चाक्षुष II. n. चक्षु ४. देखिये ।
चाक्षुष III. n. विश्वकर्मा का पुत्र । इसे विश्वेदेव तथा साध्वगण नामक दो पुत्र थे ।
चाक्षुष IV. n. भौत्य मन्वन्तर का देवगण ।
चाक्षुष V. n. अग्नि देखिये ।
चाक्षुष VI. n. चक्षु का पुत्र
[भा. ८.५.७] यह षष्ठ मन्वंतर का अधिपति एवं मनु था । चक्षु सर्वतेजस् तथा आकृति का यह पुत्र था । इसे नड्वला नामक पत्नी थी
[भा.४.१३.१५] । भागात में अन्यत्र, इसके पिता चक्षु को ही मनु माना है । यह अंग राजा का पुत्र था । यह पुलह ऋषि की शरण में गया । पुलह ने इसे उपदेश किया । इस उपदेश के अनुसार, इसने विरजा नदी के किनारे बारा साल तक घोर तपस्या की । तपस्या का प्रथम वर्ष वृक्ष के सूखे पत्ते खा कर यह रहा । पश्चात् केवल पानी पी कर तथा आखिर केवल वायुभक्षण कर के इसने तप किया । इस प्रकार बारह वर्ष तक इसने वाग्भव मंत्र का त्रिकाल जप किया । इससे देवी प्रसन्न हो गई । उसने इसे मन्वन्तराधिपत्व तथा दस उत्तम पुत्र दिये
[दे. भा.१०.९] । मार्कडेय पुराण में इसकी जीवनकथा अलग टंग से दी गयी है
[मार्क.७३] । पहले जन्म में यह ब्रह्मदेव के चक्षुओं से उत्पन्न हुआ था । अतः इस जन्म में इसे चाक्षुष नाम प्राप्त हो गया । जन्मतः इसे पूर्वजन्म का चाक्षुष नाम प्राप्त हो गया । जन्मतः इसे पूर्वजन्म का ज्ञान था । अनमित्र राजाको यह भद्रा सें उत्पन्न हुआ । जन्मते ही सात दिन के अंदर इसने हँस दिया । तब भद्रा ने इसे पूछा, ‘तुम्हें हँसी कैसे आई?’ तब इसने कहा, ‘स्वार्थबुद्धि से एक मार्जारी तथा एक जातहारिणी मुझे खाने के लिये घात लगाये बैठी हैं । तुम भी उन्हीं के अनुसार, ‘बादमें यह मुझे सुख देगा,’ इस स्वार्थबुद्धि से मेरा भरणपोषण कर रही हो ।’ तब ‘मैं स्वार्थी नहीं हूँ, यह दर्शाने के लिये, भदा इसे वहीं छोड कर चली गई । उस समय जातहारिणी इसे उठा कर ले गई । उसी समय विक्रान्त की पत्नी हैमिनी प्रसूत हुई थी । उसकी शय्या पर जातहारिणी ने इसे रखा । विक्रान्त का पुत्र बोध नामक ब्राह्मण के घर ले जा रखा । बोध ब्राह्मण का पुत्र उसने खा लिया । यह जातहारिणी रोज इसी प्रकार पुत्रों की अदल-बदल कर के, क्रम से आनेवाला तीसरा पुत्र खा लेती थी । विक्रान्त ने इसका नाम आनंद रखा । व्रतबंध होने के बाद इसे गुरु को सौंपा । गुरु ने इसे मॉं को नमस्कार कर के आने के लिये कहा । तब संपूर्ण हकीकत बत कर इसने पूछा, ‘मैं किस माताको प्रणाम करुं?’ बाद में स्वयं ही इसने विक्रान्त को कहा, तुम्हारा पुत्र विशाल ग्राम में बोध नामक ब्राह्मण के घर में है । उसे ले आओ । मैं वन में तपश्चर्या करने जा रहा हूँ’ (विक्रनत देखिये) । बाद में यह वन में जा कर तपश्चर्या करने लगा । ब्रह्मदेव ने आ कर इसे तपश्चर्यो से परावृत्त किया, तथा कहा, ‘तुम छठवें मनु बननेवाले हो, अतएव अपनी कर्तव्यपूर्ति के लिये सिद्ध रहो ’। ब्रह्मदेव के कथनानुसार यह कार्यप्रवण हुआ । उग्र रजा की कन्या विदर्भा से इसने विवाह किया । उससे इसे दस पुत्र हुए (मनु देखिये) । कूर्मावतार तथा समुद्रमंथन इसीके मन्वन्तर में हुए
[भा.८.५.७-१०] ।