नारदने कहा ( पूछा ) - श्रेष्ठ विप्र ! प्रह्लाद ( क्रमशः ) किन - किन तीर्थोंमें गये । कृपया आप मुझसे प्रह्लादकी तीर्थयात्राका भलीभाँति वर्णन कीजिये ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! सुनिये; मैं आपसे पापरुपी कीचड़को नष्ट करनेवाली एवं पवित्र पुण्यको देनेवाली प्रह्लादकी तीर्थयात्राको कहता हूँ । सुवर्णमय श्रेष्ठ मेरु पर्वतको छोड़कर वे ( सबसे पहले ) देवोंसे सेवित ( और ) पृथ्वीमें प्रसिद्ध कल्याणदायी मानसतीर्थमें गये, जहाँ मत्स्यशरीरधारी ( मत्स्यावतारी ) देवाधिदेव निवास करते हैं । उस उत्तम तीर्थमें स्त्रान और पितृ - देव - तर्पण कर उन्होंने वेद - मन्त्रोंसे अच्युत भगवान् विश्वेशका पूजन किया । फिर वहाँ उपवास रहकर देवों, ऋषियों, पितरों और मनुष्योंकी ( यथायोग्य ) पूजा कर कौशिकीमें ( अवस्थित ) पापका नाश करनेवाले भगवान् कच्छपका दर्शन करने गये । उस महानदीमें स्त्रान करनेके बाद उन्होंने जगत्स्वामी भगवानकी पूजा की और उपवास ( व्रत ) करके पवित्र होकर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दी । उसके बाद कच्छपावतार जगन्नाथ भगवानको नमस्कार कर वे वहाँसे कृष्ण नामके अश्वमुख भगवानका दर्शन करने चले गये । वहाँ उन्होंने देवह्नदमें स्त्रानकर देवों एवं पितरोंका तर्पण किया और हयग्रीव भगवानका अर्चन कर वे हस्तिनापुर चले गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद चक्रपाणि विश्वपति गोविन्द्रदेवकी विधिसे पूजा करनेके बाद वे यमुना नदीके पास पहुँच गये । उसमें स्त्रान करके पवित्र होकर उन्होंने ऋषियों, पितरों और देवोंका तर्पण किया तथा देवोंके देव जगन्नाथ त्रिविक्रम ( वामन भगवान् ) - का दर्शन किया ॥२ - ९॥
नारदजीने पूछा - इस समय जगत्स्वामी भगवान् विष्णु तीनों लोकोंको आक्रान्त करनेवाला ( विशालतम ) देह धारण करेंगे और बलिको बाँधेंगे तो वे भगवान् विष्णु पहले समयमें भी कैसे त्रिविक्रम् हुए थे और ( उस समय ) उन्होंने किसका बन्धन किया था - यह मुझे बतलाइये ॥१० - ११॥
पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! वे त्रिविक्रम भगवान् कौन हैं, कब हुए और उन्होंने किसको ठगा ? यह सब जो आपने पूछा है उसे मैं कहता हूँ; आप सुनिये । दनुके गर्भसे उत्पन्न अत्यन्त बलवान् एवं पराक्रमी धुन्धु नामसे प्रसिद्ध कश्यपका एक औरस पुत्र था । नारदजी ! उस दैत्यने तपस्यासे वरदानी ब्रह्माकी आराधना करके उनसे इन्द्र आदि देवताओंसे ( अपनेको ) अवध्य होनेकी याचना की । ( उसकी ) तपस्यासे प्रसन्न होकर कमलयोनि ब्रह्माजीने उसे वह ( वाञ्छित ) वर दे दिया । उसके बाद वह बलवान् धुन्धु स्वर्गमें चला गया । चतुर्थ कलियुगके आदिमें हिरण्यकशिपुके वर्तमान रहते समय धुन्धु इन्द्रसहित देवोंको जीतकर स्वयं इन्द्र बन गया । उस समय धुन्धुका आश्रय लेकर बलवान् दैत्य हिरण्यकशिपु मन्दर पर्वतपर ( स्वच्छन्दतासे ) विचरण करने लगे । ( इससे ) सभी देवता दुखी होकर ब्रह्मलोकमें जाकर रहने लगे ॥१२ - १८॥
