पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) रसातलमें जाकर दैत्यने बहुमूल्य मणियोंसे चित्रित शुद्ध स्फटिकके सोपानसे विभूषित नगर बनाया । विश्वकर्माने उसके बीचमें अत्यन्त विस्तृत वज्रमय वेदी बनायी तथा मोतीजड़ी खिड़कियोंके मध्य फाटकवाला महल बनाया । बलि भाँति - भाँतिके स्वर्गीय तथा मनुष्योंके योग्य भोगोंका उपभोग करते हुए वहाँ निवास करने लगा । विन्ध्यावली नामकी उसकी प्रिय पत्नी थी । मुने ! वह हजारों युवतियोंमें प्रधान तथा एक शीलवती स्त्री थी । महातेजस्वी विरोचन - पुत्र बलि उसके साथ सुख करने लगा । एक दिन भोग भोगनेमें आसक्त दैत्यके सुतल लोकमें रहते समय दैत्योंके तेजका हरण करनेवाला सुदर्शनचक्र पातालमें प्रवेश किया ॥१ - ५॥
पातालमें सुदर्शनचक्रके प्रवेश करनेपर दानवोंके पुरमें क्षुब्ध हुए सागरके समान महान् हलहला शब्द उत्पन्न हुआ । उस महान् शब्दको सुनकर असुरश्रेष्ठ बलिने हाथमें एक तलवार ले ली और इस प्रकार पूछा - ‘ अरे ! यह क्या हैं ’ ? उसके बाद पवित्रताका व्रत करनेवाली धर्मपत्नी विध्यावलीने अपने पतिको सान्त्वना देकर तथा तलवारको म्यानमें रखवाकर यह कहा - ऐश्वर्य आदि छः विभूतियोंवाले महान् आत्मा वामनका दैत्यसमूहका संहार करनेवाला यह आराधनीय चक्र है । इस प्रकार कहकर वह सुन्दरी अर्घ्यपात्रके साथ बाहर गयी । उसी समय विष्णुका हजारों अरोंवाल सुदर्शनचक्र आ पहुँचा । मुने ! असुरपतिने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर विधिवत् चक्रका पूजन किया तथा यह स्तुति की ॥६ - १०॥
बलिने स्तुति की - दैत्य - समूहका संहार करनेवाले, अनन्त किरणोंसे युक्त हजारों प्रकारकी आभावाले, हजारों अरोंसे युक्त विष्णुके निर्मल सुदर्शनचक्रको मैं नमस्कार करता हूँ । विष्णुके उस चक्रको मैं नमस्कार करता हूँ, जिसकी नाभिमें पितामह, चोटीपर त्रिशूल धारण करनेवाले महादेव, अरोंके मूलमें महान् पर्वत, अरोंमें इन्द्र, सूर्य, अग्नि आदि देवता, वेगमें वायु, जल, अग्नी, पृथ्वी और आकाश, अरोंके किनारोंमें मेघ, विद्युत, नक्षत्र एवं ताराओंके समूह तथा बाह्यभागमें बालखिल्य आदि मुनि स्थित हैं । मैं श्रद्धापूर्वक वासुदेवके उस श्रेष्ठ आयुधको नमस्कार करता हूँ । विष्णुके प्रदीप्त किरणवाले सुदर्शनचक्र ! मेरे शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक पापोंका आप विनाश करें । अच्युतायुध ! मेरे कुलमें हुए पैतृक एवं मातृक पापोंका शीघ्रतापूर्वक आप हरण करें । आपको नमस्कार है । मेरी सारी आधि - व्याधियोंका नाश हो जाय । चक्र ! आपके नामका कीर्तन करनेसे पापोंका नाश हो जाय । इस प्रकार बुद्धिमान् ( बलि ) - ने श्रद्धापूर्वक चक्रकी पूजा की तथा समस्त पापोंका विनाश करनेवाले पुण्डरीकाक्ष भगवानका स्मरण किया ॥११ - १८॥
