशंसनीय बन सको तथा जैसे तुम्हें यश प्राप्त हो एवं अकीर्ति न हो वैसे ही कर्तव्यको किया करो ॥३३ - ३८॥

उत्तम पुरुष उत्कृष्ट लक्ष्मीकी अभिलाषा इसीलिये करते हैं कि विपत्तिमें पड़ा हुआ अच्छे कुलका व्यक्ति, धनहीन मित्र, वृद्ध ज्ञाति, गुणी ब्राह्मण एवं यशोदायिनी कीर्ति उनके गृहमें शान्तिपूर्वक निवास कर सकें । अतः हे पवित्र विचार एवं चेष्टावाले पुत्र ! राज्यके स्थिर हो जानेपर जैसे ( उपर्युक्त ) कुलोत्पन्नादि ( तुम्हारे गृहमें ) रह सकें एवं जैसे तुम लोकमें यशस्वी हो सको वैसा ही प्रयत्न करो । पृथ्वीके सदा ब्राह्मणोंसे सुशोभित होने, क्षत्रियोंसे सनाथ होने, ( वैश्योंद्वारा ) भलीभाँति ( जोते ) - भोये जाने तथा सेवारत ( शूद्रों ) - से सम्पन्न होनेपर अच्छे राजाओंको समृद्धि प्राप्त होती हैं ॥३९ - ४२॥

इसलिये ( तुम्हारे शासनमें ) वेद - शास्त्रसे सम्पन्न उत्तम ब्राह्मण राजाओंसे यज्ञ करवावें एवं श्रेष्ठ द्विगणना दिव्य यज्ञ किया करें । यज्ञकी अग्निके धूएँसे राजाको शान्ति मिलती है । चले ! तपस्या और वेदाध्यनसे संयुक्त यजन और अध्यापनमें लगे रहनेवाले ब्राह्मण तुम्हारी अनुमति पाकर पूजित हों । दैत्येन्द्र ! क्षत्रिय स्वाध्याय एवें यज्ञमें निरत, दान देनेवाले, शस्त्र - जीवी तथा प्रजा - पालन करनेवाले हों । वैश्यगण यज्ञाध्ययनसे सम्पन्न, दाता, कृषिकर्त्ता एवं वाणिज्यजीवी हों तथा पशुपालनका कर्म करें ॥४३ - ४६॥

असुरश्रेष्ठ ! शूद्रगण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवामें सदा लगे रहें और तुम्हारे आदेशका सदा पालन करें । दितिजेश्वर ! जब सभी वर्णके लोग अपने - अपने धर्ममें स्थित रहते हैं तब निश्चय ही धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धि होनेपर राजाकी उन्नति होती है । इसलिये बले ! तुम सभी वर्णोंको उनके धर्ममें सदा लगाये रहो । उसकी ( स्वधर्मकी ) वृद्धिसे राजाकी वृद्धि होती है । उसकी हानिसे हानि कही गयी है । महासुरेन्द्र महात्मा प्रह्लाद बलिसे ऐसा कहकर मौन हो गये । ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) महर्षे ! उसके बाद बलिने इस प्रकार कहा - आपने जो आदेश दिया, उसीके अनुसार मैं कार्य करुँगा ॥४७ - ५०॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७४॥

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Last Updated : January 24, 2012

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