बिनती भरत करत कर जोरे ।
दिनबन्धु दीनता दीनकी कबहुँ परै जनि भोरे ॥१॥
तुम्हसे तुम्हहिं नाथ मोको, मोसे, जन तुम्हहि बहुतेरे ।
इहै जानि पहिचानि प्रीति छमिये अघ औगुन मेरे ॥२॥
यों कहि सीय-राम-पाँयन परि लखन लाइ उर लीन्हें ।
पुलक सरीर नीर भरि लोचन कहत प्रेम पन कीन्हें ॥३॥
तुलसी बीते अवधि प्रथम दिन जो रघुबीर न ऐहौ ।
तो प्रभु-चरन-सरोज-सपथ जीवत परिजनहि न पैहौ ॥४॥