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अध्याय ६४

श्रीवामनपुराण - अध्याय ६४

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


दण्डने कहा - अरजे ! वहाँ वीर सुरथका स्मरण करते हुए आनन्दपूर्वक चित्राङ्गदाका लंबा समय व्यतीत हो गया । मुनिद्वारा शापित हो जानेके कारण विश्वकर्मा भी बन्दर हो गये । होनहारवश वे मेरुकी ऊँची चोटीसे गिरकर पृथ्वीपर आ गये । सुन्दरि ! ( फिर ) वे शालूकिनी नदीके निकट घने झुरमुटोंसे भरे भयङ्कर वनवाले नदीके निकट घने झुरमुटोंसे भरे भयङ्कर वनवाले पर्वतश्रेष्ठ शाल्वेपगर रहने लगे । वरारोहे ! उस वनमें फल - मूल खाकर रहते हुए उनके बहुत वर्षोंके युग निकल गये ॥१ - ४॥

एक समय कन्दर नामका दैत्य वीर ' देववती ' नामसे प्रसिद्ध अपनी प्रिय पुत्रीको साथ लेकर वहाँ आया । उसके बाद पिताके साथ वनमें आ रही उस सुन्दरीको उस वानरश्रेष्ठने देखा, ( उसने ) बलपूर्वक उसका हाथ पकड़ लिया । शुभे ! दैत्य कन्दर अपनी कन्याको बन्दरसे पकड़ी गयी देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और तलवार उठाकर दौड़ पड़ा । बलशाली बन्दर ( अपने पीछे ) उस दैत्येन्द्रको आते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और तलवार उठाकर दौड़ पड़ा । बलशाली बन्दर ( अपने पीछे ) उस दैत्येन्द्रको आते देखकर उस सुन्दरी कन्याको साथ लिये हिमालयपर चला गया ॥५ - ८॥

उसने यमुनाके तटपर महादेव श्रीकण्ठका दर्शन किया । ( उसने ) उससे थोड़ी दूरपर ऋषियोंसे रहित एक दुर्गम आश्रम भी देखा । उस पवित्र महाश्रममें देववतीको रखकर वह बन्दर दैत्य कन्दरके देखते - देखते कालिन्दी ( के जल ) - में डूब गया । उस कन्दरने बन्दरके साथ पुत्रीको ( डूबकर ) मरी हुई समझ लिया । अतः ( निराश होकर ) वह महातेजस्वी पातालमें स्थित अपने घरमें चला गया और वेगपूर्वक उस बन्दरको भी देवी कालिन्दी शुभजनोसे व्याप्त शिवि नामसे प्रसिद्ध स्थानमें बहाकर ले गयी ॥९ - १२॥

उसके बाद महातेजस्वी उस बन्दरने तेजीसे तैरकर उसे पार करनेके बाद उस पर्वतपर जानेकी इच्छा की, जहाँ वह सुनयना रखी गयी थी । इसके बाद उसने नन्दयन्ती नामकी पुत्रीके साथ आते हुए श्रेष्ठ गुह्यक अञ्जनको देखा । जानेकी इच्छा करनेवाला वह बन्दर ( उसके ) निकट गया । उसे देखकर श्रीमान् कपिने सोचा कि सचमुच यह वही देववती है । अतः जलमें डूबनेका मेरा परिश्रम व्यर्थ हो गया । इस प्रकार सोचता हुआ वह बन्दर उस सुन्दरीकी ओर दौड़ा । उसके भयसे वह कन्या हिरण्वती नदीमें कूद पड़ी ॥१३ - १६॥

कन्याको नदीके जलमें कूदती हुई देखकर गुह्यक दुःख और शोकसे विह्वल होता हुआ अञ्जन पर्वतपर चला गया । वह महातेजस्वी वहाँ पवित्रतापूर्वक मौनव्रत धारण करके बहुत वर्षोंतक तप करता रहा । हिरण्वती भी ( जलधाराके ) वेगसे नन्दयन्तीको भी बहा ले गयी और सज्जनोंसे सेवित महापवित्र कोशल देशमें उसे पहुँचा दिया । जाते समय रोती हुई उसने जटाधारी शङ्करकी भाँति बरोहोंसे घिरी हुई जड़वाले एक वटवृक्षको देखा ॥१७ - २०॥

