राजयक्ष्मोपशमनव्रत
( धर्मशास्त्रपुराणायुर्वेदादि ) - राजयक्ष्मा जन्मान्तरमें किये हुए महापापोंका द्योतक है । शातातपने १ कहा है कि ' यह रोग साक्षात् ब्रह्महत्या करने या राजाको मारनेसे होता है ।' वास्तवमें अन्य रोगोंकी अपेक्षा राजयक्ष्मासे मनुष्यकी बड़ी दुर्दशा होती हैं । आयुवेदके मान्यतम ग्रन्थोंका मत है कि ' राजयक्ष्माको मिटानेवाली मुख्य औषध मृत्यु है । सद्वैद्य, सदौषध,सदुपचार और नियमपालक रोगी होनेपर भी राजयक्ष्मावाला रोगी अधिक - से - अधिक एक हजार दिन ( २ वर्ष ९ महिने १० दिन ) जीवित रह सकता है ।' इसके अतिरिक्त अन्य रोगी तो चार, छः या आठ मासमें ही मर जाते है और उसके रक्त, मज्जा, मांस और अस्थिपञ्जर - पर्यन्त सूख या घिस जाते हैं । आयुर्वेदके मतानुसार २ वेगरोध ( मल - मूत्रादिके आते हुए वेगको रोकने ), क्षय ( अत्याधिक स्त्री - प्रसंगादिके द्वारा रज और वीर्यका नाश करने ), साहस ( अपनेसे अधिक बलीके साथ युद्ध - कसरत या वैर करने अथवा बहुत भागने ) और विषमाशन ( समय - असमय; एक बार, अनेक बार; कभी अल्पाहार, कभी अमिताहार ) और कभी क्षुधा, तृषा या निद्राके बहुत दबानेपर भी उनको बलात् रोकने आदि कारणोंसे राजयक्ष्मा १ होता है । विशेषता यह है कि बहुव्ययसाध्य सर्वोत्कृष्ट औषध या उपचार करनेपर भी यह रोग घटता नहीं, प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है । इसके विपरीत रोगी यह मानता है कि ' मैं ' अच्छा हो रहा हूँ । इस विषयमें स्वयं सूर्यनारायणने कहा है कि ' यह रोग २ केवल औषध - सेवनसे क्षीण नहीं होता । इसके लिये औषध - सेवनके सिवा दान, ३ दया, धर्म, दीनोपकार, गो - द्विज - देवादिका अर्चन, व्रत, जप, हवन और तप करने ( अथवा शरीर और संसारसे निमोंह होकर ईश्वर - स्मरणमें निरन्तर मन लगाने ) की आवश्यकता है ।
१. ' ब्रह्महा क्षयरोगी स्यात् ' । ( शातातप )
ब्राह्मणं घातयेद् यस्तु पूर्वजन्मनि मानवः ।
मोहादकामतः सोऽपि क्षयरोगसमन्वितः ॥
राजघातकरः प्रोक्तो यः पूर्वं घातयेन्नृपम् ।
राजयक्ष्मान्वितः सोऽत्र तस्मिन् वयसि रोगवान् ॥ ( सूर्यारुण )
२. वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद् विषमाशनात् ।
त्रिदोषाज्जायते यक्ष्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥ ( चरक )
३. राजश्चन्द्रमसो यस्मादभूदेष किलामयः ।
तस्मात् तं राजक्ष्मेति प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
क्रियाक्षयकरत्वत्तु क्षय इत्युच्यते बुधैः ।
संशोषणाद रसादीनां शोष इत्यभिधीयते ॥ ( भाव० )
४. निष्कृत्त्या कर्मजन्मोत्थो दोषजस्त्वौषधेन हि ॥
उभयाज्जयमानस्तु निष्कृत्यौषधसेवया । ( सूर्यारुण )
५. दानेर्दयाभिरतिथिद्विजदेवतागोदेवार्चनप्रणतिभिश्च जपैस्तपोभिः ।
इत्युक्तपुण्यनिचयैरपचीयामानं प्राकपापजातमशुभं प्रशमं नयन्ति ॥ ( सूर्य )