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अध्याय ७९

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७९

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - यमुनाजलमें स्त्रानकर प्रह्लादने त्रिविक्रम भगवानकी पूजा की । एक रात उपवास करनेके बाद ( फिर ) वे लिङ्गभेदनामक पर्वतपर चले गये । वहाँ विमल जलमें स्त्रानकर उन्होंने भक्तिसे भगवान् शंकरका दर्शन किया; एवं वहाँ भी एक रात निवासकर केदार नामके तीर्थमें गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद ( उन्होंने ) अभेदबुद्धिसे शिव एवं विष्णुका पूजन किया, ( वहाँ ) सात दिनोंतक रहकर कुब्जाम्नमें चले गये । उसके बाद उस सुन्दर तीर्थमें स्त्रानकर उपवास करनेवाले इन्द्रियजयी ( प्रह्लाद ) हषीकेशका अर्चनकर बदरिकाश्रम चले गये ॥१ - ४॥

वहाँ रहते हुए सरस्वतीके जलमें स्त्रानकर उन विद्वान् ( प्रह्लादजी ) - ने नारायणका पूजन किया । फिर अत्यन्त भक्तिके साथ उन्होंने वराहतीर्थमें गरुडासन विष्णुका दर्शन और पूजन किया । वहाँसे भद्रकर्णमें पहुँचकर जयेश शशिशेखर शिवका दर्शन तथा पूजन करके बादमें विपाशाकी ओर चले गये । उस विपाशामें स्त्रानके बाद द्विजप्रिय देवाधिदेवका अर्चन कर ( प्रह्लाद ) उपवास करते हुए इरावतीकी ओर चले गये । द्विजोत्तम ! ( उन्होंने ) वहाँ उन भगवानका दर्शन किया, जिनकी शाकलमें आराधना करनेसे ( पहले ) पुरुरवाको उत्तम रुप एवं सुदुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त हुआ था । कुष्ठरोगसे अभीभूत भृगुने उन परमेश्वरकी आराधना करके अतुलनीय नीरोगता और अक्षय सन्तान प्राप्त की थी ॥५ - ९॥

नारदने पूछा - द्विजोत्तम ! पुरुरवाने विष्णुकी आराधना करनेके बाद विरुपताको छोड़कर ऐश्वर्यके साथ सुदुर्लभ सुन्दर रुप कैसे प्राप्त किया ? ॥१०॥

पुलस्त्यजी बोले - तपोधन ! सुनिये; मैं प्राचीनकालमें त्रेतायुगके आदिमें घटित, पापको नष्ट करनेवाली कथा कहतां हूँ । ब्रह्मपुत्र ! प्रसिद्ध मद्रदेशमें शाकल नामसे प्रसिद्ध उत्तम नगर है । वहाँ सुधर्मा नामका एक धनी, गुणशाली, भोगी एवं नानाशास्त्रोंमें निपुण व्यापारी रहता था । एक समय वह अपने देशसे सुराष्ट्र जानेको तैयार हुआ । कलिप्रिय ! अनेक बेंची जानेवाली वस्तुओंसे युक्त व्यापारियोंके भारी समुदायके साथ जाते समय मार्गमें मरुभूमिमें रातमें ( उसके ऊपर ) डाकुओंका अत्यन्त उग्र असहनीय आक्रमण हुआ ॥११ - १५॥

उसके बाद सब कुछ लुट जानेसे दुखी हुआ वह असहाय वणिक् मरुभूमिमें पागलकी भाँति इधर - उधर घूमने लगा । नारदजी ! दुःखसे ग्रसित होकर उस वनमें घूमते लगा । नारदजी ! दुःखसे ग्रसित होकर उस वनमें घूमते हुए उसे मरुभूमिमें अपने जनके समान एक सुन्दर शमीका वृक्ष मिला । थका तथा भूख - प्याससे अभिभूत हुआ वह वणिक् उस शमीवृक्षको पशु - पक्षियोंसे रहित देखकर उसके नीचे बैठ गया और सो गया तथा पूर्ण विश्राम कर दोपहरको जगा । उसके बाद उसने सैकड़ों प्रेतोंसे घिरे एक प्रेतको आते हुए देखा ॥१६ - १९॥

