सखि नीके कै निरखि कोऊ सुठि सुंदर बटोही ।
मधुर मूरति मदनमोहन जोहन जोग,
बदन सोभासदन देखिहौं मोही ॥१॥
साँवरे गोरे किसोर, सुर-मुनि-चित्त-चोर
उभय-अंतर एक नारि सोही ।
मनहुँ बारिद-बिधु बीच ललित अति
राजति तड़ित निज सहज बिछोही ॥२॥
उर धीरजहि धरि, जन्म सफल करि,
सुनहु सुमुखि ! जनि बिकल होही
को जाने कौने सुकृत लह्यो है लोचन लाहु,
ताहि तें बारहि बार कहति तोही ॥३॥
सखिहि सुसिख दई प्रेम-मगन भई,
सुरति बिसरि गई आपनी ओही ।
तुलसी रही है ठाढ़ी पाहन गढ़ी-सी काढ़ी,
कौन जाने कहा तै आई कौन की को ही ॥४॥