वह सुमुखी घनी छायावाले उस वृक्षको देखकर एक पत्थरपर बैठ गयी और विश्राम करने लगी । उसके बाद उसने यह वाणी सुनी - ' क्या कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो उस तपोधन ( ऋतध्वज ) - से कहे कि तुम्हारा वह पुत्र वटवृक्षमें बँधा हुआ है । ' उसने उस समय सुस्पष्ट अक्षरोंसे युक्त उस वाणीको सुनकर चारों ओर ऊपरनीचे देखा । शुभे ! ( तब ) उसने वृक्षकी सबसे ऊँची चोटीपर यत्नपूर्वक पिङ्गलवर्णकी जटाओंसे बँधे पाँच वर्षके एक बालकको देखा ॥२१ - २४॥

अत्यन्त दुःखित होती हुई नन्दयन्तीने उस बोलनेवालेको ऊपर देखकर कहा - अरे बालक ! बतलाओ, किस पापीने तुम्हें बाँधा है ? उस बालकने उससे कहा - महाभागे ! एक महादुष्ट बन्दरने मुझे जटाओंद्वारा इस वटमें बाँध दिया है । मैं अपने तपोबलसे ही जी रहा हूँ । पहले उन्मत्तपुरमें देव महेश्वर प्रतिष्ठित थे । वहाँ तपके राशिस्वरुप ( महातपस्वी ) मेरे पिता ऋतध्वज निवास करते थे । महायोगका जप - तप कर रहे उन महात्माका मैं सभी शास्त्रोंमें निपुण एवं भौरोंके समूहसे युक्त पुत्र उत्पन्न हुआ ॥२५ - २८॥

शुभानने ! पिताजीने मेरा नाम जाबालि रखकर मुझसे जो कुछ कहा, उसे सुनो । उन्होंने कहा - तुम पाँच हजार वर्षोंतक बालक रहोगे एवं दस हजार वर्षोंतक कुमार रहोगे । बीस वर्षोंतक तुम्हारा पराक्रमपूर्ण यौवन रहेगा और उसके बाद उसके दुगुने समयतक बुढ़ापेकी स्थिति रहेगी । बाल्यावस्थामें पाँच सौ वर्षोंतक तुम्हें दृढ़ बन्धन भोगना पड़ेगा । उसके बाद एक हजार वर्षोंतक कुमारावस्थामें दो हजार वर्षोंतक तुम उत्तम भोगोंको प्राप्त करोगे ॥२९ - ३२॥

बुढ़ापेमें चालीस सौ वर्षोंतक अत्यन्त क्लेश भोगना होगा । उस समय तुम्हें भूमिपर सोना तथा कुत्सित - अन्न - कदन्न - साँवा, कोदो ( आदि ) - का भोजन करना पड़ेगा । पिताके इस प्रकार कहनेके उद्देश्यसे पृथ्वीपर विचरता हुआ जा रहा था । उस समय मैंने एक श्रेष्ठ बन्दरको देखा । उसने मुझसे कहा - अरे मूढ़ ! इस महान् आश्रममें रखी हुई इस देववतीको लेकर तू कहाँ जा रहा है ? सुन्दरि ! उसके बाद उसने छटपटाते हुए मुझको पकड़कर प्रयत्नपूर्वक इस वटवृक्षके शिखरपर जटाओं ( बरोहों ) - से बाँध दिया ॥३३ - ३६॥

भीरु ! उस कुमति बन्दरने बहुत - से लता - जालोंसे एक महान् यन्त्र ( छज्जा ) बनाकर उसके नीचे मुझे स्थापित कर दिया और सदा मेरी रक्षा करता रहा । सभी दिशाओंमें चारों ओरसे बनाया गया वह लतायन्त्र न तो टूट सकता है और न किसी प्रकार ऊपर या नीचेसे इसके ऊपर आक्रमण ही किया जा सकता है । वह श्रेष्ठ बन्दर मुझको बाँधकर स्वेच्छासे अमर पर्वतपर चला गया । शुभे ! मैंने जो कुछ देखा था उसे तुमसे कह दिया । सुन्दरि ! मुझे बतलाओ कि तुम कौन हो एवं इस विस्तृत वनमें अकेली तुम किसके साथ आयी हो ? ॥३७ - ४०॥