प्रेतनायकको एक दूसरा प्रेत ढो रहा था और आगे रुखे शरीरवाले प्रेत दौड़ रहे थे । वनोंमें घूमनेके बाद वह प्रेत लौट रहा था । शमीवृक्षके नीचे आकर उसने वणिक्पुत्रको देखा था । शमीवृक्षके नीचे आकर उसने वणिक्पुत्रको देखा । स्वागतके साथ उसे अभिवादन किया । फिर ( दोनोंने ) परस्पर वार्तालाप किया । इसके बाद वह प्रेत छायामें सुखपूर्वक बैठ गया और उसने उससे कुशल पूछी और जानी । उसके बाद प्रेताधिपतिने वणिक् - बन्धुसे पूछा - साधो ! यह बतलाओ कि तुम कहाँ आ रहे हो और कहाँ जाओगे ? ॥२० - २३॥

तुम्हारा कल्याण हो । मुझे यह बताओ कि पशु एवं पक्षियोंसे रहित इस बड़े जंगलमें तुम कैसे आये ? ( पुलस्त्यजी कहते हैं ) - ब्रह्मन् ! प्रेतराजके इस प्रकार पूछनेपर वणिकने थोडे़में उसे अपने देशका एवं धननाशका पूरा विवरण कह सुनाया । उसका पूरा वृत्तान्त सुन लेनेके बाद उसके दुःखसे दुखी होकर प्रेतपालने अपने बन्धुके समान ( उसे मानते हुए ) उस वणिकपुत्रसे कहा - सुव्रत ! ऐसा होनेपर भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । यदि तुम्हारा भाग्य प्रबल होगा तो धन फिर हो जायगा ॥२४ - २७॥

( देखो, ) भाग्यके क्षय होनेपर धनोंका क्षय हो जाता है और फिर भाग्योदय हो जानेपर पुनः धन प्राप्त हो जाते हैं । चिन्तासे क्षीण हुए शरीरका उत्थान ( वृद्धि ) नहीं होता । ऐसा कहकर उसने अपने सेवकोंको बुलाया और उनसे कहा - मेरे अपने जनके समान इस अतिथिका सब प्रकारसे सत्कार करो । प्रेतो ! स्वजनदर्शनके समान ही मुझे इस वणिक्पुत्रका दर्शन हुआ है । इसके मिलनेसे मुझे अत्याधिक प्रीति प्राप्त हुई है । उसके ऐसा कहनेपर इच्छाभर ( भोजन - योग्य ) दही और भातसे भरा अत्यन्त दृढ़ एक नया मिट्टीका पात्र आ गया । इसी प्रकार निर्मल शीतल जलसे भरा एक पानीका पात्र भी उन प्रेतोंके सामने उपस्थित हो गया ॥२८ - ३२॥

उस अन्न एवं जलको प्रस्तुत हुए देखकर महामति प्रेतने कहा - वणिक्पुत्र ! तुम उठो एवं दैनिक ( नित्य ) कृत्य करो । उसके बाद वणिक् एवं प्रेतपतिदोनोंने घड़ेके जलसे विधिपूर्वक नित्य - क्रिया सम्पन्न की । उसके बाद ( प्रेतपतिने ) पहले वणिक्पुत्रको पर्याप्त दही और भात दिया और तब उन प्रेतोंको दिया । सभीके इच्छाभर भोजन एवं जलपान करनेके बाद प्रेतनायकने उत्तम भोजन किया ॥३३ - ३६॥

( पुलस्त्यजी कहते हैं कि - ) ब्रह्मन् ! प्रेतके भलीभाँति तृप्त हो जानेपर वणिक्पुत्रके देखते - ही - देखते जलपात्र और ओदन आँखोंसे ओझल हो गये । तब उस अत्यन्त ही आश्चर्यजनक दृश्यको देखकर उस बुद्धिमान् संयमी वणिकने उत्सुकतापूर्वक उस प्रेतपतिसे पूछा - साधो ! इस निर्जन वनमें अन्न एवं उत्तम जलसे भरा घड़ा कहाँसे आ गया ? अपेक्षाकृत तुम्हारे वर्णकी दृष्टिसे टुबले ये तुम्हारे भृत्य कौन हैं ? कुछ हष्ट - पुष्ट शरीरवाले सुन्दर, तेजसे सम्पन्न और शुक्लवस्त्रधारी ( हमारे - जैसे ) बहुतोंकी परिरक्षा करनेवाले आप भी कौन हैं ? आप मुझे यह सम्पूर्ण विवरण बतलाएँ कि आप कौन हैं एवं यह शमी वृक्ष कौन है ? ॥३७ - ४१॥

