पुलस्त्यजी बोले - प्रह्लादने जब हाथमें शार्ङ्गधनुष लिये भगवान् नारायणको सामनेसे आते देखा तो अपनी गदा घुमाकर वेगसे उनके सिरपर प्रहार कर दिया । नारदजी ! गदासे प्रताडित होनेपर नारायणके नेत्रोंसे आगके स्फुलिंगके समान आँसू पृथ्वीपर गिरने लगे । ब्रह्मन् ! पर्वतकी चोटीपर गिरकर जैसे वज्र टूट जाता है, उसी प्रकार दानवद्वारा नारायणके सिरपर चलायी गयी वह गदा भी सैकड़ों टुकड़े हो गयी । उसके बाद शीघ्रतापूर्वक लौटकर वीर दैत्येन्द्रने रथपर आरुढ़ हो धनुष लेकर अपनी तरकससे बाण निकाल लिया ॥१ - ४॥
फिर क्रोधान्ध प्रह्लादने शीघ्रतासे धनुषको चढ़ाकर गृध्रके पंखवाले अनेक बाणोंको नारायणकी ओर चलाया । नारायणने भी बड़ी शीघ्रतासे अपनी ओर आ रहे उन अर्धचन्द्र - तुल्य बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला और कुछ दूसरे बाणोंस्से प्रह्लादको विद्ध कर दिया । तब दैत्यने नारायणको और नारायणने दैत्यको - एक - दूसरेको - मर्मभेदी एवं सीधे चलनेवाले बाणोंसे वेध दिया । मुने ! उस समय शीघ्रतापूर्वक हो रहे इस कौशलयुक्त विचित्र एवं सुन्दर युद्धको देखनेकी इच्छावाले देवताओंका समूह आकाशमें एकत्र हो गया ॥५ - ८॥
उसके बाद बड़े जोरसे बजनेवाले नगाड़ोंका बजाकर देवताओंने भगवान् नारायणके और दैत्यके ऊपर अनुपमरुपमें पुष्पोंकी वर्षा की । फिर उन दोनों धनुर्धारियोंने आकाशमें स्थित देवताओंके सामने दर्शकोंको आनन्द देनेवाला ( दिलचस्प ) अनूठा युद्ध किया । उस समय उन दोनोंने बाणोंकी वृष्टिसे आकाशको मानो बाँध दिया और बाणवृष्टिसे दिशाओं एवं विदिशाओंको ढक दिया । महामुनि नारदजी ! तब नारायणने धनुषको खींचकर तेज बाणोंसे प्रह्लादके सभी मर्मस्थलोंमें प्रहार किया और फुर्तीवाले दैत्येश्वरने क्रोधपूर्वक धनुषको चढ़ाकर नरोत्तमके हदय, दोनों भुजाओं और मुँहको भी ( बाणोंसे ) बेध दिया ॥९ - १३॥
उसके बाद नारायणने बाण चला रहे प्रह्लादके धनुषके मुष्टिबन्धको अर्धचन्द्रके आकारवाले एक तेजस्वी बाणसे काट दिया । प्रह्लादने भी कटे धनुषको झट फेंककर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और शीघ्र ही उसकी प्रत्यञ्चा ( डोरी ) चढ़ाकर तेज बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी । पर उसके उन शरोंको भी नारायणने बाणोंसे काटकर निवारित कर दिया और उन पुरुषोत्तमने तीक्ष्ण बाणसे उसके धनुषको भी काट डाला । नारदजी ! एक धनुषके छिन्न होनेपर दैत्यराजने बारम्बार दूसरा धनुष ग्रहण किया, किंतु नारायणने लिये हुए उन - उन धनुषोंको भी तुरंत काटकर गिरा दिया ॥१४ - १७॥
फिर धनुषोंके कट जानेपर दैत्यपति प्रह्लादने एक भयंकर, मजबूत और लौत ( फौलाद ) - से बने ' परिघ ' नामक अस्त्रको उठा लिया । उसे लेकर वे दानव ( प्रह्लाद ) चारों ओर घुमाने लगे । उस घुमाये जाते हुए परिघको भी महामुनि नारायणने बाणसे काट दिया । उसके कट जानेपर श्रीमान् दनुजेश्वर प्रह्लादने पुनः एक मुदगरको वेगसे घुमाकर उसे नारायणके ऊपर फेंका । नारदजी ! उस आते हुए मुदगरको भी बलवान् नारायणने दस बाणोंसे दस भागोंमें काट दिया; वह नष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥१८ - २१॥
