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अध्याय ४८

श्रीवामनपुराण - अध्याय ४८

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


सनत्कुमारने कहा - इसके बाद किसीकी किसी प्रकारकी भी उक्तिके अभिप्रायको भलीभाँति जाननेवाले तीनों लोकोंके स्वामी शंकरभगवानने उस ( वेन ) - को आश्वासन देनेवाला उत्तम वचन कहा - राजन् ! सुव्रत ! तुम्हारी इस स्तुतिसे मैं संतुष्ट हूँ । इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ हैं; तुम मेरे निकट ( में ही सदा ) निवास करोगे । बहुत दिनोंतक निवास करनेके बाद तुम फिर देवोंकी नष्ट करनेवाले अन्धक नामक असुर होकर मेरे शरीरसे उत्पन्न होओगे और वेदकी निन्दा करनेस्से पूर्वकालिक प्रचण्ड पापके कारण पुनः हिरण्याक्षके घरमें उत्पन्न होकर बड़े होगे - सयाने होगे ॥१ - ४॥

जब तुम जगतकी माता ( पार्वती ) - की अभिलाषा करोगे तब मैं शूलद्वारा तुम्हारी देहका हनन करके दस करोड़ वर्षोंतकके लिये ( तुम्हें ) पवित्र करुँगा । उसके बाद वहाँ पापसे रहित होकर पुनः मेरी स्तुति करोंगे और तब तुम भृङ्गिरिटि नामसे प्रसिद्ध गणाधिप बनोगे । फिर मेरी संनिधिमें रहकर तुम सिद्धिको प्राप्त करोगे । जो मनुष्य वेनके द्वारा कही हुई इस स्तुतिका कीर्तन करेगा या इसे सुनेगा, वह कभी अशुभ ( अकल्याण ) - को नहीं प्राप्त होगा और दीर्घ आयु प्राप्त करेगा । जैसे सभी देवताओंमें भगवान् शिवकी विशिष्टता है, वैसे ही वेनसे निर्मित्त यह स्तव सभी स्तवोंमें श्रेष्ठ ( विशिष्ट ) है । इसका कीर्तन यश, राज्य, सुख, ऐश्वर्य, धन एवं मानका देनेवाला है ॥५ - ९॥

विद्याकी इच्छा रखनेवालेको श्रद्धासहित यत्नपूर्वक इस स्तुतिको सुनना चाहिये । व्याधिसे ग्रस्त, दुःखित, दीन, चोर या राजासे भयभीत अथवा राजकार्यसे अलग किया गया पुरुष ( इस स्तुतिके द्वारा ) महान् भयसे मुक्त होकर इसी देहसे गणोंमें श्रेष्ठता प्राप्त करता है एवं निर्मल होकर तेज एवं यशसे युक्त होता है । जिस गृहमें इस स्तवका पाठ होता है उसमें राक्षस, पिशाच, भूत या विनायकगण विघ्न नहीं करते । पतिकी आज्ञा प्राप्त कर इस स्तवका श्रवण करनेवाली नारी मातृपक्षं एवं पितृपक्षमें देवताके समान पूजनीया हो जाती है । जो मनुष्य समाहित होकर इस दिव्य स्तवको सुनेगा या कीर्तन करेगा, उसके सभी कार्य नित्य सिद्ध होंगे । इस स्तवका कीर्तन करनेवाले मनुष्यके मनमें चिन्तित तथा वचनके द्वारा कथित सभी कार्य सम्पन्न होते जायँगे और मानसिक, वाचिक तथा कार्मिक - सारे पाप विनष्ट हो जायँगे । तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट हो उस वरको माँग लो; तुम्हारा कल्याण हो ॥१० - १६॥

