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अध्याय २५

श्रीवामनपुराण - अध्याय २५

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


ब्रह्माने कहा - महाबलशाली देवगण ! आपलोग जिस उद्देश्यसे यहाँ आये हैं, उसके विषयमें मैं पहलेसे ही सोच रहा हूँ । सुरश्रेष्ठ ! आपलोगोंको जो अभिलषित है, वह पूर्ण होकर रहेगा । दानवोंमें प्रधान बलिको पराजित करनेवाले एवं विश्वको रचनेवाले ( परमात्मा ) न केवल ( आप सब ) देवोंके, प्रत्युत हमारे भी सहारे हैं । वे तीनों लोकोंके स्वामी तथा देवोंके भी शासक हैं । इन्हें ही सनातन आदिदेव भी कहते हैं ॥१ - ४॥

उन महान् आत्मा ( सनातन आदिदेव ) - को देवता आदि कोई भी वास्तवरुपमें नहीं जानते कि वे कौन हैं; परंतु वे पुरुषोत्तम ( समस्त ) देवोंको, मुझे तथा श्रुति ( वेद ) एवं समस्त विश्वको जानते हैं ( संसारके समस्त क्रिया - कलाप उनकी जानकारीमें ही होते हैं; वे सर्वज्ञ हैं ) । उन्हींके कृपा - प्रसादसे ( आपलोगोंको ) मैं अत्यन्त श्रेष्ठ उपाय बतलाता हूँ । ( आपलोग सुनें । ) आप सभी उत्तर - दिशामें क्षीरसागरके उत्तरी तटपर स्थित उस स्थानपर जाइये जिसे विचारशील विद्वान लोग ( अमृत ) नामसे उच्चारित करते हैं । विश्वकी रचना करनेवाले ( परमात्मा ) वहीं योगधारणामें स्थित होकर कठिन तपस्या कर रहे हैं । आप सभी लोग उस अमृत नामक स्थानपर जायँ और आलस्यरहित होकर आपलोग भी लक्ष्यकी सिद्धिके लिये वहाँ कठिन तपस्या प्रारम्भ कर दें ॥५ - ८॥

( जब आपलोग वहाँ जाकर कठिन तपस्या करने लगेंगे ) तब ग्रीष्मके अन्तमें देवाधिदेवकी शब्दरुपिणी, स्त्रिग्ध - गम्भीर ध्वनिवाली, प्रेमसे भरी हुई शुद्ध और स्पष्ट अक्षरोंसे युक्त मनोहर एवं निर्बयताकी सूचना देनेवाली, सर्वदा मङ्गलमयी, उच्च स्वरसे अध्ययन करनेवाले ब्रह्मवादियोंकी वाणीके समान स्पष्ट, उत्तम संस्कारसे युक्त, दिव्य, सत्य - स्वरुपिणी, सत्यताकी ओर उन्मुख होनेके लिये प्रेरणा देनेवाली और पापोंको नष्ट करनेवाली जलसे पूर्ण मेघके गर्जनके समान गम्भीर वाणीको सुनेंगे । उसके बाद भावितात्माके ( आत्मज्ञानसे परिपूर्ण महात्मा कश्यपके योगव्रतके अवसरपर ) व्रतकी समाप्ति हो जानेके बाद अमोघ तेजसे सम्पन्न वे देव आपसे कहेंगे - सुरश्रेष्ठो ! आपलोग मेरे पास आये, आपलोंगोंका स्वागत है । मैं ( आपलोगोंको ) वरदान देनेके लिये आप सबके समक्ष स्थित हूँ कहो - किसे कौन - सा वर दूँ ॥९ - १३॥

और, जब भगवान् इस प्रकार वरदान देनेके लिये उपस्थित होंगे तथा अदिति एवं कश्यप उन प्रज्ञावान प्रभुके चरणोंमें झुककर सिरसे प्रणाम और वरकी याचना करेंगे कि ' भगवान् ही हमारे पुत्र बनें; इसके लिये आप हमारे ऊपर प्रसन्न हों ' तब वे ब्रह्मवाणीके द्वारा ' ऐसा ही हो ' - यह कहेंगे । ( इस प्रकार संकेत है - ) निर्देश पाकर कश्यप, अदिति एवं सभी देवताओंने ' ऐसा ही हो ' - यह कहकर प्रभु ( ब्रह्मा ) - को सिरसे प्रणाम किया और श्वेतद्वीपकी ओर लक्ष्य करके उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान किया । वे अत्यन्त शीघ्रतासे सत्यप्रवक्ता भगवन् ब्रह्माके द्वारा निर्दिष्ट की गयी व्यवस्थाके अनुसार क्षीरसागरके तटपर पहुँच गये ॥१४ - १७॥

उन देववरोंने पृथ्वीके सभी समुद्रों, वनसे भरे हुए पर्वतों एवं भाँति - भाँतिकी दिव्य नदियोंको पर किया । उसके बाद ( उसके आगे ) उन लोगोंने ऐसे स्थानको देखा जहाँ न कोई प्राणी था, न सूर्यका प्रकाश ही था; प्रत्युत चारों ओर घनघोर अन्धकार था, जिसमें सीमा मालूम ही नहीं होती थी । इस प्रकारके उस ' अमृत ' नामक स्थानपर पहुँचकर महात्मा कश्यपने प्रज्ञा - सम्पन्न योगी, देवेश्वर, कल्याणकी मूर्ति, सहस्त्रचक्षु नारायणदेवकी प्रसन्नाताकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ( देवताओंको ) सहस्त्रवार्षिक ( हजारों वर्षोंमें पूर्ण होनवाले ) दिव्य ( देव - सम्बन्धी ) इच्छा पूर्ण करनेवाले कामद व्रतकी दीक्षा दी । फिर वे सभी देवता क्रमशः अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके और मौन धारणकर उचित स्थानपर वीरासनसे बैठकर कठोर तपस्या करने लगे । वहाँ भगवान् कश्यपने महात्मा विष्णुको प्रसन्न करनेके लिये वेदमें कहे हुए स्तवका ( सूक्त या स्तोत्रका ) स्पष्ट वाणीमें पाठ किया, जिसे ' परमस्तव ' कहते हैं ॥१८ - २३॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पचीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२५॥

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Last Updated : January 24, 2012

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