वणिक्पुत्रके ऐसे वचनको सुनकर उस प्रेतनायकने उससे सारे पुराने वृत्तान्तको कहा । ( उसने कहा - ) प्राचीन कालमें उत्तम शाकल नामके श्रेष्ठ नगरमें बहुलाके गर्भसे उत्पन्न हुआ मैं सोमशर्मा - इस नामसे प्रसिद्ध ब्राह्मण था । मेरा एक पड़ोसी बहुत धनवान् , लक्ष्मीवान् वणिक् था, जिसका नाम था सोमश्रवा । वह महान् यशस्वी और विष्णुका भक्त था । मैं कृपण एवं दुर्मति था । अतः धन होते हुए भी न तो ब्राह्मणोंको दान करता था और न अच्छे अन्नका भोजन ही करता था ॥४२ - ४५॥

यदि मैं कभी भूलसे दही, दूध एवं घीसे युक्त पदार्थ भोजन कर लेता था तो रात्रिमें भयङ्कर मनुष्य मेरे शरीरको पीड़ित करते थे । प्रातः काल मुझे मरणके समान ( कष्ट देनेवाली ) भयङ्कर विषूचिका ( हैजा ) हो जाया करती थी । उस समय मेरे पास कोई भी बन्धु नहीं रहता था । मैं किसी - किसी प्रकार अपने प्राणोंको धारण करता था । इस प्रकार मैं अति निर्लज्ज पापयुक्त जीवन बिताता रहा । बेर, तिलपिण्याक, सत्तू, शाकादि एवं बुरे अन्नों ( मोटे अन्न - ) कोदो, साँवा आदिको खाकर समय बिताते हुए मैं स्वयंको दुर्बल कर रहा था ॥४६ - ४९॥

मुझे वहाँ इस ढंगसे रहते हुए बहुत समय बीत गया । ( एक बार ) भाद्रपदमासमें श्रवणद्वादशीकी तिथि आयी । तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक लोग इरावती और नड्वला नदियोंके संगममें स्त्रान करनेके लिये गये । पड़ोसी होनेके कारण मैं भी उनके पीछेपीछे चला गया । एकादशीके दिन मैंने व्रत रहकर पवित्रतासे उपवास किया । उसके बाद मैंने अनेक वस्तुओं - छाता, जूता और साथ ही सङ्गमके जलसे भरा नवीन दृढ जलपात्र एवं मिष्टान्न, दधि तथा ओदनसे पूर्ण मिट्टीका पात्र ज्ञानी, धार्मिक, पवित्र, श्रेष्ठ ब्राह्मणको प्रदान किया ॥५० - ५४॥

वणिक्पुत्र ! मैंने अपने सत्तर वर्षोंके ( पूरे ) जीवनमें ( केवल ) वही दान दिया था । इसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं दान किया था । प्रेतान्न दान करके मृत्युके बाद मैं प्रेत हो गया । मेरे अन्नसे जीवन धारण करनेवाले इन लोगोंने भी दान कभी नहीं किया है । मैनें तुम्हें वह कारण बतलाया जिससे मेरे द्वारा दिये गये अन्न - जल प्रतिदिन दोपहरके समय ( मेरे समीप ) आ जाते हैं । जबतक मैं नहीं खाता, तबतक उनका क्षय नहीं होता । मेरे खाने और पीनेके बाद सभी कुछ अदृश्य हो जाता है ॥५५ - ५८॥

मैंने जो छाताका दान किया था, वही इस शमीवृक्षके रुपमें उत्पन्न हुआ है । एक जोड़ा जूताका दान करनेसे प्रेत मेरा वाहन बना है । धर्मज्ञ ! अपने प्रेतत्व - प्राप्तिका यह समस्त विवरण मैंने तुमसे कह सुनाया तथा परम पवित्र और पुण्यको बढ़ानेवाली श्रवणद्वादशीका भी वर्णन कर दिया । प्रेतके ऐसा कहनेपर वणिक्पुत्रने कहा - तात ! मुझे जो करना हो उसकी आज्ञा दें । ( पुलस्त्यजी कहते हैं कि - ) नारदजी ! वणिक्पुत्रका वह वचन सुनकर प्रेतपति अपनी स्वार्थासिद्धिकी बात कहने लगा - ॥५९ - ६२॥

