श्री भगवान् बोले - मेरा प्रथम विशाल मत्स्यरुप मानससरोवरमें स्थित है । वह कीर्तने और स्पर्श आदिसे सभी पापोंका विनाश करनेवाला है । दूसरा पापका विनाश करनेवाला मेरा कूर्मावतार कौशिकी नदीमें स्थित है । कृष्णांशमें हयशीर्ष और हस्तिनापुरमें गोविन्द नामसे विराजमान् हैं । कालिन्दीमें त्रिविक्रम तथा लिङ्गभेदमें व्यापक भव, केदार - तीर्थमें माधव, शौरि और कुब्जाम्रमें हष्टमूर्धज स्थित हैं । बदरिकाश्रममें नारायण, वाराहमें गरुडासन, भद्रकर्णमें जयेश एवं विपाशा नदीके तटपर द्विजप्रिय विद्यमान हैं । इरावतीमें रुपधार, कुरुक्षेत्रमें कुरुध्वज, कृतशौचमें नृसिंह और गोकर्णमें विश्वकर्मा वर्तमान हैं । प्राचीन स्थानमें कामपाल, महाम्भसमें पुण्डरीक, विशाखयूपमें अजित तथा हंसपदमें हंसरुप विद्यमान हैं । पयोष्णीमें अखण्ड, वितस्तामें कुमारिल, मणिमान् पर्वतपर शम्भु एवं ब्रह्मण्यमें प्रजापति रुप स्थित हैं । मुनिश्रेष्ठ ! मधुनदीमें चक्रधर, हिमालयमें शूलबाहु और ओषधिप्रस्थमें मेरे विष्णु - रुपको अवस्थित जानें ॥१ - ८॥
भृगुतुङ्गमें सुवर्णाक्ष, नैमिषमें पीतवासा एवं गयामें गोपति गदाधर ईश्वररुपसे वर्तमान हैं । गोप्रतारमें वरदायक तीनों लोकोंके स्वामी कुशेशय एवं पवित्र महेन्द्र पर्वतपर दक्षिणमें अर्धनारीश्वर रुप विद्यमान है । महेन्द्र पर्वतपर, उत्तरमें सोमपीथी गोपाल, सह्याद्रि पर्वतपर वैकुण्ठ एवं पारियात्रमें अपराजितरुप स्थित है । कशेरुदेशमें तपोधन विश्वरुप देवेश, मलय पर्वतपर सौगान्धि तथा विन्ध्यपादमें सदाशिव रुप वर्तमान है । ब्रह्मर्षे ! अवन्तिदेशमें विष्णु, निषधदेशमें अमरेश्वर और पाञ्चालदेशमें मेरा पाञ्चालिक रुप अवस्थित है । महोदयमें हयग्रीव, प्रयागमें योगशायी, मधुवनमें स्वयम्भुव और पुष्करमें अयोगान्धि रुप विद्यमान है । विप्रश्रेष्ठ ! उसी प्रकार वाराणसीमें मेरा केशवरुप तथा यहींपर अविमुक्तक तथा लोलरुप स्थित कहा गया है । पद्मामें पद्मकिरण, समुद्रमें वडवामुख तथा कुमारधारमें बाह्लीश और वहीं कार्तिकेयरुपसे स्थित हैं ॥९ - १६॥
अजेशमें अनघ शम्भु तथा कुरुजाङ्गलमें स्थाणुमूर्ति हैं । किष्किन्धाके निवासी लोग मुझे वनमाली कहते हैं । नर्मदाके क्षेत्रमें मुझे वीर, कुवलयारुढ, शङ्ख - चक्र - गदाधर, श्रीवत्साङ्क एवं उदाराङ्ग श्रीपति कहा जाता है । माहिष्मतीमें मेरा त्रिनयन एवं हुताशन रुप विद्यमान हैं । इसी प्रकार अर्बुदमें त्रिसौपर्ण एवं शूकराचलमें मेरा क्ष्माधर रुप अवस्थित है । ब्रह्मर्षे ! प्रभासमें मेरा त्रिणाचिकेत, कपर्दी और तृतीय शशिशेखर रुप विख्यात है । उदयगिरिमें चन्द्र, सूर्य और ध्रुव - ये तीन मूर्तियाँ अवस्थित हैं । मुने ! हेमकूटमें हिरण्याक्ष एवं शरवणमें स्कन्दनामक रुप विद्यमान है । मुनिश्रेष्ठ ! महालयमें रुद्र एवं उत्तकुरुमें हर प्रकारका सुख प्रदान करनेवाला पद्मनाभ रुप विख्यात है । ब्रह्मन् ! सप्तगोदावरमें हाटकेश्वर एवं महाहंस तथा प्रयागमें वटेश्वर रुप अवस्थित है । शोणमें रुक्मकवच, कुण्डिनमें घ्राणतर्पण, भिल्लीवनमें महायोग, माद्रमें पुरुषोत्तम रुप विद्यमान है ॥१७ - २४॥
