जानत प्रीति-रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई ॥१॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई ।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥२॥
तिय-बिरही-सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।
रन परयो बन्धु बिभीषन ही को, सोच ह्रदय अधिकाई ॥३॥
घर, गुरुगृह, प्रिय-सदन सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई ।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥४॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुच सिर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥५॥
प्रेम कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहूँ काल न भाई ।
'तेरो रिनी' कह्यौ हौ कपि सों ऐसि मानहि को सेवकाई ॥६॥
तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भग्ति उर आई ।
तौ तोहिं जनति जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥७॥