तब देवताओंका ब्रह्मलोकमें रहना सुनकर धुन्धुने दैत्योंस कहा - दैत्यो ! इन्द्रसहित देवोंको जीतनेके लिये हमलोग ( अब ) ब्रह्मलोक चलें । धुन्धुका वचन सुनकर उन दैत्योंने कहा - लोकपाल ! हमलोगोंमें वह गति नहीं है, जिससे पितामह ( ब्रह्मा ) - के लोकमें जा सकें । ( वहाँका ) मार्ग बहुत दूर एवं बीहड़ है । यहाँसे हजारों योजन दुर महर्षियोंसे सेवित ‘ मह ’ नामका लोक है । उन ऋषियोंकी सहसा दृष्टि पड़ते ही समस दैत्य जल जाते हैं । उससे भी आगे कोटि योजन दूर ‘ जन ’ नामक एक लोक है जहाँ गोमताएँ रहती हैं । महासुरेन्द्र ! उनकी धूलि भी हमलोगोंका विनाश कर सकती है । उसके बाद छः करोड़ योजनकी दूरीपर तपस्वियोंसे भरा ‘ तप ’ लोक है । असुरराज ! वहाँ साध्यगण रहते हैं । उनका निः श्वास - वायु असहनीय है ॥१९ - २३॥
उसके बाद तीस करोड़ योजनकी दूरीपर हजारों सूर्योंके समान प्रदीप्त ‘ सत्य ’ नामका लोक है । वह लोक उन्हीं भगवानका निवास - स्थल है, जिन्होंने आपको वर दिया था । जिनकी वेदध्वनि सुनकर देवता आदि विकसित हो जाते हैं तथा दैत्य और उनके समान धर्मवाले संकुचित ( म्लान ) हो जाते हैं । अतः महाबाहु धुन्धो ! आप ऐसी बुद्धि न करें; क्योंकि ब्रह्मलोक मनुष्यों ( एवं दैत्यों ) - के लिये सदैव अगम्य है । उनकी बात सुनकर ( भी ) देवोंको जीतनेके लिये ब्रह्मलोक जानेकी इच्छावाले धुन्धुने दानवोंसे ( फिर ) कहा ॥२४ - २७॥
दानवश्रेष्ठो ! वहाँ कैसे और किस कर्मसे जाया जा सकता है ? इन्द्र देवोंके साथ वहाँ कैसे पहुँचे ? धुन्धुके पूछनेपर उन श्रेष्ठ दानवोंने कहा - हमलोग उस कर्मको तो नहीं जानते, किंतु शुक्राचार्य उसको निःसंदेह जानते हैं । दैत्योंका वचन सुनकर धुन्धुने दैत्योंके पुरोहित शुक्राचार्यजीसे पूछा - ( आचार्यजी ! ) किस कर्मको करनेसे ब्रह्मलोकमें जाया जा सकता है ? ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) कलिप्रिय ! उसके बाद दैत्योंके गुरु श्रीमान् शुक्राचार्यने उससे वृत्रशत्रु इन्द्रका चरित कहा । उन्होंने कहा - दैत्येन्द्र ! पहले समयमें इन्द्रने सौ पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसीसे वे ब्रह्मलोक गये ॥२८ - ३२॥
शुक्राचार्यके उस वाक्यको सुनकर बलवान् दानवपतिने अश्वमेधयज्ञ करनेकी उत्कट इच्छा की । उसके बाद दैत्योंके गुरुको और अच्छे दैत्योंको बुलाकर उसने कहा - मैं दक्षिणासहित अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करुँगा । इसलिये आओ, हमलोग पृथ्वीपर चलें और राजाओंको जीतकर इच्छानुकूल सामग्री एवं विधिसे पूर्ण अश्वमेधोंका अनुष्ठान करें । निधियोंको बुलाओ एवं गुह्यकोंको आदेश दे दो और ऋषियोंको आमन्त्रित करो । हमलोग देविकाके तटपर चलें । वह पुनीत उत्तम नदी कल्याणदायिनी तथा सर्वसिद्धिकारिणी है । उस प्राचीन स्थानपर पहुँचकर हम अश्वमेध यज्ञ करेंगे ॥३३ - ३६॥