उसने कहा - गुह्यकराज अञ्जन मेरे पिता हैं । मेरा नाम नन्दयन्ती है । मेरा जन्म प्रम्लोचाके गर्भसे हुआ है । मेरे जन्मके समय मुद्गल ऋषिने कहा था कि यह कन्या भविष्यमें राजरानी बनेगी । उनके कहनेके समय ही स्वर्गमें दुन्दुभि बजने लगी तथा तत्काल ही अमङ्गलसूचक शब्दवाली सियारिन बोलने लगी । उसके बाद मुनिने पुनः कहा - इसमें संदेह नहीं कि यह बालिका महाराजकी महारानी होगी । परंतु कन्या - अवस्थामें ही यह भयङ्कर विपत्तिमें पड़ जायगी । इस प्रकारका अद्भुत वचन कहकर वे ऋषि चले गये ॥४१ - ४४॥

उसके बाद मेरे पिताने तीर्थयात्रा करनेकी इच्छा की । इसी बीच मुझे ( अपने साथ ) लेकर बन्दर हिरण्वतीके तटसे उछला । उसके डरसे मैंने अपनेको समुद्रमें गिरनेवाली नदीके जलमें गिरा दिया ( मैं नदीमें कूद पड़ी ) । उस नदीके भीषण प्रवाहसे मैं इस निर्जन देशमें आ गयी हूँ । जाबालिने उसकी कही हुई बातको सुनकर कहा - सुन्दरि ! तुम यमुनाके किनारे श्रीकण्ठके पास जाओ । वहाँ मेरे पिताजी मध्याह्नमें शिवजीकी पूजा करनेके लिये आते हैं । तुम वहाँ जाकर उनको अपना समाचार सुनाओ । इससे तुम्हारा कल्याण होगा ॥४५ - ४८॥

उसके बाद नन्दयन्ती अपनी रक्षाके लिये शीघ्रतापूर्वक हिमाचलसे चल पड़ी और यमुनाके तीरपर स्थित तपोनिधि ( ऋतध्वज ) - के पास पहुँच गयी । कन्द - मूल - फल खाती हुई वह कुछ ही समयमें शङ्करके ( भी ) उस स्थानपर पहुँची जहाँ तपस्वी आया करते थे । महामुने ! उसके बाद उसने विश्ववन्दित देवाधिदेव श्रीकण्ठकी पूजा कर उन ( लिखे ) अक्षरोंको देखा । उनका अर्थ जानकर मधुर मुस्कान करती हुई उसने जाबालिद्वारा कथित श्लोक तथा अपना एक अन्य श्लोक लिखा ॥४९ - ५२॥

' महर्षि मुदगलने कहा था कि मैं राजपत्नी होऊँगी, किंतु मैं इस अवस्थामें आ गयी हूँ । क्या कोई मेरा उद्धार करनेमें समर्थ है ? ' शिलापट्टपर यह लिखकर वह स्त्रान करनेके लिये यमुनाके किनारे चली गयी और उस स्थानपर मतवाली कोकिलोंके स्वरों ( काकली ) - से निनादित एक सुन्दर आश्रम देखा । उसने सोचा - इस स्थानपर श्रेष्ठ ऋषि अवश्य रहते होंगे । ऐसा सोचती हुई उस महान् आश्रममें प्रविष्ट हुई । उसके बाद उसने दैवी शोभासे युक्त, मुर्झायी हुई कमलिनीके समान सूखे मुख एवं चञ्जल नेत्रोंवाली देववतीको वहाँ बैठी हुई देखा ॥५३ - ५६॥

देववतीने यक्षपुत्रीको आती हुई देखा और यह कौन है - ऐसा विचारकर वह उठ खड़ी हुई । उसके बाद सखीभावसे उन दोनोंने आपसमें गाढ़ आलिङ्गन किया - वे एक - दूसरेके गले लगीं तथा परस्पर पूछताछ और बातचीत करने लगीं । वे दोनों उत्तम ललनाएँ एक दूसरीकी सच्ची घटनाओंको जानकर बैठ गयीं एवं आदरपूर्वक अनेक प्रकारकी कथाएँ कहने लगीं । इसी बीच वे तत्त्वज्ञाता मुनिश्रेष्ठ श्रीकण्ठके निकट स्त्रान करनेके लिये आये और उन्होंने पत्थरपर लिखे हुए अक्षरोंको देखा ॥५७ - ६०॥

