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यक्षान्तक सुवर्णकदली - दानव्रत
( सूर्यारुण ) - राजयक्ष्माके रोगीको चाहिये कि वह अपनी सामर्थ्यके अनुसार सुवर्णका कदली - वृक्ष बनवावे । जिसमें फल, पत्ते और मुकुल ( फूलकी डोडी ) यथावत् हों । यदि सामर्थ्य न हो तो साक्षात् कदली - वृक्ष मँगवावे और शुभ दिनमें शौचादिसे निवृत्त होकर शुभासनपर पूर्वाभिमुख बैठकर
' मम जन्मान्तरीयपापजनितप्राणान्तकराजयक्ष्मोपशमनकामनया श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थे सुवर्णकदली - ( ससुवर्ण - कदली वा - ) दानं करिष्ये ।'
यह संकल्प करके विनिर्मित या सिञ्चित कदलीको वस्त्रादिसे भूषित कर पूजन करे और जप, तप, होम तथा व्रत आदि सम्पूर्ण कर्म समाप्त होनेके पीछे आत्माको जाननेवाले धर्मप्राण दयावान् वृतस्थायी और पूजनीय पण्डितको सुपूजित कदलीका दान दे । उस समय
' हिरण्यगर्भ पुरुष परात्पर जगन्मय । रम्भादानेन देवेश क्षयं क्षपय मे प्रभो ॥'
का उच्चारण करे । तत्पश्चात् विद्वान् ब्राह्मणोंसे पुण्याहवाचन कराकर उनको भोजन करावे और फिर शिष्ट तथा इष्ट मनुष्योंको भोजन कराकर व्रतको समाप्त करे । इस प्रकार करनेसे राजयक्ष्मा शान्त होता है ।
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यक्ष्मान्तक दानव्रत
( सूर्यारुण ) - औषधोपचारादिसे यदि यक्ष्मा शान्त न हो तो ज्यौतिषशास्त्रोक्त शुभ दिनमें प्रातःकालीन कृत्यसे निवृत्त होकर अपनी सामर्थ्यके अनुसार गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, मिष्टान्न, वस्त्र, जल, फल, लोह और तिल - इन सबका यथाविधि दान करे । यदि यह न बन सके तो लोहेके घड़ेमें तिल भरकर गन्ध - पुष्पादिसे पूजन करके, उसे सत्पन्न प्रतिग्राहीको दे । अथवा - ' आते रौद्रेण०' सूक्तका जप करके उसकी प्रत्येक ऋचासे आहुति दे और फिर शिवजीका उपस्थान करके ' त्र्यम्बकं यजामहे०' का एक मासतक जप करे । इससे भी रोग शान्त होता है ।