देवोंके शत्रु धुन्धुके उस वचनको सुनकर दैत्योंके यज्ञ करानेवाले शुक्राचार्यने ‘ ठीक है ’ - ऐसा कहा और प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने निधियोंको आदेश दे दिया । उसके बाद भार्गवश्रेष्ठ शुक्राचार्यने पापोंका नाश करनेवाले देविकाके प्राचीन तटपर अश्वमेध यज्ञके ( अनुष्ठानके ) लिये धुन्धुको दीक्षित किया । ब्रह्मन् ! शुक्राचार्यकी अनुमतिसे उनके शिष्य तथा भार्गव - गोत्री य विद्वान् ब्राह्मण उस यज्ञमें सदस्य एवं ऋत्विक् बने । मुने ! शुक्राचार्यकी अनुमतिसे दैत्यस्वामीने स्वर्भानु आदि असुरोंको ( देवोंके स्थानपर ) यज्ञभागका रक्षक और भोक्ता बनाया । उसके बाद यज्ञ आरम्भ हुआ और ( दिग्विजय - सूचक ) अश्व छोड़ा गया । असिलोमा नामका विराट् दैत्य घोड़ेके पीछे ( उसकी रक्षाके लिये ) चला ॥३७ - ४१॥
महर्षे ! उसके बाद यज्ञके धुएँसे पहाड़ोंके साथ पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ और विदिशाएँ भर गयीं । आकाशमें फैले उस उत्कट सुगन्धवाले धूएँसे मिली हुई वायु ब्रह्मलोकमें बहने लगी । उस गन्धको सूँघकर देवगण उदास हो गये । उन्हें यह पता चल गया कि धुन्धुने अश्वमेधकी दीक्षा ग्रहण की है ( और यज्ञानुष्ठान कर रहा है ) । उसके बाद वे इन्द्रसहित संसारके आश्रय और शरण देनेवाले भगवान् जनार्दनकी शरणमें गये । कमलनालको धारण करनेवाले वरदानी जनार्दन देवको प्रणाम कर सभी देवोंने भयसे विकल वाणीमें कहा - देवोंके दुःखको दूर करनेवाले तथा चर और अचरके कल्याण करनेमें नित्य उद्यत रहनेवाले देवाधिदेव विष्णो ! आप हमारा निवेदन सुनें ॥४२ - ४५॥
धुन्धु नामका बलवान् दैत्यपति शंकरसे वर प्राप्त कर लेनेके कारण बढ़ गया है । उस बलवानने सभी देवोंको पराजितकर ( उनसे ) त्रिलोकी ( के अधिकार ) - को छीन लिया है । हरे ! पिनाक धारण करनेवाले शंकरके सिवा हम देवोंका कोई रक्षक न होनेसे वह असुर उपेक्षित रोगकी तरह ( बहुत ) बढ़ गया है । इस समय वह ब्रह्मलोकमें शरण लिये हुए रहनेपर भी हमलोंगो ( फिर ) जीतनेके लिये तैयार होकर शुक्राचार्यके मतके अनुसार अश्वमेधयज्ञमें दीक्षित हो गया है । वह दैत्य ( धुन्धु ) सौ अश्वमेधयज्ञ करके देवताओंपर विजय पानेके लिये ब्रह्मलोकमें आक्रमण करना चाहता है । इसलिये जगद्गुरो ! आप उसके यज्ञको विध्वस्त करनेका उपाय बिना समय बिताये ( तत्काल ) सोचें, जिससे हमलोग निश्चिन्त हो सकें ॥४६ - ५०॥