महामते ! मेरे हितके लिये तुम्हें करने योग्य कर्म मैं बतलाता हूँ । उसे अच्छी तरह सम्पन्न कर लेनेसे तुम्हारा और मेरा ( दोनोंका ) कल्याण होगा । ( देखो, ) गया - तीर्थमें ( जाकर और ) स्त्रानसे पवित्र होकर मेरे नाम ( उद्देश्य ) - से तुम पिण्डदान करो । सखे ! वहाँ पिण्डदान करनेसे मैं प्रेतभावसे मुक्त होकर सर्वस्व दान करनेवालोंको मिलनेवाले लोकको प्राप्त कर लूँगा । भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी बुधवार एवं श्रवण नक्षत्रसे युक्त पुण्य बढ़ानेवाली अत्यन्त माङ्गलिक यह द्वादशी ( तिथि ) कही गयी है ॥६३ - ६६॥

वणिक्से ऐसा कहकर प्रेतराजने अपने अनुचरोंसहित पवित्रतापूर्वक यथोचित क्रमसे अपने ( पितरोंके ) नामोंको बताया । उसे प्रेतके कन्धेपर चढ़ाकर मरु - भूमिसे बाहर छोड़ दिया गया । इस प्रकार वह वणिक् शूरसेन नामके सुन्दर देशमें पहुँच गया । अपने कर्म तथा धर्मसे उसने अधिक मात्रासें उत्कृष्ट एवं हीन धन उपार्जित कर लिया । उसके बाद वह उत्तम गयाशीर्ष नामके तीर्थमें गया । वहाँ क्रमशः प्रेतोंके उद्देश्यसे पिण्डदान करनेके बाद उसने अपने पितरों एवं दायादोंको भी पिण्डदान किया ॥६७ - ७०॥

उस महाबुद्धि ( वणिक् ) - ने अपने लिये तिलसे रहित महाबोध्य नामका पिण्डदान किया । उसके बाद अन्य गोत्रोंमें उत्पन्न हुओंके उद्देश्यसे भी पिण्डदान किया । द्विज ! इस प्रकार पिण्डदान करनेपर वे प्रेत प्रेत - योनिसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकको चले गये । वह वणिक्पुत्र भी अपने घर चला गया और श्रवणद्वादशीका ( यथोचित रीतिसे ) ( व्रत ) पालन करते हुए वह भी समय आनेपर स्वर्गीय हो गया । गन्धर्वलोकमें चिरकालतक अत्यन्त दुर्लभ भोगोंका उपभोग करनेके बाद मनुष्य - जन्म प्राप्त कर वह शाकलपुरीका सम्राट् बना ॥७१ - ७४॥

पुलस्त्यजी बोले - यमुनाजलमें स्त्रानकर प्रह्लादने त्रिविक्रम भगवानकी पूजा की । एक रात उपवास करनेके बाद ( फिर ) वे लिङ्गभेदनामक पर्वतपर चले गये । वहाँ विमल जलमें स्त्रानकर उन्होंने भक्तिसे भगवान् शंकरका दर्शन किया; एवं वहाँ भी एक रात निवासकर केदार नामके तीर्थमें गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद ( उन्होंने ) अभेदबुद्धिसे शिव एवं विष्णुका पूजन किया, ( वहाँ ) सात दिनोंतक रहकर कुब्जाम्नमें चले गये । उसके बाद उस सुन्दर तीर्थमें स्त्रानकर उपवास करनेवाले इन्द्रियजयी ( प्रह्लाद ) हषीकेशका अर्चनकर बदरिकाश्रम चले गये ॥१ - ४॥

वहाँ रहते हुए सरस्वतीके जलमें स्त्रानकर उन विद्वान् ( प्रह्लादजी ) - ने नारायणका पूजन किया । फिर अत्यन्त भक्तिके साथ उन्होंने वराहतीर्थमें गरुडासन विष्णुका दर्शन और पूजन किया । वहाँसे भद्रकर्णमें पहुँचकर जयेश शशिशेखर शिवका दर्शन तथा पूजन करके बादमें विपाशाकी ओर चले गये । उस विपाशामें स्त्रानके बाद द्विजप्रिय देवाधिदेवका अर्चन कर ( प्रह्लाद ) उपवास करते हुए इरावतीकी ओर चले गये । द्विजोत्तम ! ( उन्होंने ) वहाँ उन भगवानका दर्शन किया, जिनकी शाकलमें आराधना करनेसे ( पहले ) पुरुरवाको उत्तम रुप एवं सुदुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त हुआ था । कुष्ठरोगसे अभीभूत भृगुने उन परमेश्वरकी आराधना करके अतुलनीय नीरोगता और अक्षय सन्तान प्राप्त की थी ॥५ - ९॥

