जो मन लागै रामचरन अस ।
देह गेह सुत बित कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥
द्वंद्वरहित गतमान ग्यान-रत बिषय-बिरत खटाइ नाना कस ।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न कहु क्यों न होहिं बस ॥
सर्बभूताहित निर्ब्यलीक चित भगति प्रेम दृढ़ नेम एक रस ।
तुलसीदास यह होइ तबहि जब द्रवै ईस जेहि हतो सीस दस ॥