सभी देवताओंको अभयदान देकर उन महाबाहुने उन देवताओंको लौटा दिया और उस महान् धर्मध्वजी ( धर्मके नामपर पाखण्ड रचनेवाले ) दैत्य धुन्धुको अजेय समझकर उन्होंने ( श्रीहरिने ) उसे बाँधनेका विचार किया । उसके बाद भगवान् विष्णुने बौनाका रुप धर लिया और देविका नदीके जलमें ( अपनी ) देहको लकड़ीकी तरह निरालम्ब छोड़ दिया । खुले हुए केशोंवाले वे क्षणामात्रमें अपने - आप डूबने - उतराने लगे । उसके बाद दैत्यपतिने तथा अन्य दैत्यों एवं ऋषियोंने उन्हें देखा । उसके बाद व्याकुल होकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञके सभी काम छोड़कर उस ब्राह्मणको निकालनेके लिये दौड़े । सभी सदस्य, यजमान एवं अति तेजस्वी ऋत्विजोंने डूबते हुए बौनाके आकारवाले ब्राह्मणको ( नदीके जलसे बाहर ) निकाला और उससे पूछा - हमें यह बतलाओ कि तुम यहाँ क्यों गिरे अथवा तुम्हें किसने फेंका ? ॥५१ - ५६॥
उसने उनके वचनको सुनकर बार - बार काँपते हुए धुन्धु आदिसे कहा - आपलोग इसका कारण सुनें । वरुण - गोत्रमें उत्पन्न प्रभास नामके एक ब्राह्मण थे । वे सभी शास्त्रोंके तात्पर्यको जाननेवाले और बुद्धिमान् थे । उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए । वे दोनों ही अल्पबुद्धि और अत्यन्त दुःखग्रस्त थे । उनमें मेरा भाई बड़ा और मैं छोटा हूँ । अये दैत्य ! मेरा बड़ा भाई ‘ नेत्रभास ’ नामसे प्रसिद्ध है । मेरे पिताने कुतूहलवश मेरा नाम ‘ गतिभास ’ रख दिया ॥५७ - ६०॥
महासुर धुन्धो ! मेरे पिताका निवास - स्थान सुन्दर, आनन्ददायक, स्वर्गीय गुणोंसे युक्त एवं मनोहर था । उसके बाद बहुत दिनोंके पश्चात् हम दोनोंके पिता स्वर्ग चले गये । उनकी दाह - संस्कारादि - श्राद्धक्रिया करके हम दोनों भाई घर आ गये । उसके बाद मैंने ( अपने उन ) बड़े भाईसे कहा - हम दोनों आपसमें घरका बँटवारा कर लें । उसने मुझसे कहा - तुम्हारा हिस्सा नहीं है; क्योंकि कुबड़े, बौने, लँगडे, हिजड़े, चरकवाले, पागल और अन्धोंका धनमें हिस्सा नहीं होता है । उन्हें केवल सोने भरका स्थान तथा अपनी इच्छाके अनुसार अन्नभोगका अधिकार दिया जाता है । वे सम्पत्तिके भागी - अधिकारी नहीं होते ॥६१ - ६५॥
ऐसा कहनेपर मैंने उससे कहा कि अपने पिताके घरके धनके आधे हिस्सेका अधिकारी मैं किस न्यायसे और क्यों नहीं हूँ ? ऐसा अभिप्राय - पूर्ण वाक्य कहनेपर क्रोधमें आकर मेरे भाईने मुझे उठाकर इस नदीमें फेंक दिया । मुझे इस नदीमें तैरते हुए एक वर्षका समय बीत गया । ( अब आपलोगोंने यहाँ मेरा उद्धार किया है । प्रेमी बान्धवोंके समान यहाँ उपस्थित आपलोग कौन हैं तथा यज्ञके लिये दीक्षित इन्द्रके समान ये महाबलशाली कौन हैं ? तपोधनो ! आपलोग यह सब ठीक - ठीक मुझे बतलाइये । आपलोग महान् ऐश्वर्यशाली और मेरे ऊपर अत्यन्त अनुग्रह करनेवाले हैं ॥६६ - ७०॥
वामनके उस वचनको सुनकर भार्गवकुलके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कहा - ब्रह्मन् ! हमलोग भार्गव गोत्रवाले ब्राह्मण हैं । ये अति तेजस्वी दाता, भोक्ता और विभक्ता धुन्धु नामके महान् असुर हैं । ये यज्ञकर्ममें दीक्षित हुए हैं । देवेश वामनसे ऐसा कहकर सभी भार्गवगोत्रीय ( ब्राह्मणोंने ) असुरस्वामी धुन्धुने वामनके प्रयोजनको सिद्ध करनेवाला वचन कहा - दैत्येन्द्र ! आप इन्हें सम्पूर्ण साज - सज्जासे पूर्ण सम्पत्तिसे सम्पन्न घर, दासियाँ और विविध प्रकारके रत्न ( आदि ) प्रदान करें । ब्राह्मणोंके उस वचनको सुनकर असुरराज धुन्धुने यह वचन कहा - द्विजेन्द्र ! मैं आपको आपकी इच्छाके अनुकूल धन दूँगा ॥७१ - ७५॥
