ते नर नरकरूप जीवत जग,
भव-भंजन पद बिमुख अभागी ।
निसिबासर रुचि पाप, असुचिमन,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ॥१॥
नहिं सतसंग, भजन नहिं हरिको,
स्त्रवन न रामकथा अनुरागी ।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ॥२॥
तुलसिदास हरि नाम सुधा तजि,
सठ, हठि पियत बिषय-बिष मॉंगी ।
सूकर-स्वान-सृगाल-सरिस जन,