प्रह्लादने मुदगरके विफल हो जानेपर ' प्राश ' नामका अस्त्र लेकर बड़े जोरसे नरके बड़े भाई नारायणके ऊपर चला दिया; पर उन्होंने उसे भी काट डाला । प्राशके नष्ट हो जानेपर दैत्यने तेज ' शक्ति ' फेंकी, पर बलवान महातपा नारायणे उसे भी अपने क्षुरप्रके द्वारा काट डाला । नारदजी ! उन सभी अस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर प्रह्लाद दूसरे विशाल धनुषको लेकर बाणोंकी वर्षा करने लगे । तब परम तपस्वी जगदगुरु नारायणदेवने प्रह्लादके हदयमें नाराचसे प्रहार किया ॥२२ - २५॥
नारदजी ! अद्भुत पराक्रमी नारायणके प्रहारसे प्रह्लादका हदय बिंध गया, फलतः वे बेहोश होकर वहाँसे हटाकर दूर ले गया । बहुत देरके बाद जब उन्हें चेतना प्राप्त हुई - होश आया, तब वे पुनः सुदृढ़ धनुष लेकर नर - नारायणसे युद्ध करनेके लिये संग्रामभूमिमें आ गये । उन्हें आया देख नारायणने कहा - दैत्येन्द्र ! अब हम कल प्रातः युद्ध करेंगे; तुम भी जाओ, इस समय अपना नित्य कर्म करो । अद्भुत पराक्रमी श्रीनारायणके ऐसा कहनेपर प्रह्लाद नैमिषारण्य चले गये और वहाँ अपने नित्य कर्म सम्पन्न किये ॥२६ - २९॥
नारदजी ! इस प्रकार भगवान् नारायण एवं दानवेन्द्र प्रह्लाद - दोनोंमें युद्ध चलता रहा । रात्रिमें प्रह्लाद यह विचार किया करते थे कि मैं युद्धमें इन दम्भ करनेवाले ऋषिको कैसे जीतूँगा ? नारदजी ! इस प्रकार प्रह्लादने भगवान् नारायणके साथ एक हजार दिव्य वर्षोंतक युद्ध किया, परंतु वे उन्हें ( नारायणको ) जीत न पाये । फिर हजार दिव्य वर्षोंके बीत जानेपर भी पुरुषोत्तम नारायणको न जीत सकनेपर प्रह्लादने वैकुण्ठमें जाकर पीतावस्त्रधारी भगवान् विष्णुसे कहा - देवेश ! मैं ( सरलतास्से ) साध्य नारायणको आजतक क्यों न जीत पाया, आप मुझें इसका कारण बतलायें ॥३० - ३३॥
इसपर पीतावस्त्रधारी भगवान् विष्णु बोले - प्रह्लाद ! महाबाहु धर्मपुत्र नारायण तुम्हारे द्वारा दुर्जेय है । वे ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ ऋषि परम ज्ञानी है । वे सभी देवताओं एवं असुरोंसे भी युद्धमें नहीं जीते जा सकते ॥३४॥
प्रह्लादने कहा - देव ! यदि वे साध्यदेव ( नारायण ) युद्धभूमिमें मुझसे जीते नहीं जा सकते हैं तो मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसका क्या होगा ? वह तो मिथ्या हो जायगी । देवेश ! मुझ - जैसा व्यक्ति हीनप्रतिज्ञ होकर कैसे जीवित रह सकेगा ? इसलिये हे विष्णु ! अब मैं आपके सामने अपने शरीरकी शुद्धि करुँगा ॥३५ - ३६॥
पुलस्त्यजी बोले - भगवानसे ऐसा कहकर दानवेश्वर प्रह्लाद सिरसे पैरतक स्नानकर वहाँ बैठ गये और ' ब्रह्मगायत्री ' का जप करने लगे । उसके बाद पीताम्बरधारी विष्णुने प्रह्लादसे कहा - हाँ, तुम जाओ, तुम उन्हें भक्तिसे जीत सकोगे, युद्धसे कथमपि नहीं ॥३७ - ३८ )