विभो ! आप अपने अभीष्ट पदार्थकी माँग करें । मैं आज आपको घर, सोना, घोड़े, रथ एवं हाथी प्रदान करुँगा । दैत्य - स्वामीके उस वाक्यको सुनकर ( विप्ररुप धारण करनेवाले ) भगवान् वामनने दानवपति धुन्धुसे अपने स्वार्थको साधनेवाला वचन कहा - सहोदर भाईने जिसकी ( पैतृक ) सम्पत्तिको ले लिया उस असमर्थको जो कुछ मिलेगा उसे क्या कोई दूसरा नहीं छीन लेगा ? महाबाहो ! आप दिये हुएकी रक्षा करनेमें समर्थ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी दासी, दास, नौकर, घर, रत्न और अच्छे वस्त्र दें । दैत्येन्द्र ! मुझे तो मेरा परिमाण देखकर ( केवल ) तीन पग ( भूमि ) ही दे दें । ( इससे ) अधिककी रक्षा करनेमें मैं समर्थ नहीं हूँ ॥७६ - ८०॥
उन ( विप्र वामन ) महात्माके ऐसा वचन कहनेपर, जब उन्होंने और कुछ ग्रहण नहीं किया तब ऋत्विजों - सहित दानवपतिने हँसकर उन द्विजेन्द्रको तीन पग ( भूमि ) प्रदान कर दी । महान् असुरेन्द्रद्वारा तीन पग भूमि प्रदान की हुई देखकर अनन्त शक्तिवाले यशस्वी एवं विभु वामन भगवानने तीनों लोकोंको नाप लेनेके लिये त्रिविक्रम ( विराट् ) रुप धारण कर लिया । ( विशाल ) रुप धर लेनेक बाद उन्होंने दैत्योंका वध कर ऋषियोंको प्रणाम किया और प्रथम पादन्यासमें ही पर्वत, सागर, रत्नोंकी खान एवं नगरोंसे युक्त पृथ्वीको नापकर ले लिया ॥८१ - ८३॥
देवताओंका प्रिय करनेकी इच्छावाले भगवान् वामनदेवने द्वितीय पगसे तुरंत ही देवताओंके निवास - स्वर्गके साथ ही भुवर्लोक, चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्रोंसे मण्डित आकाशको भी ग्रहण कर लिया । उनका तृतीय पादक्रम जब पूरा नहीं हुआ तो अत्यन्त क्रोधसे भगवान् त्रिविक्रम मेरुके समान शरीरसे दानवश्रेष्ठकी पीठपर गिर पड़े । नारदजी ! वासुदेवके दानवके ऊपर गिरनेसे भूमिमें हजार योजनका सुदृढ़ गड्ढा बन गया ॥८४ - ८६॥
उसके बाद उन्होंने दैत्यको उठाकर जोरसे उसमें फेंक दिया और बालूकी बरसासे उस गड्ढेको भर दिया । उसके बाद वासुदेवकी कृपासे इन्द्रने स्वर्ग पा लिया और उपद्रवोंसे रहित सम्पूर्ण देवोंको त्रिलोकीकी प्राप्ति हो गयी । कालिन्दी भी अपना स्वरुप धारणकर वहीं अन्तर्हित हो गयी । प्राचीन कालमें इस प्रकार धुन्धुको जीतनेके लिये विष्णु भगवान् वामन तथा ( उसके बाद ) त्रिविक्रम बने । महर्षि नारदजी ! वह पुण्यात्मा दैत्येन्द्रपुत्र प्रह्लाद ( तीर्थ - यात्राके प्रसङ्गमें ) उसी आश्रममें गया ॥८७ - ९०॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अठहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७८॥