नारदने पूछा - द्विजोत्तम ! पुरुरवाने विष्णुकी आराधना करनेके बाद विरुपताको छोड़कर ऐश्वर्यके साथ सुदुर्लभ सुन्दर रुप कैसे प्राप्त किया ? ॥१०॥

पुलस्त्यजी बोले - तपोधन ! सुनिये; मैं प्राचीनकालमें त्रेतायुगके आदिमें घटित, पापको नष्ट करनेवाली कथा कहतां हूँ । ब्रह्मपुत्र ! प्रसिद्ध मद्रदेशमें शाकल नामसे प्रसिद्ध उत्तम नगर है । वहाँ सुधर्मा नामका एक धनी, गुणशाली, भोगी एवं नानाशास्त्रोंमें निपुण व्यापारी रहता था । एक समय वह अपने देशसे सुराष्ट्र जानेको तैयार हुआ । कलिप्रिय ! अनेक बेंची जानेवाली वस्तुओंसे युक्त व्यापारियोंके भारी समुदायके साथ जाते समय मार्गमें मरुभूमिमें रातमें ( उसके ऊपर ) डाकुओंका अत्यन्त उग्र असहनीय आक्रमण हुआ ॥११ - १५॥

उसके बाद सब कुछ लुट जानेसे दुखी हुआ वह असहाय वणिक् मरुभूमिमें पागलकी भाँति इधर - उधर घूमने लगा । नारदजी ! दुःखसे ग्रसित होकर उस वनमें घूमते लगा । नारदजी ! दुःखसे ग्रसित होकर उस वनमें घूमते हुए उसे मरुभूमिमें अपने जनके समान एक सुन्दर शमीका वृक्ष मिला । थका तथा भूख - प्याससे अभिभूत हुआ वह वणिक् उस शमीवृक्षको पशु - पक्षियोंसे रहित देखकर उसके नीचे बैठ गया और सो गया तथा पूर्ण विश्राम कर दोपहरको जगा । उसके बाद उसने सैकड़ों प्रेतोंसे घिरे एक प्रेतको आते हुए देखा ॥१६ - १९॥

प्रेतनायकको एक दूसरा प्रेत ढो रहा था और आगे रुखे शरीरवाले प्रेत दौड़ रहे थे । वनोंमें घूमनेके बाद वह प्रेत लौट रहा था । शमीवृक्षके नीचे आकर उसने वणिक्पुत्रको देखा था । शमीवृक्षके नीचे आकर उसने वणिक्पुत्रको देखा । स्वागतके साथ उसे अभिवादन किया । फिर ( दोनोंने ) परस्पर वार्तालाप किया । इसके बाद वह प्रेत छायामें सुखपूर्वक बैठ गया और उसने उससे कुशल पूछी और जानी । उसके बाद प्रेताधिपतिने वणिक् - बन्धुसे पूछा - साधो ! यह बतलाओ कि तुम कहाँ आ रहे हो और कहाँ जाओगे ? ॥२० - २३॥

तुम्हारा कल्याण हो । मुझे यह बताओ कि पशु एवं पक्षियोंसे रहित इस बड़े जंगलमें तुम कैसे आये ? ( पुलस्त्यजी कहते हैं ) - ब्रह्मन् ! प्रेतराजके इस प्रकार पूछनेपर वणिकने थोडे़में उसे अपने देशका एवं धननाशका पूरा विवरण कह सुनाया । उसका पूरा वृत्तान्त सुन लेनेके बाद उसके दुःखसे दुखी होकर प्रेतपालने अपने बन्धुके समान ( उसे मानते हुए ) उस वणिकपुत्रसे कहा - सुव्रत ! ऐसा होनेपर भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । यदि तुम्हारा भाग्य प्रबल होगा तो धन फिर हो जायगा ॥२४ - २७॥

