शूलरोगोपशमनव्रत
( मन्त्नहार्णव ) - शान्त, गम्भीर और श्रुतिके अध्यापनमें समर्थ किंतु अकिञ्चन और याचना करनेवाले ब्राह्मणको बुलाकर भी जो कुछ नहीं देता, वह जठरशूलसे पीड़ित होता है । आयुर्वेदके मतानुसार कसरत करने, बहुत चलंने, अधिक जगने, अति मैथुन करने, बहुत शीतल जल पीने, मूँग, अरहर, कोदो या सूखे पदार्थ खाने, भोजन - पर - भोजन करने, भिगोकर उगाये हुए तन्तुयुक्त मूँग, मोठ या चौंले खाने और मल - मूत्र - वीर्य या अपान वायुका वेग रोकने आदि कारणोंसे शूल - रोग होता है । हारीतने इसकी जन्मकथा १ इस प्रकार कही है कि ' कामदेवका नाश करनेके निमित्तसे शिवजीने त्रिशूल फेंका था । उससे भयभीत होकर कामदेव भगा और विष्णुके शरीरमें प्रविष्ट हो गया । तब विष्णुने हुंकारसे त्रिशूलको गिरा दिया और वह भूमण्डलमें आकर शूल नामसे विख्यात हुआ । पञ्चभूतात्मक देहधारी कुपथ्यादिवश उसीसे पीड़ित होते हैं । ऐसे त्रिशूलसम २ शूल - रोगसे मुक्ति पानेकी इच्छावाला मनुष्य यथासामर्थ्य अन्नदान और ' नमस्ते रुद्र मन्यवे०' का जप करे और दृढ़व्रती रहे ।
१. अनङ्गनाशय हरस्त्रिशूलं मुमोच कोपान्मकरध्वजश्च ।
तमापतन्तं सहसा निरीक्ष्य भयार्दितो विष्णुतनुं प्रविष्टः ॥
स विष्णुहुङ्खरविमोहितात्मा पपात भूमौ प्रथितः स शूलः ।
स पञ्चभूतानुगतः शरीरं प्रदूषत्यस्य हि पूर्वसृष्टिः ॥ ( हारीतसंहिता )
२. शूली परोपतापेन जायते वपुषा तनुः ।
सोऽन्नदानं प्रकुर्वीत तथा रुद्रं जपेद् बुधः ॥ ( रुद्रविधान )