उन्हें देख और पढ़कर तथा उनका अर्थ समझकर वे तपोनिधि एक क्षणमें ध्यान लगाकर ( सब कुछ ठीक - ठीक ) जान गये । उसके बाद महर्षि ऋतध्वज शीघ्रतासे देवेश्वरकी पूजा कर राजा इक्ष्वाकुका दर्शन करनेके लिये तुरंत ही अयोध्या चले गये । श्रेष्ठ नरपतिका दर्शन करके तपस्वी ऋतध्वजने कहा - नरशार्दूल ! राजन् ! मेरी विज्ञप्ति ( याचिका ) सुनिये । राजन् ! आपके ही राज्यकी सीमामें एक बन्दरने सर्वशास्त्रोंमें निपुण, अच्छे गुणोंसे युक्त मेरे पुत्रको बाँध रखा है ॥६१ - ६४॥

राजेन्द्र ! अस्त्र - विधिमें पारङ्गत आपके शकुनि नामक पुत्रके सिवाय दूसरा कोई उसे छुड़ा नहीं सकता । कृशोदरि ! मुनिके उस वचनको सुनकर मेरे पिताने अपने पुत्र ( मेरे भाई ) शकुनिको उन तपस्वीके पुत्रके ( बन्धन छुड़ानेके ) सम्बन्धमें उचित आदेश दिया । उसके बाद पिताके द्वारा भेजा गया वह शक्तिशाली मेरा भाई उन श्रेष्ठ ऋषिके साथ ही बन्धनके स्थानपर आया । चारों ओर बरोहोंसे ढके हुए अत्यन्त ऊँचे वटवृक्षको देखनेके बाद उसने वृक्षकी ऊँची चोटीपर बँधे हुए ऋषिके पुत्रको ( बँधा हुआ ) देखा ॥६५ - ६८॥

( फिर ) उसने ( फैले हुए ) उन समस्त लताजालोंको चारों ओरसे ( अच्छी तरह ) देखा एवं बड़के पेड़में अपनी जटाओंसे बँधें मुनिपुत्रको देखकर उस पराक्रमीने धनुष लेकर उसकी प्रत्यञ्चा ( डोरी ) चढ़ायी एवं वह ऋषिपुत्रकी रक्षा करते हुए निपुणतासे बाणोंद्वारा लताजालोंको काटने लगा । पाँच सौ वर्ष बीत जानेपर चारों ओर बन्दरके द्वारा बनाया गया लताजाल बाणोंसे जब काट दिया गया तब ऋषि ऋतध्वज लताओंसे ढके उस वटवृक्षपर शीघ्र चढ़ गये । जाबालिने अपने पिताको आया देखकर बँधे रहनेपर भी अत्यन्त आदरके साथ यथाविधि सिरसे ( सिर झुकाकर ) प्रणाम किया । उन मुनिने ( पुत्रका ) मस्तक सूँघकर उसको अच्छी तरह गले लगाया ॥६९ - ७३॥

फिर वे बन्धन खोलने लगे; परंतु अत्यन्त दृढ़ बन्धनको वे खोल न सके । तब पराक्रमी शकुनि शीघ्र ही धनुष और बाणोंको रखकर जटा खोलनेके लिये बरगदके पेड़पर चढ़ गया । पर ( वह भी ) कपिद्वारा दृढ़तापूर्वक बनाये गये बन्धनको खोल न सका । जब वह जटाओंको नहीं खोल सका, तब श्रेष्ठ ऋषिके साथ शकुनि नीचे उतर आया । फिर उसने धनुष एवं बाण लिया तथा एक शरमण्डप बनाया । उसके बाद उसने हल्के हाथ अर्द्धचन्द्राकार बाणोंसे उस शाखाको तीन टुकड़ोंमें काट दिया । कटी हुई शाखाके साथ ही भारवाही तपोधन बाणकी सीढ़ियोंके मार्गसे वृक्षके नीचे उतर आये । राजाके धनुर्धारी पुत्रध्वारा अपने पुत्रकी रक्षा हो जानेके बाद ऋतध्वज भारवाही जाबालिके साथ सूर्यपुत्री ( यमुना ) नदीके तटपर गये ॥७४ - ७९॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौंसठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६४॥

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Last Updated : January 24, 2012

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