( देखो, ) भाग्यके क्षय होनेपर धनोंका क्षय हो जाता है और फिर भाग्योदय हो जानेपर पुनः धन प्राप्त हो जाते हैं । चिन्तासे क्षीण हुए शरीरका उत्थान ( वृद्धि ) नहीं होता । ऐसा कहकर उसने अपने सेवकोंको बुलाया और उनसे कहा - मेरे अपने जनके समान इस अतिथिका सब प्रकारसे सत्कार करो । प्रेतो ! स्वजनदर्शनके समान ही मुझे इस वणिक्पुत्रका दर्शन हुआ है । इसके मिलनेसे मुझे अत्याधिक प्रीति प्राप्त हुई है । उसके ऐसा कहनेपर इच्छाभर ( भोजन - योग्य ) दही और भातसे भरा अत्यन्त दृढ़ एक नया मिट्टीका पात्र आ गया । इसी प्रकार निर्मल शीतल जलसे भरा एक पानीका पात्र भी उन प्रेतोंके सामने उपस्थित हो गया ॥२८ - ३२॥

उस अन्न एवं जलको प्रस्तुत हुए देखकर महामति प्रेतने कहा - वणिक्पुत्र ! तुम उठो एवं दैनिक ( नित्य ) कृत्य करो । उसके बाद वणिक् एवं प्रेतपतिदोनोंने घड़ेके जलसे विधिपूर्वक नित्य - क्रिया सम्पन्न की । उसके बाद ( प्रेतपतिने ) पहले वणिक्पुत्रको पर्याप्त दही और भात दिया और तब उन प्रेतोंको दिया । सभीके इच्छाभर भोजन एवं जलपान करनेके बाद प्रेतनायकने उत्तम भोजन किया ॥३३ - ३६॥

वह वणिक्पुत्र भी अपने घर चला गया और श्रवणद्वादशीका ( यथोचित रीतिसे ) ( व्रत ) पालन करते हुए वह भी समय आनेपर स्वर्गीय हो गया । गन्धर्वलोकमें चिरकालतक अत्यन्त दुर्लभ भोगोंका उपभोग करनेके बाद मनुष्य - जन्म प्राप्त कर वह शाकलपुरीका सम्राट् बना ॥७१ - ७४॥

अपने धर्म तथा कर्ममें स्थित रहना हुआ वह श्रवणद्वादशी ( व्रत ) - में रत रहता रहा । ( समय आनेपर ) मृत्युके बाद उसने गुह्यकोंका लोक प्राप्त कर लिया । वहाँ बहुत कालतक ठहरकर और इच्छानुकूल भाँतिभाँतिके भोग्य पदार्थोंका भोग करनेके बाद वह मृत्युलोकमें आकर राजपुत्र बना । वहाँ भी क्षत्रिय - वृत्तिसे निर्वाह करते हुए वह दान और भोगमें लगा रहा । गौओंके अपहरणमें उसने शत्रुओंको जीतकर कालधर्म ( मृत्यु ) - को प्राप्त हुआ । फिर वह इन्द्रलोकमें गया और सभी देवोंसे पूजित हुआ । फिर वह वह इन्द्रलोकमें गया और सभी देवोंसे पूजित हुआ । पुण्यका क्षय होनेसे ‘ क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ’ - नियमसे स्वर्गच्युत होकर वह फिर शाकल देशमें ब्राह्मण हुआ । उसका रुप तो अत्यन्त विद्रूप ( भयङ्कर ) था, परंतु वह ( विद्यासे ) सम्पूर्ण शास्त्रोमें पारङ्गत था ॥७५ - ७८॥

द्विज ! उसने अनुपम सुन्दरी ब्राह्मण - कन्यासे विवाह किया । वह ललना ( अपने ) अत्यन्त शीलवान् पतिको भी कुरुप मानकर निरादर करती रहती । इससे वह बहुत दुःखित हो गया । उसके बाद ग्लानिसे भरकर वह इरावतीके तीरपर स्थित महान् आश्रममें पहुँचा और नक्षत्रपुरुषके द्वारा स्थापित सुन्दर रुप धारण करनेवाले जगन्नाथ भगवानकी आराधना की । इस प्रकार उसी जन्ममें परम सुन्दर रुप प्राप्त कर वह अपनी भार्याका प्यारा एवं ऐश्वर्यसे सम्पन्न हो गया । पूर्वके अभ्याससे संयत रहनेवाला वह श्रवणद्वादशीका भक्त बना रहा । इस प्रकार पहले कुरुप रहनेपर भी भगवानकी कृपासे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कामदेवके समान सुन्दर रुपवाला हो गया और स्वर्गीय होकर दूसरे जन्ममें राजा पुरुरवा हुआ ॥७९ - ८३॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उन्नासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७९॥

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Last Updated : January 24, 2012

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