मुने ! बलिसे अर्चित हुआ चक्र असुरोंको तेजरहित करके पातालसे निकला और दक्षिण दिशाकी ओर चला गया । सुदर्शनके निकल जानेपर बलि अत्यन्त बेचैन हो गया । घोर संकट आनेपर उसने अपने पितामहको याद किया । स्मरण करते ही दैत्येश्वर ( प्रह्लाद ) सुतलमें आ गये । ( उन्हें ) देखते ही महातेजस्वी बलि तुरंत हाथमें अर्घ्य लिये उठ खड़ा हुआ । ब्रह्मन् ! अपने समर्थ पितामहकी विधिपूर्वक पूजा करनेके बाद बलिने हाथ जोड़कर यह वचन कहा - तात ! अत्यन्त शोकमग्न - चित्तसे मैंने आपका स्मरण किया है । अतः तात ! मुझे हितकर, पथ्य एवं कल्याणकारी उत्तम उपदेश दें । तात ! मनुष्योंको संसारमें रहते हुए क्या करना चाहिये, जिसके करनेसे उसे बन्धन न हो । संसार - समुद्रमें निमग्न हुए अल्पमति मनुष्योंको तरनेके लिये पोतस्वरुप क्या है, आप मुझसे इसे बतावें ॥१९ - २५॥
पुलस्त्यजी बोले - अपने उस पौत्रके वचनको सुननेके बाद दानवेश्वर ( प्रह्लाद ) - ने विचारकर संसारमें कल्याणकर श्रेष्ठ वचन कहा ॥२६॥
प्रह्लादने कहा - दानवश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, जो तुम्हें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई । बले ! अब मैं तुम्हारे और दूसरोंके लिये कल्याणकारी वचन कहता हूँ । संसाररुपी अगाध समुद्रमें डूबे हुए, द्वन्द्वरुपी वायुसे आहत, पुत्र, कन्या, पत्नी आदिकी रक्षाके भारसी दुःखी, नौकाके बिना भयंकर विषयरुपी जलमें डूबते हुए मनुष्योंके लिये विष्णुरुप नौका ही एकमात्र सहारा होता है । आदि, मध्य और अन्तसे हित कल्याणप्रद्र, वरणीय, गरुड़वाहन, लक्ष्मीकान्त, पवित्र, देवगुरु, नारायण हरिका आश्रय ग्रहण करनेवाले धैर्यशाली मनुष्य यमराजके शासनमें नहीं पड़ते । यमराज हाथमें पाश लिये खड़े अपने दूतको देखकर उसके कानमें कहते हैं कि मधुसूदनकी शरणमें गये हुए मनुष्योंको छोड़ देना; क्योंकि मैं अन्य मनुष्योंका ही शासक हूँ वैष्णवोंका नहीं ॥२७ - ३०॥
इसके सिवा श्रद्धायुक्त नरश्रेष्ठ इक्ष्वाकुने कहा था कि मृत्युलोकमें विष्णुभक्त व्यक्ति यमके शासन - विषयसे बाहर हैं । वही जिह्वा है जो हरिका गुणगान करती है, वही चित्त है जो उनमें लीन है, वे ही हाथ प्रशंसाके योग्य हैं जो उनकी अर्चना करते हैं । जो हाथ श्रीहरिके दोनो चरण - कमलोंकी अर्चना नहीं करते, वे हाथ नहीं हैं, अपितु वृक्षकी शाखामें लगे हुए आगेके पल्लव हैं । जो जिह्वा हरिके गुणोंका वर्णन नहीं करती, वह जिह्वा नहीं, अपितु कण्ठशालूक - जिह्वासे युक्त मेढकका कण्ठ ( केवल दिखावेके लिये लगी हुई निकम्मी जीभ ) अथवा अन्य कोई रोग है । श्रद्धापूर्वक विष्णुके चरण कमलका अर्चन न करनेवाला मनुष्य जीता हुआ ही मेरे हुएके समान है और बन्धुजनोंके लिये शोचनीय है । मैं यह सत्य कहता हूँ कि वासुदेवके पूजनमे सर्वदा रत रहनेवाले मनुष्य मरनेपर भी शोचनीय नहीं होते । समस्त शारीरिक, मानसिक, वाचिक, मूर्त, अमूर्त, जङ्गम, स्थावर, दृश्य, स्पृश्य एवं अदृश्य समस्त पदार्थ विष्णु - स्वरुप हैं ॥३१ - ३७॥
