नारदजीने पूछा - द्विजश्रेष्ठ ! पुरुरवाने नक्षत्रपुरुष नामक व्रतके द्वारा लक्ष्मीपति वासुदेवकी जिस विधिसे आराधना की थी, उसे कहिये ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! मैं नक्षत्रपुरुष - व्रत एवं देवके सभी नक्षत्ररुपी अङ्गोंका वर्णन करता हूँ; आप सुनें । मूलनक्षत्र भगवान् विष्णुके दोनों चरणों, रोहिणी नक्षत्र दोनों जंघाओं एवं अश्विनी नक्षत्र दोनों घुटनोंका रुप धारण करके स्थित हैं । पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नामके दो नक्षत्र वासुदेवके दोनों ऊरुओंमें, पूर्वाफाल्गुनी तथा उत्तराफाल्गुनी नामवाले दोनों नक्षत्र गुह्य प्रदेशमें और कृत्तिका नक्षत्र कटि - भागमें स्थित है । पूर्वाभाद्रपदा तथा उत्तराभाद्रपदा भगवानके दोनों पार्शोंमें, रेवती दोनों कुक्षियोंमें, अनुराधा हदयमें तथा धनिष्ठा नक्षत्र पृष्ठदेशमें स्थित हैं ॥२ - ५॥
दोनों भुजाओंके स्थानमें विशाखा नक्षत्र है । हस्त नक्षत्रको भगवानका दोनों हाथ कहा गया है । पुनर्वसु नक्षत्र भगवानकी अंगुलियाँ और आश्लेषा नक्षत्र उनके नख हैं । ग्रीवामें ज्येष्ठा, दोनों कानोंमें श्रवण तथा मुखमें पुष्य नक्षत्र स्थित है । दाँतोंको स्वाति नक्षत्र कहा गया है । शतभिषा नक्षत्र दोनों हनुएँ तथा मघाको नासिका कहा गया है । ( नक्षत्रोंका ) रुप धारण करनेवाले भगवानके दोनों नेत्रोंमें मृगशिरा नक्षत्रका निवास है । चित्रा ललाटमें, भरणी सिरमें तथा आर्द्रा नक्षत्र केशमें रहता है । भगवान् विष्णुका यह नक्षत्रशरीर है ॥६ - ९॥
नारदजी ! अब मैं उस व्रतके विधानका वर्णन करुँगा, जिस व्रतसे नियमपूर्वक आराधित होनेपर भगवान् विष्णु इच्छित फल प्रदान करते हैं । चैत्र मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिमें चन्द्रमाके मूल नक्षत्रमें स्थित होनेपर भगवानके दोनों पैरोंकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । अश्विनी नक्षत्रके योगमें श्रद्धापूर्वक भगवानके दोनों घुटनोंकी अर्चना करनी चाहिये एवं ‘ दोहद ’ में ( यात्रा - दोषकी शान्तिके लिये खाये - पिये जानेवाले निश्चित पदार्थमें ) हविष्यान्न समर्पित करना एवं पूर्ववत् ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये । विद्वान् मनुष्य पूर्वाषाढ तथा उत्तराषाढके योगमें विष्णुके दोनों ऊरुओंकी पूजा करे । ( इसमें देय ) दोहदमें शीतल जलका विधान है ॥१० - १३॥
[ अनुक्रान्त विधानमें पुलस्त्यजी कहते हैं - ] विद्वान् पुरुष दोनों फाल्गुनी नक्षत्रोंमें भगवानके गुह्य - देशकी पूजा करे । दोहदके लिये दूध और घी दे और ब्राह्मणभोजन कराये । कृत्तिका नक्षत्रमें उपवासपूर्वक जितेन्द्रिय रहकर भगवानके कटि - देशकी अर्चना करे और सुगन्धित कुसुमसे युक्त जलका ‘ दोहद ’ दान करे । दोनों भाद्रपदाओंमें कहे हुए विधानसे भगवानकी दोनों बगलोंकी अर्चना करके ‘ दोहद ’ में देवद्वारा कथित - शास्त्रनुमोदित चाटनेवाली वस्तुसे युक्त गुड़ देना चाहिये । रेवती नक्षत्रके योगमें भगवानकी दोनों कुक्षियोंकी पूजाके बाद दोहदमें मूँगके लङ्डू प्रदान करने चाहिये । अनुराधा नक्षत्रमें उदरकी पूजा करके दोहदमें साठीका चावल देना चाहिये ॥१४ - १७॥