प्रह्लादजी बोले - देवाधिदेव ! सुव्रत ! आपकी कृपासे मैंने तीनों लोकों तथा इन्द्रको भी जीत लिया है; इन धर्मपुत्रकी बात ही क्या है ? हे अज ! यदि ये सदव्रती त्रिलोकीसे भी अजेय हैं तथा आपके प्रसादसे भी मैं उनके सामने नहीं ठहर सकता तो फिर मैं क्या करुँ ? ॥३९ - ४०॥
( इसपर ) भगवान् विष्णु बोले - दानवश्रेष्ठ ! वस्तुतः नारायणरुपमें वहाँ मैं ही हूँ । मैं ही जगतकी भलाईकी इच्छासे धर्मप्रवर्तनके लिये उस रुपमें तप कर रहा हूँ । इसलिये प्रह्लाद ! यदि तुम विजय चाहते हो तो मेरे उस रुपकी आराधना करो । तुम नारायणको भक्तिद्वारा ही पराजित कर सकोगे । इसलिये धर्मपुत्र नारायणकी आराधना करो - इसी अर्थमें वे सुसाध्य हैं ॥४१ - ४२॥
पुलस्त्यजी बोले - मुने ! भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर प्रह्लाद प्रसन्न हो गये । उन्होंने फिर अन्धकको बुलाकर इस प्रकार कहा ॥४३॥
प्रह्लादजी बोले - अन्धक ! तुम दैत्यों और दानवोंका प्रतिपालन करो । महाबाहो ! मैं यह राज्य छोड़ रहा हूँ । इसे तुम ग्रहण करो । इस प्रकार कहनेपर जब हिरण्याक्षके पुत्रने राज्यको स्वीकार कर लिया, तब प्रह्लाद पवित्र बदरिकाश्रम चले गये । वहाँ उन्होंने भगवान् नारायण तथा नरको देखकर हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें प्रणाम किया । महातेजस्वी भगवान् नारायणने उनसे कहा - महासुर ! मुझे बिना जीते ही अब तुम क्यों प्रणाम कर रहे हो ? ॥४४ - ४७॥
प्रह्लाद बोले - प्रभो ! आपको भला कौन जीत सकता है ? आपसे बढ़कर कौन हो सकता है ? आप ही अनन्त नारायण पीताम्बरधारी जनार्दन हैं । आप ही कमलनयन शार्ङ्गधनुषधारी विष्णु हैं । आप अव्यय, महेश्वर तथा शाश्वत परम पुरुषोत्तम हैं । योगिजन आपका ही ध्यान करते हैं । विद्वान पुरुष आपकी ही पूजा करते है । वेदज्ञ आपके नामका जप करते हैं तथा याज्ञिकजन आपका यजन करते हैं । आप ही अच्युत, हषीकेश, चक्रपाणि, धराधर, महामत्स्य, हयग्रीव तथा श्रेष्ठ कच्छप ( कूर्म ) अवतारी हैं ॥४८ - ५१॥
आप हिरण्याक्ष दैत्यका वध करनेवाले ऐश्वर्ययुक्त और भगवान् आदि वाराह हैं । आप ही मेरे पिताको मारनेवाले भगवान् नृसिंह हैं । आप ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण और वायु है । हे स्वामिन् ! हे खगेन्द्रकेतु ( गरुड़ध्वज ! ) आप सुर्य, चन्द्र तथा स्थावर और जंगमके आदि हैं । पृथ्वी, अग्नि, आकाश और जल आप ही हैं । सहस्त्रों रुपोंसे आपने समस्त जगतको व्याप्त किया है । माधव ! आपको कौन जीत सकेगा ? जगदगुरो ! हषीकेश ! आप भक्तिसे ही संतुष्ट हो सकते हैं । हे सर्वगत ! हे अविनाशिन् ! आप दूसरे किसी भी अन्य प्रकारसे नहीं जीते जा सकते ॥५२ - ५५॥
