मार्कण्डेयने कहा - निष्पाप ! चार मुखों और ब्रह्मेश्वरओंकी उत्पत्तिको विस्तारपूर्वक सुननेकी मेरी इच्छा हो रही है ( अतः आप उसे सुनानेकी कृपा करें ) ॥१॥
सनत्कुमार बोले - अनघ ! सृष्टिकी कामना करनेवाले एवं कमलसे उत्पन्न होनेवाले ब्रह्माका जो वृत्तान्त है, उसे मैं तुमसे पूर्णतः कहता हूँ, सुनो । लोक - पितामह भगवान् ब्रह्माने उत्पन्न होते ही पहले अचर और चररुप सम्पूर्ण भूतोंकी रचना की । पुनः उनके सृष्टिकी चिन्ता करनेपर एक नीले कमलदलके समान श्याम, पतले मध्य भागवाली, सुलोचना, मनो - मोहिनी कन्या उत्पन्न हुई । उस मनोहर कन्याको देखकर ब्रह्माने उसे संतानोत्पति हेतु बुलाया । ( बस ), उस महान् पापसे ब्रह्माका मस्तक गिर गया ॥२ - ५॥
वे ( ब्रह्माजी ) उस गिरे मस्तकको लेकर सभी पापोंका विनाश करनेवाले तीनों लोकोंमें विख्यात सान्निहत्यसर नामके तीर्थमें लोकोंमें विख्यात सेवित उस पवित्र स्थाणुतीर्थमें सरस्वतीके उत्तरी तटपर चतुर्मुख - ( चार मुखवाले शिवलिङ्ग ) - को स्थापित कर प्रतिदिन मनोरम धूप, गन्ध, सुन्दर उपहारों एवं रुद्रसूक्तोंसे उसकी उपासना करने लगे । उनके इस प्रकार भक्तिपूर्वक शिवपूजामें तन्मय हो जानेपर भगवान् नीललोहित ( शंकरजी ) स्वयं ही वहाँ आ गये । लोकपितामह ब्रह्माने उन आये हुए शिवको देखकर सिर झुकाकर प्रणाम किया और पुनः वे ( ब्रह्माजी ) उन ( शिव ) - की स्तुति करने लगे ॥६ - १०॥
ब्रह्माने कहा - भूत, भव्य तथा भवके आश्रयस्वरुप महादेवजी ! आपको नमस्कार है । नित्य - स्तुति किये जानेवाले और तीनों लोकोंके रक्षक ! आपको नमस्कार है । सभी पापोंको नष्ट करनेवाले एवं पवित्र देहवाले ! आपको नमस्कार है । चर और अचरके गुरु ! आप रहस्योंके भी रहस्यको ( गुप्त - से - गुप्त तत्त्वको ) प्रकाशित करनेवाले हैं । वैद्योकी दवाओंसे दुर न होनेवाले सभी रोगोंका विनाश करनेवाले ! रुरुमृगचर्मधारी ! शोकसे रहित शिव ! आपको नमस्कार है । जलकी उत्ताल तरङ्गोंसे महाबुद्धिके विघटन करनेमें ( स्वयं भी ) संक्षुब्ध देव ! आपके नामका जप करनेवाले प्राणी संसारमें नहीं पड़ते ॥११ - १४॥
नित्यके भी नित्य आपको नमस्कार है । तीनों लोकोंके पालक ! कल्याणकारी ( निश्चयात्मिका बुद्धिसे भी अगम्य ) अप्रेमय शारीरिक - मानसिक रोगोंके नाश करनेवाले आपको नमस्कार है । सबसे परे, अपरिमेय ( मापमें न आने लगा ), एवं सभी प्रानियोंके प्रिय एव सिद्धो तथा वन्दियोंके द्वारा स्तुत आपको नमस्कार है । संसारके प्रणियोंए लिये दुर्ग बने हुग आप विश्वकरके लिये नमस्कार है । सर्पराजके द्वारा बखानी गयी महिमावाले, सर्पराजके बाजूबंद एवं माला धारण करनेवाले भास्करस्वरुप ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥१५ - १८॥
इस प्रकार स्तुति किये जानेपर शंकरने ब्रह्मासे कहा - ब्रह्मन् ! जो कार्य अवश्यम्भावी हैं उसके विषयमें आपको कभी भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । पहले वराह - कल्पमें मैंने आपका जो मस्तक अपहत किया था वही चार मुख हो गया । अब वह कभी विनष्ट नहीं होगा । इस सान्निहिततीर्थमें भक्तिपूर्वक मेरे लिङ्गोंकी प्रतिष्ठा करके आप सभी पापोंसे छूट जायँगे । प्राचीनकालमें सृष्टि रचनेकी इच्छासे आपने मुझे अनुप्रेरित किया था, अन्थ मैं ' ऐसा ही होगा ' यह कहकर भूतोंके देशमें रहनेवालेकी भाँति दीर्घकालतक तप करके संनिहितमें विलीन होकर स्थित रहा । उसके बाद आपने बहुत दिनोंतक मेरी प्रतीक्षा की ॥१९ - २३॥
फिर आपने अपने मनमें सभी प्राणियोंकी सृष्टि करनेवालेक ध्यान किया । तब उन्होंने मुझे वहाँ जलमे विलीन देखकर आपसे कहा कि यदि मुझसे अन्य कोई बड़ा पहले हुआ न माना जाय तो मैं प्रजाकी सृष्टि करुँगा । आपने कहा - आपके सिवा कोई दूसरा अग्रज पुरुष नहीं है । ये स्थाणु जलमें वित्तीन तथा विवश पड़े हैं । आप मेरा कल्याण करें । फिर उन्होंने दक्ष आदि प्रजापतियों तथा समस्त भूतोंकी सृष्टि की ॥२४ - २६॥