त्रिविक्रम भगवानकी चार प्रकारसे अर्चना करनेवाले मनुष्योंने निःसन्देह सुर और असुरसहित सम्पूर्ण लोकोंका पूजन कर लिया है । पुत्र ! जिस प्रकार समुद्रके रत्न अनगिनत है, उसी प्रकार चक्र धारण करनेवाले विष्णुके गुण भी असंख्य हैं । हाथोंमें शड्ख, चक्र, कमल एवं शार्ड्गधनुष धारण करनेवाले गरुडध्वज, भवभीतिके नाश करनेवाले वरदानी लक्ष्मीपतिका आश्रय ग्रहण करनेवाले मनुष्य फिर संसाररुपी गड्ढेमें नहीं पड़ते । बले ! जिनके मनमें गोविन्द निरन्तर निवास करते हैं, उनका अनादर नहीं होता और वे मृत्युसे आतड्कित नहीं होते । मोक्ष - प्राप्ति करनेके श्रेष्ठ शरणस्थान शार्ड्गधरदेव विष्णुकी शरणमें पहुँचे मनुष्योंको यमलोक या नरकमें नहीं जाना पड़ता । दानवश्रेष्ठ ! वेदशास्त्रमें कुशल ब्राह्मणोंको वह गति नहीं प्राप्त होती जो गति विष्णुभक्त प्राप्त करते हैं । दैत्यश्रेष्ठ ! महान् युद्धमें मारे गये व्यक्ति जो गति प्राप्त करते हैं, उस नरश्रेष्ठ विष्णुभक्तको उससे भी उत्तम गति प्राप्त होती हैं ॥३८ - ४४॥
दैत्य ! धर्मशील, सात्त्विक महात्माओंकी जो गति प्राप्त होती है, भगवद्भक्तोंकी भी वही गति कही गयी है । अनन्यश्रद्धासे भगवानकी भक्ती करनेवाले सर्वावास, सूक्ष्म, अव्यक्त शरीरवाले महात्मा वासुदेवमें प्रवेश करते हैं । अनन्यमनसे श्रद्धापूर्वक केशवको नमन करनेवाले मनुष्य पवित्र एवं तीर्थस्वरुप होते हैं । चलते, खड़े, सोते, जागते एवं खाते - पीते हुए निरन्तर नारायणका ध्यान करनेवालेसे अधिक पुण्यका योग्य अधिकारी कोई नहीं होता । विधानानुकूल संसार - बन्धनका समुच्छेद करनेवाले खड्ग और परशु धारण करनेवाले वैकुण्ठदेवको नमस्कार करनेसे संसारमें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता । क्षेत्रमें निवास करते हुए सर्वदा क्रीडा करनेवाला अमितकान्तिमान् कृष्णभक्त समस्त शरीरोंमें रहनेपर भी उनके कर्मोंके बन्धनमें नहीं पड़ता । विष्णु जिन्हें नित्य प्रिय है, वे सर्वदा विष्णुके प्रिय होते हैं । दामोदरका चिन्तन करनेवाले उनके भक्त, उनके शरणागत अथवा श्रद्धापूर्वक उनका अर्चन करनेवाले मनुष्य फिर जन्म ग्रहण नहीं करते । दानवेश्वर ! प्रातः काल उठकर श्रद्धापूर्वक मधुसूदनका चिन्तन करनेवाले मनुष्य इस संसाररुपी कीचड़में नहीं फँसते । उनका गुणगान करनेवाले एवं गुणोंको श्रवण करनेवाले मनुष्य कठिनाइयोंको पार कर जाते हैं ॥४५ - ५२॥
विमल कर्णरुपी पात्रोंसे अमृतरुपी हरिके वचनोंका पान कर ( श्रवण कर ) जिनका मन अत्यन्त आह्लादित होता है वे कठिनाइयोंको पार कर जाते हैं । चक्र - गदाधारी विष्णुमें स्थिर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्य निःसंदेह योगेश्वर हरिके स्थानमें जाते हैं । विष्णुकी सेवामें तत्पर रहनेवाले भक्तोंको जो श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है वह हजारों जन्मोंके भी तपसे नहीं प्राप्त हो सकती । मधुसूदनमें निरन्तर पराभक्तिसे रहित मनुष्योंके जप, मन्त्र, तप एवं आश्रमोंसे क्या लाभ ? मधुसूदनसे द्वेष करनेवाले मनुष्योंके यज्ञ, वेद, दान, ज्ञान, तप एवं कीर्ति व्यर्थ हैं । जनार्दनमें श्रद्धा रखनेवालोंको बहुत - से मन्त्रोंसे क्या लाभ ? ‘ ॐ नमो नारायणाय ’ मन्त्र सभी अर्थोंका सिद्ध करनेवाला है । जिनकी गति विष्णु हैं एवं जिनके हदयमें नील कमलके समान श्याम वर्णवाले जनार्दन अवस्थित हैं, उनकी हार कहाँ सम्भव है ? सभी मङ्गलोंके मङ्गलमूर्ति, वरेण्य, वरदानी प्रभु नारायणको नमस्कार कर समस्त कर्म करना चाहिये ॥५३ - ६०॥