श्रीभगवान् बोले - सुव्रत ! दैत्य ! तुम्हारी इस स्तुतिसे मैं अत्यन्त संतुष्ट हूँ । दैत्य ! अनन्य भक्तिसे तुमने मुझे जीत लिया है । प्रह्लाद ! पराजित पुरुष विजेताको दण्ड ( के रुपमें कुछ ) देता है । परंतु मैं तुम्हारे दण्डके बदले तुम्हें वर दूँगा; तुम इच्छित वर माँगो ॥५६ - ५७॥
प्रह्लादजी बोले - हे नारायण ! मैं आपसे वर माँग रहा हूँ; आप उसे देनेकी कृपा करें । हे जगन्नाथ ! आपके तथा नरके साथ युद्ध करनेमें मेरे शरीर, मन और वाणीसे जो भी पाप ( अपकर्म ) हुआ हो वह सब नष्ट हो जाय । आप मुझे यही वर दें ॥५८ - ५९॥
नारायणने कहा - दैत्येन्द्र ! ऐसा ही होगा । तुम्हारा पाप नष्ट हो जाय । अब प्रह्लाद ! तुम दूसरा एक वर और माँग लो, मैं उसे भी तुम्हें दूँगा ॥६०॥
प्रह्लादजी बोले - हे भगवन् ! मेरी जो भी बुद्धि हो, वह आपसे ही सम्बद्ध हो, वह देवपूजामें लगी रहे । मेरी बुद्धि, आपका ही ध्यान करे और आपके चिन्तनमें लगी रहे ॥६१॥
नारायणने कहा - प्रह्लाद ! ऐसा ही होगा ! पर हे महाबाहो ! तुम एक और अन्य वर भी, जो तुम चाहो, माँगो । मैं बिना विचारे ही - बिना देय - अदेयका विचार किये ही - वह भी तुम्हे दूँगा ॥६२॥
प्रह्लादने कहा - अधोक्षज ! आपके अनुग्रहासे मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया । आपके चरणकमलोंसे मैं सदा लगा रहूँ और ऐसी मेरी प्रसिद्धि भी हो अर्थात् मैं आपके भक्तके रुपमें ही चर्चित होऊँ ॥६३॥
नारायणने कहा - ऐसा ही होगा । इसके अतिरिक्त मेरे प्रसादसे तुम अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर होगे । दैत्यश्रेष्ठ ! अब तुम अपने घर जाओ और सदा ( धर्म ) कार्यमें रत हो । मुझमें मन लगाये रखनेसे तुम्हें कर्मबन्धन नहीं होगा । इन दैत्योंपर शासन करते हुए तुम शाश्वत ( सदा बने रहनेवाले ) राज्यका पालन करो । दैत्य ! अपनी जातिके अनुकूल श्रेष्ठ धर्मोका अनुष्ठान करो ॥६४ - ६६॥
पुलस्त्यजी बोले - लोकनाथके ऐसा कहनेपर प्रह्लादने भगवानसे कहा - जगदगुरो ! अब मैं छोड़े हुए राज्यको कैसे ग्रहण करुँ ? इसपर भगवानने उनसे कहा - तुम अपने घर जाओ तथा दैत्यों एवं दानवोंको कल्याणकारी बातोंका उपदेश करो । नारायणके ऐसा कहनेपर वे दैत्यनायक ( प्रह्लाद ) परमेश्वरको प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर निवास - स्थानको चले गये । नारदजी ! अन्धक तथा दानवोंने प्रह्लादको देखा एवं उनका सम्मान किया और उन्हें राज्य स्वीकार करनेके लिये अनुरोधित किया; किंतु उन्होंने राज्य स्वीकार नहीं किया । दैत्येश्वर प्रह्लाद राज्यको छोड़ अपने उपदेशोंसे दानव - श्रेष्थोंको शुभ मार्गमें नियोजित तथा भगवान् नारायणका ध्यान और स्मरण करते हुए योगके द्वारा शुद्ध शरीर होकर विराजित हुए । नारदजी ! इस प्रकार पहले पुरुषोत्तम नारायणद्वारा पराजित दानवेन्द्र प्रह्लाद राज्य छोड़कर भगवान् नारायणके ध्यानमें लीन होकर शान्त एवं सुस्थिर हुए थे ॥६७ - ७२॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८॥