वेनने कहा - इस लिङ्गके माहात्म्यसे, इसके तथा आपके दर्शनसे मैं समस्त पापोंसे निश्चित रुपसे छूट गया हूँ । देव ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो हे शङ्कर ! अपने उस सेवकपर कृपा करें जो देवद्रव्यका भक्षण करनेके कारण कुत्तेकी योनिमें उत्पन हुआ है । पहले इस तीर्थमें स्त्रान करनेके लिये देवोंके मना करनेपर भी इस ( कुत्ते ) - के भयसे मैंने सरोवरमें स्त्रान किया । इसने मेरा उपकार किया है । अतएव मैं इसके लिये वर माँगता हूँ । उस ( वेन ) - के इस वचनको सुनकर शंकर सन्तुष्ट होकर बोले - महाबाहो ! यह भी मेरी कृपासे निः सन्देह सभी पापोंसे बिलकुल छूट जायगा और शिवलोकको प्राप्त करेगा । इस स्तवको सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जायगा । राजन् ! इस कुरुक्षेत्र तथा इस सरोवरका माहात्म्य और मेरे लिङ्गकी उत्पत्तिका वर्णन सुननेसे मनुष्य पापसे बिलकुल छूट जाता है ॥१७ - २३॥

सनत्कुमारने कहा - इस प्रकार कहकर समस्त लोकोंद्वारा नमस्कृत भगवान् सभी लोगोंके हुए वहीं अन्तर्हित हो गये । वह कुत्ता भी उसी समय पूर्वजन्मका स्मरण करके दिव्य शरीर धारणकर उस राजाके सामने उपस्थित हुआ । उसके बाद वेनका पुत्र पृथु स्त्रान करके पितृदर्शनकी अभिलाषासे स्थाणुतीर्थमें आनेपर कुटीको सूनी देख चिन्तित हो गया । वेन उसे देखकर बड़ी प्रसन्नतापूर्वक बोला - वत्स ! तुमने नरक - सागरमें जानेसे मेरी रक्षा कर ली, अतः तुम सत्पुत्र सिद्ध हुए ॥२४ - २७॥

तीर्थके तटपर रहने एवं तुम्हारे द्वारा नित्य अभिषिञ्चित होनेके कारण तथा इस साधुके अनुग्रह एवं स्थाणुदेवके दर्शन करनेसे मैं पापोंसे छूटकर उस स्वर्गलोकको जा रहा हूँ, जहाँ शिवजी ( स्वयं ) स्थित हैं । राजा पृथुसे ऐसा कहनेके पश्चात् उस पुत्रद्वारा ( पापनिर्मुक्त ) तारित वेनने स्थाणुतीर्थमें महेश्वरको प्रतिष्ठापित करके सिद्धि प्राप्त कर ली । स्थाणुतीर्थके प्रभावसे वह कुत्ता भी पापसे रहित होकर परम सिद्धिको प्राप्त हुआ और शिवलोकको चला गया । राजा पृथु पितृ - ऋणसे मुक्त हो गये और पृथ्वीका पालन करते हुए उन्होंने धर्मपूर्वक पुत्रोंको उत्पन्न करके बाधारहित होकर यज्ञ ( यज्ञानुष्ठान ) किया । उन्होंने ब्राह्मणोंको मनोऽभिलषित पदार्थोंका दान दिया तथा भाँति - भाँतिके भोगोंका उपभोग किया ॥२८ - ३२॥

मित्रोंको ( भी ) ऋणसे मुक्त तथा स्त्रियोंके मनोरथोंको संतुष्टि प्रदान करनेके पश्चात् पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर पृथु राजा कुरुक्षेत्रमें चले गये । वहाँ घोर तपस्या तथा शङ्क रका पूजन करके अपनी इच्छासे शरीरका त्याग कर उन्होंने परमपदको प्राप्त किया । जो मनुष्य स्थाणुतीर्थके इस प्रभावको सुनेगा, वह सभी पापोंसे छूट जायगा और परम गतिको प्राप्त करेगा ॥३३ - ३५॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अड़तालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४८॥

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Last Updated : January 24, 2012

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