पापसम्भूत ज्वरहरव्रत
( सूर्यारुण ४२ ) - दीर्घ कालके ज्वरसे आकुल हुए आतुरको चाहिये कि वह ' रौद्री ' ( उष्णज्वर ) की निवृत्तिके लिये अष्टमी अथवा चतुर्दशीको और ' वैष्णवी ' ( शीतज्वर ) की निवृत्तिके लिये एकादशी या द्वादशीको अथवा रौद्री, वैष्णवी किसीके लिये भी महापर्वकी किसी भी तिथिको यथासामर्थ्य ( यथावत् या मानसिक ) प्रातःस्त्रानादिक निवृत्त होकर कम्बलादिके शुभासनपर पूर्व या उत्तर मुख होकर बैठे हाथमें जल, फल, गन्ध, अक्षत औ पुष्प लेकर
' मम पापसम्भूतज्वरप्राप्तिकामनया श्रीमहेश्वर वा महाविष्णुप्रीतये च रुद्रविष्णुपूजनपूर्वकज्वरपूजनं तद्व्रतं च करिष्ये ।'
इस प्रकार संकल्प करके जितनी सामर्थ्य हो, उतने ही सुवर्णका पत्र बनवाकर उसमें उपर्युक्त प्रकारके यमोपम ज्वरक स्वरुप अङ्गित करावे और ' विष्णुमन्त्न ' ' इदं विष्णु०' या ' सहस्त्रशीर्षा०' आदि १६ मन्त्नोंसे विष्णुका और रुद्र - मन्त्न ' नमः शम्भवाय०' या ' नमस्ते रुद्र०' के १६ मन्त्नोंसे रुदका पूजन करके उपर्युक्त ज्वर - मूर्तिको उनके समीपमें स्थापित करके उसका
' ॐ नमो महाज्वराय विष्णुरुद्रगणाय भीममूर्त्तये सर्वलोकभयंकराय मम तापं हर हर स्वाहा ।'
इस मन्त्नसे पूजन करे । फिर इसी मन्त्नका जितना बन सके जप करके सफेद सरसोंसे उसका दशांश हवन करे । इसके पीछे सत्पात्र ब्राह्मणोंको भोजन कराकर सुवर्णकी दक्षिणा दे और स्वयं एकभुक्त व्रत करे । इस प्रकार एक, तीन या सात बार करनेसे ज्वर शान्त हो जाता है ।