( इस तरह ) जिन्होंने इस चार प्रकारके प्राणिसमुदायको उत्पन्न किया, सृष्टि होत्री ही वे सभी प्रजाएँ क्षुधित हो गयीं और प्रजापतिको खानेकी इच्छासे उन्हींपर लपक पड़ीं । जब उन्होंने उन्हींका भक्षण करनेकी चेष्टा की, तब त्राण पानेकी इच्छासे वे, पितामहके पास दौड़कर गये और उनसे बोले - प्रजाओंकी जीविकाका विधान कीजिये । फिर आपने उन्हें अन्न ( जीवन - साधन ) प्रदान किया । अचल प्राणियोंकी महौषधियाँ और निर्बल चल प्राणी शक्तिशाली प्राणियोंके अन्न ( प्राणन - शक्ति ) बने । इस प्रकार जीवन - निर्वाहके लिये प्राणन - शक्तिका विधान हुआ । फिर सभी प्रजाएँ अपने स्थानको लौट गयीं ॥२७ - ३०॥
फिर तो वे सब परस्पर प्रेमपूर्वक रहकर बढ़ने लगे । प्राणि - समुदायके बढ़ने एवं लोकके गुरु आपके हर्षित होनेपर मैंने उस जलसे निकलकर प्रजाको देखा । उसके बाद अपने तेजसे उत्पन्न हुई उन प्रजाओंको देखकर भारी क्रोधसे भरकर मैंने लिङ्गको उखाड़कर फेंक दिया । तालाबके बीचमें फेंका गया वह ( लिङ्ग ) ऊपर स्थित हो गया । तभीसे वह ( लिङ्ग ) संसारमें ' स्थाणु ' नामसे प्रसिद्ध हो गया । इस ( लिङ्ग ) - का एक बार भी दर्शन करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे छूटकर मोक्षपद प्राप्त कर लेता हैं; जहाँसे वह फिर नहीं लौटता । कृष्णाष्टमीके दिन मनको शान्त - समाहित कर इस तीर्थमें निवास करनेवाला व्यक्ति अगम्यागमनसे होनेवाले सबी पापोंसे छूट जाता है - ऐसा कहकर भगवान् महादेव वहीं अन्तर्हित हो गये ॥३१ - ३६॥
पापके शोधन हो जानके कारण ब्रह्माने भी चतुर्मुख महादेवका पूजन कर तालाबके बीचमें देवाधिदेव ( शिव ) - के लिङ्गोंकी सृष्टि की । पहले तो उन्होंने हरिकी बगलमें ब्रह्मसरको स्थापित किया और दूसरा अपने आश्रम ब्रह्मसदनका निर्माण किया । उसीकी पूर्व दिशामें ब्रह्माने तृतीय लिङ्गको एवं सरस्वती नदीके तटपर चतुर्थ लिङ्गको प्रतिष्ठित किया । जो प्राणी उपवासव्रतपूर्वक इन पवित्र और पापनाशक ब्रह्मतीर्थोंका दर्शन करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त करते हैं ॥३७ - ४०॥
सत्ययुगमें हरिकी बगलमें, त्रेतामें ब्रह्माके आश्रममें, द्वापरमें उसके पूर्व तथा कलिमें सरस्वतीके तटपर स्थित लिङ्गोंका भक्तिपूर्वक पूजन एवं दर्शनं करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे छूटकर परम गतिको प्राप्त करते हैं । सृष्टि करनेके समय सरस्वतीके उत्तरी तटपर भगवान् ब्रह्मासे अर्चित भगवान् महेश्वर चतुर्मुख नामसे विख्यात हुए । मनुष्य उनको श्रद्धाके साथ प्रणाम कर लोलासाङ्कर्य ( चंचलासे उत्पन्न वर्णसंकर ) तथा वैभाण्डसाङ्कर्यसे उत्पन्न सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥४१ - ४४॥
उसी प्रकार द्वापरयुगके आनेपर अपने आश्रममें शङ्करका पूजन कर ब्रह्मा वर्णसाङ्क्तर्यसे उत्पन्न होनेवाले रजोगुणके भावोंसे मुक्त हुए । मनुष्य कृष्णचतुर्दशी तिथिमें वहाँ शङ्करजीका पूजन कर अभक्ष्य अन्नके भक्षण करनेसे होनेवाले समस्त पापोंसे विमुक्त हो जाता है । कालिकाल आनेपर वसिष्ठाश्रममें स्थित होकर ब्रह्माने चतुर्मुख ( शङ्कर ) - की स्थापना की तथा उत्तम सिद्धि प्राप्त की । जो लोग वहाँ निराहार, श्रद्धायुक्त और जितेन्द्रिय होकर महादेवकी पूजा करेंगे, वे परमपदको प्राप्त करेंगे । इस प्रकार मैंने आपसे स्थाणुतीर्थका माहात्म्य बताया, जिसे सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥४५ - ४९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उनचासवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४९॥