द्विजोत्तम ! प्लक्षावतरणमें विश्वात्मक श्रीनिवास, शूर्पारकमें चतुर्बाहु एवं मगधामें सुधापति रुप स्थित हैं । गिरिव्रजमें पशुपति, यमुनातटपर श्रीकण्ठ एवं दण्डकारण्यमें मेरा वनस्पति रुप विख्यात है । कालिञ्जरमें नीलकण्ठ, सरयूमें उत्तम शम्भु और महाकोशीमें सभी पापोंका विनाश करनेवाला हंसयुक्त रुप स्थित है । दक्षिण गोकर्णमें शर्व, प्रजामुखमें वासुदेव, विन्ध्यओपर्वतके शिखरमें महाशौरि और कन्थामें मधुसूदन रुप विद्यमान है । ब्रह्मन् ! त्रिकूटपर्वतकी ऊँची चोटीपर चक्रपाणि ईश्वर, लौहदण्डमें हषीकेश तथा कोसलामें मनोहर रुप वर्तमान हैं । सुराष्ट्रमें महाबाहु, नवराष्ट्रमें यशोधर, देविका नदीमें भूधर तथा महोदामें कुशप्रिय रुप स्थित है । गोमतीमें छादितगद, शड्खोद्धारमे शड्ग्खी, सैन्धवारण्यमें सुनेत्र एवं शूरपुरमें शूररुप विद्यमान है । हिरण्यवतीमे रुद्र, त्रिविष्टपमें वीरभद्र, भीमामें शड्कुकर्ण और शालवनमें भीमनामक रुपको लोग जानते हैं ॥२५ - ३२॥
कैलासमें वृषभध्वज और विश्वामित्र, महिलाशैलमें महेश और कामरुपमें शशिप्रभ रुप वर्तमान हैं । बलभीमे गोमित्र, कटाहमें पड्कजप्रिय, सिंहलद्वीपमें उपेन्द्र एवं शक्राह्वमें कुन्दमाली नामक रुप स्थित है । मुने ! रसातलमें विख्यात सहस्त्रशीर्षा एवं कालाग्नि - रुद्र तथा कृत्तिवासा नामक रुप विद्यमान हैं । गुरो ! सुतलमें अचल कूर्म, वितलमें पड्कजासन तथा महातलमें छागलेश्वर नामक विख्यात देवेशरुप स्थित है । तलमें सहस्त्रचरण, सहस्त्रबाहु एवं मुसलसे दानवको आकृष्ट करनेवाला मेरा सहस्त्राक्ष रुप अवस्थित है । पातालमें योगीश हरिशड्कर, धरातलपर कोकनद तथा मेदिनीमें चक्रपाणि - रुप वर्तमान है । भुवलोंकमें गरुड, स्वर्लोकमें अव्यय विष्णु, महर्लोंकमें अगस्त्य तथा जनलोकमें कपिल नामक रुप विद्यमान है । ब्रह्मन् ! तपोलोकमें सत्यसे संयुक्त अखिल वाड्मय एव सप्तम ब्रह्मलोकमें ब्रह्मा नामक रुप प्रतिष्ठित है ॥३३ - ४०॥
शिवलोकमें सनातन, विष्णुलोकमें परम ब्रह्म, निरालम्बमें अप्रतर्क्य और निराकाशमें तपोमय नामक रुप स्थित है । मुनिश्रेष्ठ ! जम्बूद्वीपमें पद्मनाभ, शाल्मलद्वीपमें वृषभध्वज, शाकद्वीपमें सहस्त्रांशु तथा पुष्करद्वीपमें धर्मराज नामक रुप विद्यमान हैं । ब्रह्मर्षे ! इसी प्रकार पृथ्वीमें मैं शालग्रामके भीतर अवस्थित हूँ । इस प्रकार जलसे लेकर स्थलपर्यन्त समस्त चराचरमें मैं वर्तमान हूँ । ब्रह्मन् ये ही मेरे पुण्य, पुरातन एवं सनातन धर्मप्रद, अत्यन्त ओजस्वी, सड्कीर्तनके योग्य एवं अघोंके नाश करनेवाले निवास - स्थान हैं । देव, मनुष्य और साध्यलोग देवताके कीर्तन, स्मरण, दर्शन और स्पर्श करनेसे ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करते हैं । विप्र ! मैंने आपसे अपने इन तपोमय स्थानोंको कह दिया । हे विप्र ! अब आप उठिये; देवताओंका हित - साधन करनेके लिये मैं बलिके यज्ञमें जाता हूँ ॥४१ - ४७॥
पुलस्त्यजी बोले - महर्षे ! महात्मा विष्णु महर्षि भरद्वाजसे इस प्रकारका वचन कहकर मनोहर चालसे चलते हुए गिरीन्द्रसे कुरुजाड्गलमें पहुँचे ॥४८॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें नवासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८९॥