महासुर ! विष्टियाँ, व्यतिपात एवं दुर्नीतिसे उत्पन्न हुई अन्य सभी आपत्तियाँ विष्णुके नामका स्मरण करनेसे विनष्ट हो जाती हैं । सौ करोड़ एवं हजारों करोड़ तीर्थ भी नारायणको प्रणाम करनेकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं । मृत्युलोकमें जितने तीर्थ और पवित्र स्थान - देवस्थान हैं, वे सभी विष्णुके नामके संकीर्तनसे प्राप्त होते हैं । श्रीकृष्णको नमन करनेवाले मनुष्य जिन लोकोंको प्राप्त करते हैं, उन्हें व्रत करनेवाले या तपस्या करनेवाले लोग नहीं प्राप्त करते । अन्य देवताका भक्त होते हुए केशवकी आडम्बरपूर्ण अर्चना करनेवाला मनुष्य भी पुण्यकर्म करनेवाले साधुओंके महान् स्थानको प्राप्त करता है । हषीकेशके निरन्तर पूजनसे जो फल प्राप्त होता है घोर तप करनेवाले मनुष्योंको वह फल कभी नहीं प्राप्त होता । तीनों संध्याओंके समयमें पद्मनाभका स्मरण करनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको निस्संदेह उपवासका फल प्राप्त होता है ॥६१ - ६७॥
बले ! शास्त्रोंमें वर्णित कर्मद्वारा निरन्तर हरिका अर्चन करो । उनके प्रसादसे निरन्तर स्थिर रहनेवाली उत्तम सिद्धि प्राप्त करोगे । पुत्र ! तुम तन्मना, तद्भक्त एवं उनका भजन करनेवाला होकर उन्हें नमन करो; उन देवेशका ही आश्रय ग्रहण कर तुम सुख प्राप्त करोगे । आद्य, अनन्त, अजर, सर्वत्रगामी, शुभदाता, ब्रह्ममय, पुराण, अव्यय हरिका दिन - रात स्मरण करनेवाले मृत्युलोकके वासी श्रेष्ठ मनुष्य ध्रुव एवं अक्षय वैष्णव पदको प्राप्त करते हैं । जो आसक्तिहीन एवं पर और अपरके ज्ञाता मनुष्य निरन्तर गुरुदेव नारायणका चिन्तन करते हैं वे धुले हुए श्वेत पंखोंवाले राजहंसोंके समान विषय - रुपी जलसे भरे संसार - सागरको पार कर जाते हैं । जो मनुष्य उत्तम कमलदलके समान विस्तृत नेत्रोंवाले निर्दोष, नियमन करनेवाले अच्युतका निरन्तर चिन्तन करते हैं, वे उस ध्यानसे पाप - कष्टका नाश हो जानेपर फिर माताके पयोधरका रसा नहीं पान करते ( उनका पुनर्जन्म नहीं होता । ) ॥६८ - ७२॥
हाथोंमें शड्ख, कमल, चक्र, श्रेष्ठ धनुष, गदा तथा तलवार धारण करनेवाले, लक्ष्मीके मुखकमलके भ्रमर, वर देनेवाले पद्मनाभका कीर्तन करनेवाले मनुष्य निश्चय ही मधुसूदनका लोक प्राप्त करते हैं । अमृत पीनेसे तृप्त होनेवाले प्राणीके समान भक्तिपरायण मनुष्य आद्य भगवानका कीर्तन सुनकर पापसे मुक्त एवं सुखी होते हैं । अतः श्रद्धाशील मनुष्यको विष्णुका ध्यान, स्मरण, कीर्तन अथवा पाठ करनेवाले मनुष्योंसे विष्णुके नामोंका श्रवण करना चाहिये । देवगण पूजाके समान उसकी प्रशंसा करते हैं । स्वस्थ, बाह्य तथा आन्तरिक इन्द्रियोंसे जो मनुष्य पुष्प, पत्र, जल एवं पल्लवादिद्वारा शासन करनेवाले केशवका अर्चन नहीं करता, निश्चय ही विधिरुपी तस्करने उसे लूट लिया है ॥७३ - ७६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तिरानबेवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९३॥