धनिष्ठा नक्षत्रमें पृष्ठकी पूजा करके दोहदमें शालिका भात देना चाहिये । विशाखा नक्षत्रमें भगवानकी दोनों भुजाओंकी पूजा कर दोहदमें उत्तम अन्न देना चाहिये । हस्त नक्षत्रमें भगवानके दोनों करोंकी पूजा करके दोहदमें जौसे बना पक्वान्न देना चाहिये । पुनर्वसु नक्षत्रमें अंगुलियोंकी पूजा करके दोहदमें रेशमी वस्त्र या परवल प्रदान करना चाहिये । आश्लेषा नक्षत्रमें नखकी पूजा कर दोहदमें तित्तिरकी आकृति प्रदान करे । ज्येष्ठामें ग्रीवाकी पूजा करके दोहदमें तिलका लड्डू प्रदान करे । श्रवणनक्षत्रमें दोनों कानोंकी पूजा करके दोहदमें दही और भात प्रदान करे । पुष्यनक्षत्रमें मुखकी पूजा करे और दोहदमें घी मिला हुआ पायस प्रदान करे ॥१८ - २१॥
स्वातिनक्षत्रके योगमें भगवानके दाँतोंका पूजन करके तिल और शष्कुली ( पूड़ी ) - का दोहद दे एवं केशवको प्रसन्न करनेके लिये ब्राह्मणको भोजन कराये । शतभिषा नक्षत्रमें प्रयत्नपूर्वक भगवानके ठुड्डीकी पूजा करे और विष्णुको अत्यन्त प्रिय लगनेवाला प्रियङ्गु ( कँगनी ) एवं लाल चावलका दोहद दे । मघामें नासिकाकी पूजा करनी चाहिये एवं दोहदमें मधु देना चाहिये । मृगशिरा नक्षत्रमें मस्तकमें स्थित दोनों नेत्रोंकी पूजा करके दोहदमें मृगके मानका फलका गूदा देना चाहिये । चित्रा नक्षत्रके योगमें ललाटकी पूजा करके दोहदमें सुन्दर करनी चाहिये और दोहदमें सुन्दर भात प्रदान करना चाहिये ॥२२ - २५॥
आर्द्राके योगमें विद्वान् लोगोंको ( भगवानके ) केशोंकी पूजा करनी चाहिये और श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराना तथा दोहदमें गुड़ एवं अदरखका दान करना चाहिये । इन नक्षत्रोंके योगोंमें जगत्पति ( विष्णु ) - की पूजा करनेके बाद पारणकर स्त्री और पुरुषके लिये दो सुन्दर वस्त्र दे । बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मणको सफेद छाता, एक जोड़ा जूता, सप्तधान्य, स्वर्ण एवं घीसे भरे पात्रका दान करे । प्रत्येक नक्षत्रके योगमें ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये । यही नक्षत्रमय नित्य सनातन पुरुष माने गये हैं ॥२६ - २९॥
नक्षत्रपुरुष नामका व्रत सभी व्रतोंमें श्रेष्ठ हैं । प्राचीन समयमें भृगुने समस्त पापोंके विनाश करनेवाले इस व्रतको किया था । देवर्षे ! भगवानके अङ्गों और उपाङ्गोंकी पूजा करनेसे मनुष्यके सभी अङ्ग - प्रत्यङ्ग सुन्दर होते हैं । सात जन्मोंमें ( अपने स्वयंके ) किये हुए, कुलक्रमसे प्राप्त एवं माता - पिताके कारण प्राप्त पापों - सब प्रकारके पापोंको केशव पूर्णतया नष्ट कर देते हैं; और इस प्रकार भगवानका पूजन करनेसे समस्त प्रकारके कल्याण प्राप्त होते हैं; शरीर उत्तम आरोग्यसे सम्पन्न होता है, मनमें अनन्त प्रसन्नता प्राप्त होती है और अत्यन्त सुन्दर रुप भी प्राप्त हो जाता है ॥३० - ३३॥
इस प्रकार पूजित होनेपर नक्षत्रपुरुष जनार्दन भगवान् मधुर वाणी, कान्ति तथा अन्य मनोऽभिलषित पदार्थ प्रदान करते हैं । नारदजी ! इन नक्षत्रोंके योगमें क्रमशः उपवासकर महाभाग्यशालिनी अरुन्धतीने उत्तम प्रसिद्धि प्राप्त की थी । आदित्यने पुत्रकी इच्छासे नक्षत्रपुरुष जनार्दनकी अर्चनाकर रेवन्तनामक पुत्र प्राप्त किया था । ( नक्षत्राङ्ग जनार्दनकी पूजा करके ) रम्भाने श्रेष्ठ रुप, मेनकाने वाणीकी मधुरता, चन्द्रने उत्तम कान्ति तथा पुरुरवाने राज्य प्राप्त किया था । [ पुलस्त्यजी कहते हैं । कि - ] ब्रह्मन् ! इस प्रकार जिसने नक्षत्राङ्गरुपधारी जनार्दनकी पूजा की, उसने अपने मनोरथोंकी भलीभाँति पूर्ति कर ली । मैंने आपसे भगवान् नक्षत्रपुरुषके परम पवित्र धन देनेवाले, कीर्ति बढ़ानेवाले और सुन्दर रुपको देनेवाले व्रतके विधानका वर्णन कर दिया । अब पवित्र तीर्थयात्राका वर्णन सुनिये ॥३४ - ३९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अस्सीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८०॥